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उत्तराखंडः विधानसभा में मनमानी भर्तियां, सरकार को नहीं जांच का अधिकार

देहरादून। विस में सभी स्पीकरों द्वारा कीं गईं मनमानी भर्तियां चर्चा में हैं। कानून के नजरिए से बात...
उत्तराखंडः विधानसभा में मनमानी भर्तियां, सरकार को नहीं जांच का अधिकार

देहरादून। विस में सभी स्पीकरों द्वारा कीं गईं मनमानी भर्तियां चर्चा में हैं। कानून के नजरिए से बात करें तो ये साफ पर तौर पर पद के दुरुपयोग का मामला बनता है। इसके बाद भी राज्य सरकार इसकी जांच नहीं करवा सकती है। यह अधिकार विधानसभा अध्यक्ष के पास ही है। ऐसे में इस देवभूमि के युवाओं की निगाहें युवा स्पीकर रितु खंडूड़ी पर टिक गईं हैं। अब देखना होगा कि रितु इनकी जांच का आदेश देकर एक इतिहास रचती हैं या फिर पहले के स्पीकरों की राह पर ही चलती हैं।

संविधान की धारा 187 के तहत विधानसभा सचिवालय का गठन होता है। स्पीकर इसके मुखिया होते हैं। यूं तो स्पीकर को अपनी जरूरत के लिहाज से नियुक्तियों का अधिकार है। लेकिन वे अधिकतक छह माह के लिए ऐसा कर सकते हैं। धारा 187 की उपधारा तीन में प्रावधान किया गया है कि नियमावली के तहत कोई भी प्रावधान संविधान के खिलाफ नहीं हो सकता।

हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता नदीम उद्दीन कहते हैं कि संविधान के मूल अधिकार की धारा 16 (1) कहती है कि सभी नागरिकों को समान अधिकार दिया जाएगा। नदीम कहते हैं कि 187 (3) कहती है कि कोई भी नियम अगर संविधान के खिलाफ है तो अवैध है। ऐसे में किसी भी स्पीकर को विशेषाधिकार के तहत मनमानी नियुक्तियों का अधिकार नहीं मिलता है। अगर कोई स्पीकर ऐसा करता है कि यह सीधे तौर पर पद के दुरुपयोग का मामला है और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-7 के तहत अपराध है।

अब बात करते हैं नियुक्तियों की जांच की। इस मामले में राज्य सरकार के पाल कोई भी अधिकार नहीं है। धारा 187 के तहत सारे अधिकार स्पीकर में ही निहित हैं। वहीं जांच या फिर इस तरह की भर्तियों पर रोक लगा सकते हैं। ऐसे में उत्तराखंड के युवाओं की निगाहें महिला और युवा स्पीकर रितु खंडूड़ी पर ही आकर टिक गई हैं। अब देखने वाली बात ये होगी कि युवा स्पीकर 22 साल से विधानसभा में चल रहे चहेतों को बैकडोर ने नौकरी देने के खेल की जांच का आदेश देकर एक इतिहास रचती है या फिर पहले के स्पीकरों की राह पर ही चलती हैं।

हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में चुनौती का विकल्प

वरिष्ठ अधिवक्ता नदीम उद्दीन कहते हैं कि इन मनमानी नियुक्तियों हाईकोर्ट या फिर सीधे सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती दी जा सकती है। क्योंकि इस तरह की नियुक्तियां मूल अधिकार के लिए संविधान में बनी धारा 16 (1) का सीधा उल्लंघन है।

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