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क्‍यों निराश हैं देश के इंजीनियर, इंडियन इंजीनियर्स फेडरेशन के अध्‍यक्ष ने बताई वजह

सड़क, पुल, भवन आदि आधारभूत संरचना का जिम्‍मा जिन कंधों पर है, देश के इंजीनियर निराश से हैं। वजह काम करने...
क्‍यों निराश हैं देश के इंजीनियर, इंडियन इंजीनियर्स फेडरेशन के अध्‍यक्ष ने बताई वजह

सड़क, पुल, भवन आदि आधारभूत संरचना का जिम्‍मा जिन कंधों पर है, देश के इंजीनियर निराश से हैं। वजह काम करने वालों की कमी, काम का दबाव और सर्विस से जुड़ी समस्‍याएं हैं, बदनामी का दाग अलग से लगा रहता है। हाल ही पूर्वी प्रक्षेत्र के सम्‍मेलन में भाग लेने रांची आये इंडियन इंजीनियर्स फेडरेशन के अध्‍यक्ष सी देबनाथ ने इस मसले पर आउटलुक से लंबी बात की। ठोस शब्‍दों में कहें तो इसके लिए उन्‍होंने सरकार को जिम्‍मेदार ठहराया। कहा कि इस केंद्र सरकार हो या राज्‍य सरकार जिन इंजीनियों पर आधारभूत संरचना की जिम्‍मेदारी है उन पर कोई ध्‍यान नहीं है। हम मांग नहीं कर रहे बल्कि यह पूरी तरह तार्किक है।

सी देबनाथ ने कहा कि इंजीनियरिंग आयोग, तकनीकी विभागों में तकनीकी अधिकारियों की विभाग प्रमुख के पद पर नियुक्ति और प्रशासनिक सेवा की तरह इंजीनियरिंग सेवा से व्‍यवहार फेडरेशन की तीन राष्‍ट्रीय मांग है। जिसके लिए फेडरेशन लंबे समय से प्रयासरत हैं। तकनीकी विभाग के हेट टेक्‍नोक्रेट होना चाहिए क्‍योंकि किसी योजना के बारे में अभियंता विभागीय सचिव को बतायेगा और सचिव मंत्री को फिर विभागीय सचिव की मौजूदगी में अभियंता मंत्री को जानकारी देते हैं। इससे प्रक्रियात्‍मक विलंब होता है। फाइल प्रक्रिया में कई बार अप्रासंगिक सवाल उठा दिये जाते हैं। मेरा अनुभव अगर राज्‍यों में विभाग के तकनीकी सचिव होंगे तो ऐसा नहीं होगा। अभी तक 34 राज्‍य और केंद्र प्रशासित प्रदेशों में से 17 राज्‍यों जैसे ओडिशा, गुजरात, पश्चिम बंगाल, महाराष्‍ट्र, कर्नाटक, राजस्‍थान, असम, सिक्किम, अरुणाचल आदि में तकनीकी विभागों में तकनीकी सचिव के पद हैं। दूसरे शब्‍दों में कहें तो विकसित प्रदेशों में तकनीकी विभागों के हेड तकनीकी पदाधिकारी हैं।

जो राज्‍य विकसित नहीं हैं उसकी बड़ी वजह है कि उसके तकनीकी विभागों के हेड ब्‍यूरोक्रेट्स हैं। वजह पावर का खेल है। हमारा अनुभव है कि मंत्री अधिकारियों के बदले सीधे इंजीनियरों से तकनीकी मसलों पर विमर्श करेंगे तो काम आसान होगा। देर सबेर मुख्‍यमंत्रियों को राज्‍य सरकारों को यह बात समझ में आयेगी। झारखंड सहित अन्‍य राज्‍यों के मुख्‍यमंत्रियों को पुन: इस आशय का प्रस्‍ताव भेजा जा रहा है।

गायब हो गई इंजीनियरिंग कमीशन की फाइल

सी देबनाथ ने बताया कि इंजीनियरिंग कमीशन 1995 से हमलोग प्रयास कर रहे हैं। बीच में कुछ प्रगति भी हुई। तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति एपीजे अब्‍दुल कलाम से हमारा शिष्‍टमंडल मिला था, विमर्श हुआ। वे कमीशन के सुझाव पर सहमत भी हुए। स्‍वीकृति के लिए केंद्र सरकार के संबंधित विज्ञान एवं प्रावैधिकी मंत्रालय को प्रस्‍ताव भी गया। मगर पूरी फाइल की मंत्रालय से गायब हो गई। यह क्‍यों हुआ, सवाल है। दोबार सबमिट किया फाइल, संसद में भी पहल की गई। इंजीनियरिंग कमीशन के मसले पर 2019 में स्‍टेट और सेंट्रल इंजीनियरिंग सर्विस के लोगों ने एक सेमिनार किया जिसमें देश भर के इंजीनियरों ने इस पर मंथन किया। इससे निकले प्रस्‍ताव को आगे बढ़ाया, मंत्रालय में नितिन गडकरी के समक्ष प्रेजेंटेशन दिया। वे भी सहमत हुए। कमीशन के जरिये वेतन, सेवा, कार्य क्षेत्र, अधिकार, जिम्‍मेदारी, पद, मैन पॉवर की आवश्‍यकता आदि में एकरूपता आयेगी। काम की दिशा स्‍पष्‍ट होगी, स्‍वरूप स्‍पष्‍ट होगा। राज्‍यों की इकाई अब प्रदेश के सांसदों से मिलकर इसके पक्ष में सहमति तैयार करेगी, कि संसद में इसे वे उठायें।

