6 जुलाई 2025 को जब मैक्लोडगंज की पहाड़ियों पर सूरज निकलेगा, तो गहरे लाल वस्त्रों में भिक्षु चौदहवें दलाई लामा के दीर्घायु होने के लिए प्रार्थनाएं आरंभ करेंगे। हजारों श्रद्धालुओं की उपस्थिति में केक काटा जाएगा, उत्सव मनाया जाएगा और आशीर्वाद बांटे जाएंगे। जो एक वृद्ध संत का साधारण जन्मदिन उत्सव प्रतीत होता है, वह दरअसल एक गहन राजनीतिक प्रक्रिया है, जिसके दूरगामी प्रभाव हैं। यह नब्बेवां जन्मदिन सिर्फ दीर्घायु का प्रतीक नहीं, बल्कि एशिया की नैतिक भौगोलिकताओं की उस कथा का निर्णायक मोड़ है, जहां सॉफ़्ट पावर, उत्तराधिकार, संप्रभुता और आध्यात्मिक वैधता को नए सिरे से परिभाषित किया जा रहा है। धर्मशाला बीते एक माह से कूटनीतिक गतिविधियों का केंद्र बन गया है। बौद्ध विद्वान और हॉलीवुड अभिनेता एक साथ जमा हो रहे हैं। तिब्बती स्कूली बच्चे पारंपरिक नृत्य का अभ्यास कर रहे हैं, वहीं चीनी ड्रोन हिमालय की पहाड़ियों पर मंडरा रहे हैं।
वॉशिंगटन में अमेरिकी प्रतिनिधि सभा ने 6 जुलाई को करुणा दिवस घोषित किया है, हाउस रेजोल्यूशन 515 के तहत। यह कदम प्रतीकात्मक रूप से सौम्य किंतु रणनीतिक रूप से तीव्र है, जो तिब्बत को अमेरिका-चीन नीति के केंद्र में वापस ले आता है। यह घोषणा दो विरोधी दलों के समर्थन से हुई, जो इस बात का संकेत है कि एक विभाजित अमेरिका में भी तिब्बत एक ऐसा नैतिक प्रश्न है जो अब रणनीतिक चिंता का विषय बन चुका है।
लेकिन इस अवसर पर सबसे महत्वपूर्ण बात किसी सांसद ने नहीं, बल्कि स्वयं दलाई लामा ने कही। अपने जन्मदिन से कुछ दिन पहले जारी एक शांत, पूर्व रिकॉर्डेड संदेश में उन्होंने दोहराया कि केवल गदेन फोडरंग ट्रस्ट को ही उनके उत्तराधिकारी के चयन का अधिकार है। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि “कोई बाहरी राजनीतिक शक्ति” पुनर्जन्म की प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। धर्मशास्त्र में यह सामान्य बात हो सकती है, लेकिन राजनीति में इसका महत्व बहुत बड़ा है। यह सीधे चीन के 2007 के आदेश क्रमांक 5 का खंडन करता है, जो यह दावा करता है कि "जीवित बुद्धों" की मान्यता पर राज्य का नियंत्रण है। इस वक्तव्य के माध्यम से दलाई लामा ने बीजिंग द्वारा नामित किसी भी उत्तराधिकारी की वैधता को नकारते हुए, यह साफ कर दिया है कि उनकी मृत्यु के बाद सत्ता की रूपरेखा कौन तय करेगा।
चीनी प्रचारतंत्र की प्रतिक्रिया अपेक्षित थी, उन्होंने इसे "विच्छेदकारी" व्यवहार कहकर खारिज किया और पुनर्जन्म पर ऐतिहासिक अधिकार का दावा दोहराया। यह केवल वैचारिक टकराव नहीं, बल्कि एक निर्णायक संघर्ष है, यह तय करने के लिए कि निर्णय लेने का नैतिक अधिकार किसका है। आने वाले दशकों में तिब्बती बौद्ध परंपरा की धार्मिक और राजनीतिक संरचना इसी संघर्ष से आकार लेगी।
भारत ने अब तक आधिकारिक रूप से सतर्क रुख अपनाया है, लेकिन हाल ही में एक सूक्ष्म बदलाव देखा गया है। केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू द्वारा दलाई लामा के दृष्टिकोण का समर्थन यह दर्शाता है कि नई दिल्ली अब तिब्बती मुद्दे को केवल मानवीय विषय नहीं, बल्कि क्षेत्रीय शक्ति संतुलन का उपकरण मानने लगी है। लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश की सीमाओं पर तनाव बढ़ने के साथ-साथ, तिब्बत भारत को नैतिक ऊँचाई देता है और साथ ही रणनीतिक गहराई भी।
