केंद्र सरकार ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में कहा कि वक्फ, हालांकि इस्लामिक परंपरा का हिस्सा है, लेकिन यह इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है और इसलिए इसे संविधान के तहत मौलिक अधिकार नहीं माना जा सकता। केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि जब तक यह साबित नहीं होता कि वक्फ इस्लाम का आवश्यक हिस्सा है, तब तक अन्य दलीलें अप्रासंगिक हैं। उन्होंने यह भी कहा कि 'वक्फ बाय यूज़र' (जिसमें समय के साथ धार्मिक या चैरिटेबल प्रयोजनों के लिए उपयोग की गई संपत्ति को वक्फ माना जाता है) कोई मौलिक अधिकार नहीं है। यह विधायी नीति के तहत प्रदान किया गया अधिकार है, जिसे हमेशा के लिए हटाया जा सकता है।
यह बयान वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान आया। केंद्र सरकार ने इस अधिनियम का बचाव करते हुए कहा कि यह केवल वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन से संबंधित है और इसका उद्देश्य वक्फ बोर्डों की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना है। सरकार ने यह भी स्पष्ट किया कि यह कानून वक्फ की धार्मिक पहलुओं में हस्तक्षेप नहीं करता है।
वहीं, मुस्लिम पक्ष के वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने इस अधिनियम को मुस्लिम धार्मिक अधिकारों का हनन बताते हुए सुप्रीम कोर्ट से इसकी रोक लगाने की मांग की है। उन्होंने कहा कि यह कानून वक्फ संपत्तियों के अधिग्रहण की अनुमति देता है और ऐतिहासिक स्मारकों जैसे ताज महल और सम्भल की जामा मस्जिद को वक्फ अधिकार से बाहर करने का प्रयास करता है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में याचिकाकर्ताओं से कहा है कि वे अंतरिम राहत के लिए 'मजबूत और स्पष्ट' मामला प्रस्तुत करें। अदालत ने यह भी कहा कि इस मामले की सुनवाई में कोई भी अस्थायी आदेश देने के लिए याचिकाकर्ताओं को ठोस आधार प्रस्तुत करना होगा।
यह मामला भारतीय संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यक अधिकारों की व्याख्या से जुड़ा है, और इसकी सुनवाई से धार्मिक संस्थाओं के प्रबंधन और राज्य हस्तक्षेप के दायरे पर महत्वपूर्ण निर्णय अपेक्षित हैं।