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आडवाणी की उपेक्षा कितनी जायज?

भारतीय जनता पार्टी में इन दिनों अपने बुजुर्ग नेताओं की उपेक्षा का दौर चल रहा है। पहले बेंगलुरू में आयोजित पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में लालकृष्‍ण आडवाणी को बोलने का अवसर नहीं दिया गया जबकि इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ कि आडवाणी कार्यकारिणी की बैठक में हों और उनका संबोधन न हुआ हो।
आडवाणी की उपेक्षा कितनी जायज?

इसके बाद पार्टी की स्‍थापना के 35 वर्ष पूरे होने के अवसर पर आयोजित समारोह में भी आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं को नहीं बुलाया गया। वह भी तब जबकि आडवाणी और जोशी पार्टी के संस्‍थापकों में से एक थे। अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिलकर 1980 में उन्होंने भाजपा का गठन किया था। यही नहीं 1984 के चुनाव में महज 2 सीट पर सिमटी भाजपा को आडवाणी ही 1996 में सत्ता की दहलीज तक ले आए थे। आज अगर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं तो उसमें पार्टी के इन कद्दावर नेताओं की मेहनत का बहुत बड़ा हाथ है। भाजपा के वर्तमान नेतृत्व के इस कदम से चंद सवाल खड़े होते हैं।

क्या पार्टी सत्ता के मद में अपने बुजुर्गों को भूल गई है?

क्या पुरानी पीढ़ी के नेताओं की यह उपेक्षा जायज है?

क्या पार्टी नेतृत्व के इस कदम का खामियाजा भविष्य में नरेंद्र मोदी को भुगतना पड़ सकता है? 

 

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