वाकई गृह मंत्री अमित शाह की इस बात से असहमत होना मुश्किल है कि उत्तर प्रदेश के मौजूदा विधानसभा चुनाव विधायक या मंत्री-मुख्यमंत्री को चुनने भर का नहीं है। इसके मायने और असर उससे ज्यादा बड़े हैं। यह देश समाज की राजनीति को ज्यादा असरदार ढंग से प्रभावित करेगा। अब यह प्रभाव क्या होगा और कैसा होगा, इस बारे में आप अमित शाह से अलग राय रख सकते हैं। शायद तभी समाजवादी पार्टी (सपा) के मुखिया अखिलेश यादव ने अगले दिन गाजियाबाद की अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि उत्तर प्रदेश का नतीजा तो तय हो गया है, इसका असर गुजरात चुनाव में देखिएगा। इसी साल के अंत में गुजरात में चुनाव होने हैं और अखिलेश का मतलब यह है कि भाजपा उत्तर प्रदेश भी हार रही है और छह बार से जीते गुजरात में भी हारेगी, जिसका देश की राजनीति पर ज्यादा असर होगा। उत्तर प्रदेश में इधर भाजपा तीन बार निर्णायक ढंग से जीती है और उसका देश की राजनीति पर प्रभाव सब देख रहे हैं।
हालांकि इस बार नजारा बदला हुआ दिख रहा है। पिछले जबरदस्त नतीजों और लगातार हुए ओपिनियन पोल में बढ़त के बावजूद भाजपा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का मुकाबला ऐसी हालात से कभी नहीं था। जीत और जीतने की भविष्यवाणी का हिसाब ऐसा लगता था कि नई जीत की बात करना आसान था। मुख्य विपक्षी पार्टियां सपा और बसपा जाने कहां छुपे हुए थे और राहुल-प्रियंका का विरोध वोट पर असर करने वाला नहीं लग रहा था।
लेकिन अचानक चुनाव की हवा शुरू होते ही दृश्य बदलने लगा। बसपा ने उम्मीदवार तय कर लिए, हर क्षेत्र के कार्यकर्ता तय कर लिए पर पार्टी ही गायब-सी लगी। कांग्रेस सब कुछ करती रही लेकिन जमीन पर कुछ होता नहीं लगा। अचानक अखिलेश यादव और सपा के लिए भीड़ उमड़नी शुरू हुई। उस भीड़ में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की रैलियों के मुकाबले ज्यादा उत्साह और संख्या दिखने लगी। फिर, लड़ाई चौतरफा की जगह सीधी होने की चर्चा प्रमुख हुई। भाजपा के लिए यह असहज करने वाली बात थी।
इस बीच प्रियंका गांधी ने कांग्रेस के चालीस फीसदी टिकट महिलाओं को देने की घोषणा करके नया दांव चला, जिसका असर सब पर पड़ा। दरअसल कांग्रेस आयोजित महिला मैराथनों में जिस तरह की भीड़ उमड़ी (बिना सांगठनिक आधार वाले शहरों में भी), उससे सनसनी फैल गई। भाजपा की तरफ से विकास योजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास बढ़ा, भीड़ जुटाने के प्रयत्न बढ़े। अखिलेश की रैलियों में भीड़ बढ़ने के साथ चुनाव के सहयोगी भी भीड़ लगाने लगे- कृष्णा पटेल का अपना दल (कमेरावादी), ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, महान दल, राष्ट्रीय लोक दल, वगैरह वगैरह। भाजपा को अनुप्रिया पटेल के अपना दल (सोनेलाल) और संजय निषाद की पार्टी से भी गठबंधन में दिक्कत होने लगी। मायावती भी बड़ी रैलियों की तैयारी में लगीं। तभी कोरोना की तीसरी लहर ने चुनाव को नए तरह से प्रभावित किया। मायावती की रैलियां तो रह ही गईं (और चुनावी उत्साह दिखा ही नहीं)। कांग्रेस का ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ का नारा जोर पकड़ने के पहले ही मंदा पड़ गया। चुनाव आयोग की घोषणा और कोरोना की चर्चा ही कई तरह से हावी रही। हर आदमी सपा और अखिलेश के मुकाबले में आने को चुनाव का महत्वपूर्ण बदलाव मानता रहा। भाजपा अपने विधायकों के खिलाफ एंटी-इंकम्बेंसी को स्वीकार करते हुए लगभग डेढ़ सौ टिकट काटने की तैयारी करने लगी थी।