दक्षिण एशिया के बाहर, तिब्बती आंदोलन को संसदीय माध्यमों से नई ऊर्जा मिली है। जून की शुरुआत में टोक्यो में 9वें विश्व सांसद सम्मेलन का आयोजन हुआ, जिसमें 26 देशों के 130 सांसदों ने भाग लिया। उनकी टोक्यो घोषणा और कार्य योजना, तथा जन्मदिन पर पारित प्रस्ताव, प्रतीकात्मक सहानुभूति को एक तरह के पूर्व-कानून का रूप देते हैं। ये प्रस्ताव वैधानिक रूप से बाध्यकारी नहीं हैं, लेकिन यह संकेत देते हैं कि चीनी हस्तक्षेप द्वारा थोपे गए किसी भी पुनर्जन्म को अस्वीकार करने के लिए एक वैश्विक नैतिक सहमति बन रही है।
एक सप्ताह बाद, अमेरिकी कैपिटल भवन में दलाई लामा के जन्मदिन से पहले का उत्सव और "तिब्बत लॉबी डे" मनाया गया, जिसने इस अनुष्ठानिक ऊर्जा को विधायी समर्थन में बदल दिया। लेकिन यह केवल दलाई लामा के उत्तराधिकारी के चयन की बात नहीं है, बल्कि यह भी एक बड़ा सवाल है कि क्या उनके नेतृत्व की शैली आगे जीवित रह पाएगी? जब पूरी दुनिया अधिनायकवाद, लोकलुभावन क्रोध और जलवायु संकट से जूझ रही है, तब दलाई लामा करुणा की राजनीति के प्रतीक बनकर उभरे हैं। अन्य धार्मिक नेताओं की तरह उन्होंने पीड़ा को शिकायत में नहीं बदला, ना ही उन्होंने खुद को राष्ट्रवाद या व्यापारिक हितों का उपकरण बनने दिया। उनका राजनीतिक दृष्टिकोण सत्ता नहीं, नैतिकता पर आधारित है। वे नेतृत्व का एक ऐसा मॉडल प्रस्तुत करते हैं जो मैकियावेलियन चातुर्य नहीं, बल्कि सहानुभूति, संवाद, आत्मनियंत्रण और पारस्परिकता पर टिका है।
उनके लिए जो निर्वासन में जन्मे हैं, जन्मदिन केवल भावुकता का विषय नहीं, बल्कि नागरिकता का अभ्यास है, यह दिखाता है कि किस तरह सांस्कृतिक अनुष्ठान प्रवासी समुदाय को एकजुट रखते हैं। लेकिन यह एक चेतावनी भी है: अगर दुनिया सिर्फ प्रतीकात्मक प्रस्ताव पारित करके तिब्बत की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और पारिस्थितिक संप्रभुता की रक्षा के लिए कुछ ठोस नहीं करती, तो केक काटना सिर्फ एक औपचारिकता बनकर रह जाएगा। दलाई लामा अक्सर कहते हैं कि बिना विवेक के करुणा अंधी होती है। लेकिन अब दुनिया को यह पूछना चाहिए, क्या केवल विवेक, बिना करुणा के, उससे बेहतर है?
उनका नब्बेवां जन्मदिन सिर्फ एक उत्सव नहीं, बल्कि एक दर्पण है, उस दुनिया के लिए जो नैतिकता को एक राजनीतिक शक्ति के रूप में मानने का भरोसा खो चुकी है। क्या यह भरोसा फिर से लौटेगा, यह सिर्फ दलाई लामा के उत्तराधिकारी पर नहीं, बल्कि इस पर भी निर्भर करता है कि क्या दुनिया राजनीति की एक नई कल्पना कर सकती है, न कि केवल विजय या अस्तित्व के रूप में, बल्कि जिम्मेदारी के रूप में।
हर्ष पांडेय, अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संकाय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में पीएचडी शोधार्थी हैं।