भूमि अधिग्रहण मसले पर आपकी क्या राय है?
यह बहुत हड़बड़ी में लिया गया फैसला है। सभी की सहमति नहीं ली गई है। कुछ लोगों को ही सभी का प्रतिनिधि मान लिया गया है। अब जब इसे सदन में रख दिया है तब बात कर रहे हैं। वह भी तब जब किसान नेताओं और अन्य लोगों का दबाव आ रहा है। इस बात पर कौन विचार कर रहा है कि पिछले दस सालों में खेती की जमीन 1 करोड़ 80 लाख हेक्टेयर घट गई है। चरागाह की जमीन में 70 फीसदी तक की गिरावट आ गई है। कायदे से तो इन दोनों ही तरह की जमीनों को अधिग्रहण से बाहर रखना था। अब कह दिया कि औद्योगिक गलियारे को जनहित में डाल दिया है। लेकिन इससे किसका हित होगा यह कौन नहीं जानता। इच्छानुरूप चयन का तरीका बेईमानी है। मैं इसी के खिलाफ हूं। पिछले 20 सालों में जो जमीन का अधिग्रहण हुआ है उसका क्या हुआ। यह भी तो बताना होगा या बस जमीन पर कब्जा होता रहेगा।
आप कुछ संशोधन चाहते हैं या पूरे विधेयक से असंतुष्ट हैं?
असंतुष्ट कोई भी तभी होता है, जब संतुष्टि के कारक पूरे न हों। मेरा कहना है कि नीति बनाई जानी चाहिए। एक टास्क फोर्स का गठन किया जाए। बातचीत की जाए। आप कम से कम एक टेबल पर तो आइए। जब हल्ला हो रहा है तो आपको याद आ रहा है कि अरे हां, बात भी तो करनी है। कुल 630 स्पेशल इकानॉमिक जोन (एसइजेड) की अनुमति दी गई थी। उनकी स्थिति क्या है? उनके लिए भी तो जमीन ली गई थी। यह विधेयक आधा पका हुआ खाना है। जल्दबाजी में खराब ही होगा। हड़बड़ी के बजाय शांति से सोचें।
पर यह सरकार तो दूसरी है?
जमीन और किसान नहीं बदलते, उनके हक नहीं बदलते। सरकार बदलने से मुद्दे तो नहीं बदल जाएंगे। और फिर यह तो और भी खराब बात है कि अगर कोई और सरकार असंवेदनशील थी तो आप भी कुछ अच्छा करने के बजाय वैसा ही करिए। अगर आप कहते हैं कि आप गरीबों की, जरूरतमंदों की सरकार हैं तो ऐसा कर के दिखाएं। मेरा कहना है कि पहले आने वाले 10 सालों का एक खाका तैयार कीजिए। कितनी जमीन चाहिए और क्यों? पहले पूरा होमवर्क कर लीजिए। फिर जमीन मांगिए। लेकिन आप तो ऐसे-ऐसे नए-नए नियम बना रहे हैं कि नौकरशाही ही हावी होगी। आप बस लेने के बारे में सोच रहे हैं। कभी कुछ देने के बारे में भी तो सोचिए। लगभग 5 करोड़ लोग अब भी बेघर हैं। वंचितों के बारे में किसी को कोई फिक्र नहीं है। यदि कोई व्यक्ति दो बार कर्ज की किस्तें न दे पाए तो वह वंचक (डिफॉल्टर) हो जाता है। बड़े औद्योगिक घराने ऐसा करें तो वे 'नॉन परफॉर्मिंग असेट (एनपीए)’ हैं।
पर अब खेती कौन करना चाहता है?
यदि यह खत्म हो रही है तो सरकार ने उन्हें बढ़ावा देने के लिए क्या किया। क्या कोई प्रोत्साहन दिया, कोई आकर्षक ऑफर या पैकेज। कुछ लोग हल्ला मचाते हैं न कि कोई खेती करना नहीं चाहता। आज भी कृषि 12.5 करोड़ लोगों को काम देती है। जब इस आंकड़े का प्रचार ही नहीं होगा तो फिर लगेगा ही कि खेती फायदे का सौदा नहीं है।
प्रशासक के तौर पर आप प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कितने नंबर देंगे?
(गहरी मुस्कराहट) संवाद और विश्वास में गिरावट है। सबसे बड़ी समस्या है कि उन्हें नौकरशाही पर जरूरत से ज्यादा भरोसा है। सांसदों में डर है, आत्मविश्वास में कमी आ गई है। हमारे प्रधानमंत्री उनका हाल पूछने के बजाय उन्हें भी भाषण ही पिलाते हैं। भिन्न विचार को विरोध मान लिया जाएगा, यह भावना उन लोगों में है। मैं नाम नहीं लूंगा लेकिन उन्हीं की पार्टी के कम से कम 25 सांसद मेरे पाए आए और कहा कि हम तो कह नहीं सकते पर भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर आप कुछ कीजिए। सामने कोई आना नहीं चाहता। पार्टी में घुटन बढ़ती जा रही है।
आपने वैकल्पिक राजनीति की बात की थी, उसकी क्या स्थति है?
आएगा, वह दिन भी आएगा। सत्ता के बजाय समाज के लिए राजनीति होनी चाहिए। मुद्दों और मूल्यों के लिए राजनीति होनी चाहिए। राजनीति पारदर्शिता-शुचिता के लिए होनी चाहिए।
आपको सरकार से क्या शिकायतें हैं?
शिकायत क्यों होगी? जो ठीक नहीं उस पर सिर्फ बात करना चाह रहे हैं। लेकिन यहां तो आपको लगता है कि आप ही सबसे बुद्धिमान हैं। बाकी लोग या तो आपको नक्सली, अराजक या झोलाछाप लगते हैं। किसी की आपको सुनना ही नहीं है। जो किसान 2000 एकड़ वाले हैं उनसे जमीन मांगिए। बहुत हैं ऐसे किसान देश में। आप बड़ी-बड़ी बातें करते हैं लेकिन प्राथमिक चिकित्सा केंद्र तक ठीक नहीं हैं। यह कीजिए फिर सुपर स्पेशलिटी अस्पताल तक पहुंचने का रास्ता बनाइए। पेयजल के मामले में 58 जिले आर्सेनिक से, 68 जिले फ्लुओराइड से प्रभावित हैं और यह आपकी चिंता सूची में नहीं है।