मुजफ्फरनगर में अखिलेश और जयंत चौधरी
तभी दूसरा ‘चमत्कार’ हुआ। स्वामी प्रसाद मौर्य, धरम सिंह सैनी और दारा सिंह चौहान जैसे कई मंत्रियों और लगभग आधा दर्जन ‘ओबीसी’ विधायकों ने भाजपा का साथ छोड़ा और सपा में शामिल हो गए। चुनाव के समय दलबदल आम बात है और हाल के दौर में ज्यादा उत्साह से भाजपा ही दलबदल कराती रही है (बंगाल में तो हद ही हो गई थी)। लेकिन उत्तर प्रदेश का यह दलबदल कई मायनों में ज्यादा असरदार रहा। इससे गैर-यादव पिछड़ों के भाजपा के पक्ष में होने की हवा पलटी (पिछले दो चुनावों में भाजपा की जीत का यही खास पक्ष था) और इनमें से अधिकांश नेता अपने-अपने इलाके और समाज में प्रभावी भी रहे हैं। लेकिन इसका बड़ा फर्क भाजपा के लोगों का उत्साह घटाने और सपा कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ने के रूप में दिखा। भाजपा ने तत्काल भगदड़ मचने के डर से विधायकों का टिकट काटने का कार्यक्रम काफी कम कर दिया। कई अलोकप्रिय विधायकों को भी फिर से मैदान में उतारा गया, जबकि नरेंद्र मोदी विधायकों-सांसदों का टिकट काटकर एंटी-इंकम्बेंसी का मुकाबला करने के लिए जाने जाते हैं।
लेकिन उत्तर प्रदेश चुनाव का असली और अब तक का सर्वाधिक प्रभावी चमत्कार अभी बाकी था। यह चमत्कार है लगभग सभी दलों द्वारा ‘पिछड़ों’ को सौ में से साठ टिकट देना। डॉ. राममनोहर लोहिया का नारा था कि आबादी में साठ फीसदी हिस्सा रखने वाले पिछड़ों को पद भी साठ फीसदी मिलने चाहिए। पिछड़े वोटों की गोलबंदी और फिर उसके लिए मची मारामारी, दलित और आदिवासी सीटों के लिए आरक्षण और अब महिला वोटरों को लुभाने के लिए महिलाओं को टिकट देने की होड़ से उनके उस सपने की दिशा में कदम तो बढ़ा है, चाहे सांकेतिक ही हो। टिकट मिलने तक तो यही स्थिति है, जीत और सरकार में क्या होगा, यह परिणाम आने पर तय होगा। लेकिन छोटी-छोटी जातियों के गोलबंद होने और टिकटों के लिए दबाव बनाने (और पिछली जीत में निर्णायक भूमिका निभाने) के चलते सभी दलों के लिए मजबूरी हो गई कि बड़े से बड़ा ताकतवर नेता किसी राजभर या चौहान या निषाद के आगे झुकने को मजबूर है, किसी पिछड़ी महिला को राजमाता कहने को मजबूर है।
उधर, महिलाओं की वोटिंग और बढ़ती राजनैतिक चेतना (जिसके प्रमाण हर कहीं दिखते हैं) ने प्रियंका को नई पहल के लिए बल दिया और कांग्रेस को प्रभावी न मानने वालों पर भी असर दिखता है। उत्तर प्रदेश में तो सभी दल इससे प्रभावित हैं। इन बदलावों का असर जमीन पर कम दिखा क्योंकि पार्टियों ने अपराधियों और करोड़पतियों को टिकट देने में बहुत कमी नहीं की। चुनावी मुद्दों के मामले में (हालांकि यह मतदाताओं के रेस्पांस पर भी निर्भर करता है) और भी कम असर लगा।
