साहित्यिक पत्रिकाओं की तो छोड़िए, व्यावसायिक हिंदी पत्रिकाओं का प्रसार भी लगातार कम हो रहा है?
ऐसा नहीं है, बल्कि पिछले कुछ दिनों में कई नई पत्रिकाएं आई हैं। संख्या की दृष्टि से पत्रिकाएं कम नहीं हुई हैं हां गुणवत्ता की दृष्टि से बात सही लगती है। पिछले कुछ सालों में मीडिया से लेकर साहित्य तक सब में विषय वस्तु का सरलीकरण करने की वृत्ति बलवती हुई है। पत्रकारिता और साहित्य में साहित्य बिल्कुल भिन्न है। पत्रकारिता अधिक से अधिक राजसत्ता को, न्याय की गुहार लगाने का माध्यम है जबकि साहित्य सौंदर्य रचना करता है। रघुवीर सहाय के बाद पत्रकारिता और साहित्य के मर्म के बीच जो नासमझी उत्पन्न हुई उसका शिकार हिंदी का साहित्य भी है और पत्रकारिता भी।
मतलब साहित्यिक पत्रकारिता समाजशास्त्र की ओर झुकती गई?
समाजशास्त्र सामान्यीकरणों के सहारे रचा जाता है, जबकि साहित्य मूल्य इस बात में है कि वह मनुष्य की चरम अद्वितीयता को उद्घाटित करता है। अन्ना कैरेनिना टॉलस्टॉय के लिए रूसी कुलीनों के परिवार की स्त्री का उदाहरण नहीं थी। वह टॉलस्टॉय के लिए एक अद्वितीय कुलीन स्त्री थी जो अपने प्रेम में वह सब कर बैठती है जो शायद कोई और नहीं करता।
क्या यही कारण है कि आज की साहित्यिक पत्रकारिताओं की विषय वस्तु पाठक को आकर्षित नहीं करती?
पारंपरिक भारतीय काव्यशास्त्र और जॉक देरिदा जैसे समकालीन पश्चिमी वैचारिकों ने साहित्य के स्वरूप पर विस्तार से चिंतन किया है। यह प्रश्न लगातार उठाते रहना होता है कि 'आखिर साहित्य क्या है?’ क्या वह एक अन्य अनुशासन है जैसे, मनोविज्ञान या इतिहास या नृतत्वशास्त्र आदि या वह इनसे कुछ भिन्न है। वह कौन सी सीमा है जो साहित्य को अन्य अनुशासकों से अलग करती हैं, किस तरह से साहित्य का लेखन समाजशास्त्रीय आदि लेखनों से अलग होता है। इन सारे प्रश्नों पर विचार की सुदीर्घ परंपरा होने के बाद भी हिंदी साहित्य में कम से कम पिछले पांच-छह दशकों में यह प्रश्न लगभग नहीं उठाए गए हैं। चूंकि हिंदी जगत में (मैं जान बूझकर हिंदी साहित्य नहीं कह रहा क्योंकि हिंदी में जो अधिकांश लेखन साहित्य के नाम से संचयित होता है, वह समाजशास्त्रीय लेखन ही है, साहित्य नहीं) ये सारे प्रश्न उठाए नहीं जाते इसलिए यहां के अधिकतर लिखने वाले साहित्य रचना के स्थान पर कभी ऊटपटांग नृतत्वशास्त्र लिखते हैं। कभी इतिहास समाजशास्त्र। इसका एक कारण यह है कि हिंदी जगत में साहित्य के स्वरूप से अधिक साहित्य के उपयोग की चर्चा हुआ करती है। पर इस पर विचार लगभग नहीं होता कि वह क्या चीज है जिससे समाज का परिवर्तन अभीष्ट है। इस विचारहीनता का प्रभाव साहित्यिक पत्रिकाओं पर भी पड़ रहा है।
आजादी के बाद कुछ समय तक लगा कि सब कुछ ठीक रास्ते पर है। पर पिछले दो-तीन दशकों से साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में विचलन है?
साहित्य और कला को लेकर हम आजादी के बाद से ही पर्याप्त लापरवाह रहे हैं। छायावादी लेखकों, अज्ञेय, श्रीकांत वर्मा आदि कुछ लेखकों को छोड़ दें तो हिंदी के अधिकांश लेखकों के लिए शायद जीवन-मरण का प्रश्न कभी नहीं रहा। यह मैं पहले ही कह चुका हूं कि इस भाषा में साहित्य के स्वरूप को लेकर बहुत कम विचार हुआ है। इसका कारण भी यह है कि हिंदी के अधिकांश लेखक अपने लेखन में ऐसे प्रश्नों से दो-चार नहीं हुए। इसलिए धीरे-धीरे हमारा साहित्य (इसे साहित्य कहना शायद अनुचित है) पत्रकारिता की ओर सरकता गया। इस किस्म के लेखन को मैंने अन्यत्र झूठे गजेटियर कहा है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि हमारे साहित्य में यूरोप की देखा-देखी प्रतिबद्धता एक बड़ा मूल्य बन गई। यह जानकर आश्चर्य होगा कि हिंदी में इतने अधिक मार्क्सवादियों के होने के बाद भी उनका मार्क्सवाद के विकास में कोई भी योगदान नहीं है। ऐसा एक भी विचार आप मुझे नहीं बता पाऐंगे जो मार्क्सवादी वाड्मय में हिंदी के साहित्यकार ने जोड़ा हो। आज सभी दोषों का कारण बाजार को देने का चलन हो गया है जो किसी हद तक सही भी है।
आपने कहा, प्रतिभा संपन्न लेखक का यह दायित्यव है, अपनी प्रतिभा का विस्तार। इसके क्या मायने हैं?
सीधे से मायने यह हैं कि जो करना चाहें उस विषय का ज्ञान अर्जित करना चाहिए। मसलन यदि किशोर लेखक होना चाहता है तो उसे दुनिया भर का साहित्य पढ़ना चाहिए। साथ ही अन्य विषयों पर जानना चाहिए।