चूहों के कारण बांध के बह जाने, नये पुलों के गिर जाने, नदी के बहाव में बह जाने से जुड़े सवाल पर फेडरेशन के पूर्वी प्रक्षेत्र के अध्‍यक्ष सियारंजन कुमार सिंह ने कहा कि डिजाइन, कंस्‍ट्रक्‍शन मेंटेनेंस तीन प्रक्रिया होती है। मानते हैं कि कहीं न कहीं इसमें किसी स्‍टेज पर चूक हुई जिसके कारण दुर्घटना होती है। उदाहरण देकर कहा, कि घर में खाना बनता है 365 दिन में एक दिन खराब बनता है तो यह सर्टिफिकेट नहीं दे सकते कि खाना बनाने वाला बिल्‍कुल खराब बनाता है। झारखंड में हर साल करीब एक हजार पुल बनता है अगर एक पुल टूट जाता है तो 999 का क्रेडिट भी मिलना चाहिए। स्‍वीकार करते हैं कि एक पुल में किसी स्‍तर पर चूक रह गई होगी। आरोप लगता है कि पूरा पैसा हड़प लिया। हजारों किलोमीटर सड़क बनाते हैं कहीं स्‍वायल फेल्‍योर, मिट्टी गुणवत्‍ता की सही तरीके से जांच न होने के कारण सड़क धंसने आदि की घटनाएं हो सकती हैं। पुलिस-प्रशासन का ही उदाहरण लें लाख बेहतर प्रशासन के बावजूद अपराध-दुर्घटना की घटनाएं तो होती ही रहती हैं। मतलब यह तो नहीं निकाला जाता कि वहां के एसपी-डीसी निकम्‍मा हैं।

आधे से कम हैं काम करने वाले

यह भी देखना चाहिए कि जितने मैन पावर की जरूरत है, उतने इंजीनियर हैं क्‍या। आज एक जुनियर इंजीनियर सात ब्‍लॉक में घूमता है। हर ब्‍लॉक में दस-दस स्‍थानों पर दैनिक काम होता है, उसका रोज मुआयना कहां तक संभव है। आज झारखंड में विभिन्‍न विभागों में इंजीनियरों के 60 प्रतिशत पद खाली है। रोड़ डिपार्टमेंट में ही अभियंता प्रमुख से सहायक अभियंता के 1022 पद हैं में 645 पद यानी 63 प्रतिशत खाली हैं। जल संसाधन में 254 पद में 156 खाली हैं। पीएचईडी में 61 प्रतिशत रिक्तियां हैं। एक ही इंजीनियर को तीन-तीन स्‍थानों का प्रभार मिल रहा है। काम करने की एक क्षमता होती है। इंजीनियर भी तो ह्यूमन विंग है, चूक अस्‍वाभाविक नहीं है।

सी देवनाथ कहते हैं कि इस पर विमर्श हुआ कि प्रभार ले रहे हैं मगर कोई अतिरिक्‍त फायदा नहीं मिलता। प्रभारवाद खत्‍म होना चाहिए, नियमित पोस्टिंग होनी चाहिए। 60 प्रतिशत पद खाली हैं इसके बावजूद जो सहायक अभियंता के पद पर ज्‍वाइन किया 31 साल के बाद भी इसी पद पर हैं। ऐसा किसी सेवा में नहीं है। पदों की रिक्ति की की स्थिति बिहार, ओडीशा, पश्चिम बंगाल आदि की भी यही है। बिहार अभियंत्रण सेवा संघ के पूर्व महासचिव राकेश कुमार कहते हैं कि राज्‍य चाहें तो इंजीनियरिंग कमीशन बना सकते हैं। खुद इंजीनियर रहे मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार इस पर सहमत थे। बेसा की आम सभा में उन्‍होंने इसके गठन की बात कही थी। मगर बात आगे नहीं बढ़ी। निर्माण के क्षेत्र में नियमित नई तकनीक के विकास से हाथ मिलाते हुए काम करने में इंजीनियरिंग कमीशन मददगार होगा, राज्‍य के विकास को गति मिलेगी। कमीशन के गठन से सेवा शर्तों के अतिरिक्‍त यह भी स्‍पष्‍ट होगा कि काम के हिसाब से कितने मैन पावर की जरूरत होगी, इससे काम भी समय पर होगा।

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