भाजपा शुरू में तो सरकार की उपलब्धियों और मोदी-योगी के नाम पर वोट हासिल करने का प्रयास करती लगी और इसी के चलते बड़े कार्यक्रम चुनाव घोषणा से पहले हुए। लेकिन चुनाव घोषित होते ही वह दंगों, पलायन, सपा को मुसलमान अपराधियों का संरक्षक, जिन्ना और सपा को हिंदू-विरोधी बताने की रणनीति पर ही चलती लगी। उसे गरीबों को मुफ्त आहार देने जैसी योजनाओं और कानून-व्यवस्था में हल्के सुधार का श्रेय लेने की नहीं सूझी। हालांकि एनकाउंटरों को जायज ठहराना मुश्किल है। 10 फरवरी को मतदान पश्चिमी उत्तर प्रदेश से शुरू हो रहा है, जो किसान आंदोलन की जमीन रहा है। किसानों की नाराजगी संभालना भाजपा के लिए भारी काम बन गया, जबकि पिछले चुनाव समेत हाल के सभी चुनावों में भाजपा ने यहां सबसे निर्णायक जीत हासिल की थी। बसपा कहीं जमीन पर होगी लेकिन चुनाव की मारामारी में उसके कुछेक उम्मीदवार अपने दम पर ही दिखे। कांग्रेस तो अपने नेताओं-विधायकों के दलबदल से आखिर तक परेशान दिखी।
लेकिन जिस अखिलेश ने लड़ाई को सीधी बना दिया है, वह अभी तक बहुत शांत मन से अपने रास्ते बढ़ते लग रहे हैं। उनका गठबंधन भी ढंग से हुआ। सिर्फ आप और चंद्रशेखर आजाद की पार्टी से बात किसी नतीजे तक नहीं पहुंच पाई। अखिलेश को सबसे बड़ी सफलता अपने ऊपर चस्पा मुसलमान और यादव भर का नेता होने का लेबल हटाने में मिली। यह काम स्वामी प्रसाद मौर्य वगैरह के दलबदल से हुआ। उसके बाद ओबीसी समाज में उनकी स्वीकार्यता सभी मानने लगे जबकि कुर्मी, लोध, निषाद जैसी जातियों में भाजपा का प्रभाव कमोवेश बना हुआ लगता है। मुसलमानों का लगभग पूरा समर्थन एक जगह आने से ही उनको सबसे ज्यादा बल मिला है। पश्चिम में सबसे प्रभावी जाटों का साथ मिला है। बाकी जातियों का हिसाब भी इस बार एकतरफा नहीं है। ऐसे में बसपा का आधार रहा जाटव वोट अगर इस बार बिखरता है (बाकी दलित जातियां पहले ही टूट चुकी हैं) तो वह निर्णायक हो सकता है। यानी जाटव वोट भाजपा की तरफ जा सकता है या भाजपा विरोधी हवा के साथ हो सकता है या बसपा के साथ भी बना रह सकता है। अभी तक इस बिरादरी में किसी निर्णायक हलचल के संकेत नहीं हैं।
बहरहाल, भाजपा और सपा की सीधी टक्कर हो और कम्युनल कार्ड चलता न दिखे, यह भाजपा के लिए खतरे की घंटी तो है ही। यह होता भी है कि सांप्रदायिकता और जाति का कार्ड एक-दूसरे को काटते हैं। अगर जाति का कार्ड ज्यादा असरदार होता गया तो यह भाजपा के लिए चेतावनी है। उसके पास लोग, साधन और नेताओं की फौज है। वह आसानी से हथियार भी नहीं डालने वाली है क्योंकि अमित शाह अगर सार्वजनिक रूप से कहते हैं कि यह विधायक, मंत्री या मुख्यमंत्री चुनने भर का चुनाव नहीं है तो यह अकेले उनकी सोच नहीं हो सकती। जो भी हो, इस बार के चुनाव का अहम पहलू यह है कि महिलाओं के साथ दलित वोटरों पर खास ध्यान गया है। दलितों को गैर-आरक्षित सीटों से टिकट सभी पार्टियों ने दिए। देखें 10 मार्च को नतीजे कैसी सियासत को आगे करते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार निजी हैं)
 
                                                 
                             
                                                 
                                                 
                                                 
			 
                     
                    