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हिंदी व्रत और उर्दू रोजा वालों की हो गई

हाल ही में दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान शायर और फिल्म लेखक जावेद अख्तर ने श्रोताओं से रूबरू होते हुए कई राज जाहिर किए। उन्होंने बताया कि उन्होंने 1976 तक उन्होंने शायरी शुरू नहीं की थी। उस वक्त वह 31 वर्ष के थे, जबकि इस उम्र में लोग शायरी कर चुके होते हैं। 12 वर्ष की उम्र तक उन्हें सैकड़ों और 15 वर्ष की उम्र तक उन्हें लाख से ज्यादा शेयर याद थे। वह अपने को खुशकिस्मत मानते हैं क्योंकि लखनऊ में अपने ननिहाल में उन्हें अपने मामा मजाज साहब समेत उस दौर के तमाम नामी शायरों का साथ मिला, जिनके साथ वह बच्चों की तरह रहे।
हिंदी व्रत और उर्दू रोजा वालों की हो गई

उर्दू और हिंदी भाषा में कुर्बतों और फासलों पर आयोजित इस कार्यक्रम में कई अजीम शख्सियतों ने हिस्सा लिया। जावेद अख्तर ने इस समस्या पर अपना नजरिया रखा।

अपनी जुबान उर्दू के बारे में जावेद अख्तर को अफसोस है कि वह यह जुबान अपने दोनों फिल्मकार बच्चों फरहान और जोया को नहीं सिखा पाए। उनका कहना है कि शुरू में उन्होंने उर्दू के लिए घर में टीचर रखा लेकिन अलसुबह से स्कूल, फिर स्कूल का होमवर्क फिर थोड़ा खेलकूद आदि जैसी मसरूफीयत में उन्हें बच्चों के साथ ऐसा करना ज्यादती लगा। वह कहते हैं आखिरकार मैंने हार मान ली।

उर्दू के सांप्रदायिकरण पर उन्होंने कहा कि उर्दू की स्क्रिप्ट तो सिकुड़ रही है लेकिन जुबान फैल रही है। मजाकिया लहजे में वह कहते हैं ‘ बुरे कामों में एक बात अच्छी होती है कि वह कामयाब हो जाती हैं।  उनका कहना है कि जुबान रीजन (क्षेत्र) की होती है न कि रिलीजन (धर्म) की। पहली दफा सुना है कि मजहब की जुबान होती है।‘

जावेद अख्तर इस बात से नाराज हैं कि उर्दू को मजहब की भाषा बताकर उससे ढेरों शब्द निकाले जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि ‘ हिंदी व्रत वालों की कर दी गई और उर्दू रोजा वालों की। जब हम कश्मीर पर पाकिस्तान का दावा नहीं मानते हैं तो उर्दू का क्यों मानते हैं ? ’

जावेद अख्तर का मानना है कि भाषाएं आर्थिक जरूरतों से जिंदा रहती हैं। जैसे अमेरिका में आजकल चाइनीज इसलिए नहीं सीखी जा रही कि अमरीकियों को फाह्यान की स्क्रिप्ट पढ़नी है और चीन में अंग्रेजी इसलिए नहीं पढ़ी जा रही कि उन्हें अंग्रेज बनना है। दोनों की अपनी आर्थिक जरूरतें हैं। लेकिन उर्दू और हिंदी की आर्थिक जरूरतें खत्म हो गईं। इसलिए कोई नहीं चाहता कि उनके बच्चे ये भाषाएं जानें।

जावेद अख्तर ने कहा कि हमेशा भाषाओं को अवाम पाल-पोस कर बादशाहों तक पहुंचाया है। उर्दू और हिंदी इसलिए भी खतरे में हैं क्योंकि मिडल क्लास ने ये भाषाएं छोड़ दी हैं। वे अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेजने लगे। हिंदी मीडियम स्कूलों में स्लम के बच्चे पढ़ते हैं। मिडल क्लास के बच्चे जवान होकर जब संचार माध्यम जैसी नौकरियों में आते हैं तो वहां जुबान की जरूरत पड़ती है। तब जुबान स्लम से लाई जाती है। स्लम से लाई भाषा जब फिल्मों और विज्ञापनों में इस्तेमाल होती है तो हमें लगता है यही हमारी जुबान है। जावेद अख्तर ने बहुत खूबसूरती से कहा कि बदसूरत हालात जुबान को खराब कर देते हैं। वह कहते हैं कि ‘ मिडल क्लास ही जुबान को संवारती है और मिडल क्लास ने हिंदी-उर्दू छोड़ दी है। अहम बात है कि वह अंग्रेजी सीख रही है लेकिन अपनी मदर टंग की कॉस्ट पर।  जहां तक उर्दू की बात है तो वह तो यतीम हो चुकी है। ’

जावेद अख्तर ने चिंता जताई की दोनों भाषाएं खत्म हो रही हैं। दोनों भाषाओं ने एक-दूसरे के बेशुमार शब्द लिए हुए हैं लेकिन हिंदी और उर्दू के बीच मजहब प्रेमियों की वजह से लगातार फासले बढ़ रहे हैं। उनका कहना है कि जुबान से मोहब्बत रखें, मजहब से कम रखें। इसके अलावा जब तक क्षेत्रिय भाषाओं के संदर्भ में आर्थिक जरूरतें पैदा नहीं की जाएंगी तब तक मिडल क्लास उन्हें जिंदा नहीं रखेगा।    

    

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