Advertisement

आजादी विशेष | हमारी चेतना पर धब्बा है फांसी: युग चौधरी

देश में फांसी की सजा के खिलाफ अभियान चलाने वाले बॉम्बे उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं युग मोहित चौधरी। फांसी के फंदे पर झूलने वाले अभियुक्त के लिए एक अंतिम आस के तौर पर युग चौधरी का नाम आता है।
आजादी विशेष | हमारी चेतना पर धब्बा है फांसी: युग चौधरी

अभी तक वह हत्या के सैकड़ों मुकदमों और अपीलों से जुड़े रहे हैं और फांसी के कगार पर मौत की कतार पर तमाम उम्मीदें खो चुके कम से कम 25 कैदियों की जिंदगी के लिए पूरे दम और तर्कों से पैरवी करने का श्रेय उनको जाता है। मुंबई धमाकों के अकेले अभियुक्त याकूब मेनन को भी फांसी से बचाने के लिए वह अंतिम दम तक कोशिश करते रहे। इसमें हालांकि वह नाकाम रहे। इसका उन्हें बेतरह अफसोस है क्यो‌ंकि वह मौत की सजा को व्यक्ति की नियोजित हत्या मानते हैं और इसके आमूलचूल खात्मे के पक्षधर हैं। आउटलुक ने उनसे विस्तृत बातचीत की। पेश हैं अंश :

 

आप फांसी की सजा के खिलाफ हैं, क्यों‌ ?

मेरा मानना है कि किसी भी सभ्य समाज में फांसी की सजा की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। यह हमारी सामूहिक चेतना पर धब्बा है। फांसी, राज्य द्वारा सोची-समझी, योजनाबद्ध हत्या है। फांसी की सजा नागरिक को संविधान द्वारा दिए गए जीवन के अधिकार (अनुच्छेद 21) सहित बाकी अधिकारों का निषेध है।

 

 लेकिन फांसी तो असाधारण से असाधारण मामले में दी जाती है?

ऐसा है नहीं। बिल्कुल भी नहीं। सरकारें नए-नए कानूनों में फांसी का प्रावधान कर रही हैं। पहले मौत की सजा केवल उन अपराधों में दी जाती थी, जिन में किसी की हत्या की जाती थी, लेकिन अब यह उन मामलों में भी दी जा रही है, जहां कोई हत्या नहीं हुई। बलात्कार के कानून में संशोधन करके फांसी की सजा का प्रावधान किया गया। अब केंद्र सरकार खाद्य मिलावट के लिए फांसी की सजा का प्रावधान करने पर विचार कर रही है। मौत की सजा किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। बलात्कार के मामले कम करने के बारे में अगर सरकार गंभीर होती तो वर्मा समिति की सिफारिशों को लागू करती। वह सब तो उसने किया नहीं, सबसे आसान तरीका है फांसी की सजा घोषित करना।

 

मौत की सजा पर राजनीति किस कदर हावी होती जा रही है?

राजनीतिक फायदे के लिए मौत की सजा को इस्तेमाल किया जा रहा है। फांसी की सजा का इस्तेमाल, मुख्य मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए और यह जताने के लिए कि सरकार कुछ कर रही है, के लिए किया जाता है। जबकि असल समस्या को वह कहीं से भी नहीं छूती। एक दिक्कत और है, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने भी माना है और वह यह कि मौत की सजा न्यायाधीश के मनोगत रुझान और मनमानी पर निर्भर है।

 

फांसी के फैसलों में न्यायाधीश समाज के सामूहिक विवेक की दुहाई देते हैं?

कितनी बड़ी विडंबना है। क्या जज सामूहिक विवेक का बेरोमीटर हैं। वे समाज का सामूहिक विवेक कैसे मापते हैं। मेरा सीधा सवाल है कि क्या कश्मीर देश के सामूहिक विवेक का हिस्सा नहीं है। उसे अफजल को फांसी देते समय क्यों‌ं नहीं दिमाग में रखा गया। मैं पूछना चाहता हूं कि क्या जज कोई सर्वेक्षण कराते हैं। फांसी गुनाह के लिए मिलनी चाहिए, मुद्दे की लोकप्रियता के आधार पर नहीं। फांसी की सजा को लोकप्रियता की प्रतियोगिता में तब्दील कर दिया गया है।

 

आपको लगता है कि आतंक के मामलों पर जिस तरह जनता की राय को उकसाया जाता है, उसके बाद न्यायालय के पास क्या अभियुक्तों पर दया दिखाने की गुंजाइश बनी रहती है?

यही खतरनाक बात है। याकूब की फांसी के मामले में भी यही देखने को मिला बहुसंख्यक ही अगर सब तय करने लगे तो अल्पसंख्यक का जीने का अधिकार कैसे सुरक्षित रहेगा। याकूब के मामले में न्याय का उल्लंघन कर उसे फांसी पर लटका दिया गया। कानून कहता है कि दया याचिका खारिज होने के बाद 14 दिन अपराधी को मिलने चाहिए। लेकिन रात में 10.30 बजे दया याचिका खारिज हुई और सुबह फांसी दे दी। इतनी जल्दी क्यों थी। मुझे बेहद अहसोस है कि सर्वोच्च न्यायालय ही आखिरी दरवाजा है।

 

क्या राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी दया याचिका पर वाकई कुछ कर सकते थे क्योंकि सरकार फांसी के पक्ष में थी?

बिल्कुल कर सकते थे। फांसी रोकी जा सकती थी, जैसे उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों के.आर.नारायण, ए.पी.जे अब्दुल कलाम और प्रतिभा पाटिल ने किया। लेकिन हमने क्या किया सारे सबूतों (रॉ अधिकारी बी.रमन के साक्ष्य जिसमें बताया था कि किस तरह याकूब को भारतीय सुरक्षा एजेंसियों द्वारा भारत लाया गया था और 10 लोगों को वापस लाने में उसकी भूमिका थी) की अनदेखी कर उसके जन्मदिन पर फांसी पर लटकाया।

 

फांसी पर चढ़ाए अपराधियों की जाति, वर्ग को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं?

पहले यह मेरा अपना मूल्यांकन था। लेकिन अब तो नेशनल लॉ यूनीवर्सिटी का अध्ययन बताता है कि फांसी पर चढ़ाए गए या सजा दिए गए अपराधियों में दलित, गरीब, मुसलमान, अनपढ़ों की संख्या अधिक है।  

Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad