जावेद अख्तर का नाम हिंदी सिनेमा जगत के सफलतम पटकथा लेखकों और गीतकारों की सूची में आता है। उनकी जीवन-यात्रा में कई दिलचस्प मोड़, संघर्ष और मील के पत्थर हैं। उन्हें सहेजने और एक जगह पर दर्ज करने का काम किया है अरविंद मण्डलोई ने अपनी किताब ‘जादूनामा’ में। यह जावेद अख्तर के जीवन, फिल्म लेखन, शायरी, राजनीति आदि पर प्रकाश डालती है। जिंदगी और करियर के अब तक के सफर के बारे में जावेद अख्तर से गिरिधर झा ने बातचीत की। संपादित अंश:
साठ के दशक में शुरू हुई अपनी कला यात्रा को आप पीछे मुड़कर किस तरह से देखते हैं?
अपनी यात्रा के बारे में सोचते हुए, ठीक वैसा महसूस होता है, जैसा कॉलेज के दिनों में ब्लैक ऐंड व्हाइट फिल्म देखकर महसूस होता था। पुरानी यादों का दर्द तो समय के साथ बीत जाता है मगर कहानियां रह जाती हैं। मनोविज्ञान कहता है कि अपने करीबी को खोने का दुख समय के साथ कम तो होता है लेकिन 25 प्रतिशत फिर भी साथ रह जाता है। मेरी जिंदगी में कोई अनोखी कहानी नहीं हुई है। मैंने वही दुख, संघर्ष, उपलब्धि, सम्मान, प्रशंसा, अपमान देखा है जो हर व्यक्ति अपने जीवन में देखता है। इसलिए उसका गुणगान और अभिमान नहीं करना चाहिए कि मैंने संघर्ष किया, चुनौतियों का सामना किया।
सलीम खान के साथ लेखक के रूप में सिप्पी फिल्म्स से जुड़ने से पहले का जो संघर्षपूर्ण समय रहा, उसका हासिल क्या रहा?
जो भी दुख, मुसीबत, परेशानी किसी आम इनसान को हो सकती है, मैंने उन सभी का सामना किया। लेकिन उस दौर का सबसे बड़ा हासिल यह रहा कि मैंने जाना कि दुनिया में बहुत ही खूबसूरत, रहमदिल और अमनपसंद लोग हैं। संघर्ष के दौर में किसी ने मेरे लिए भोजन व्यवस्था की, किसी ने छत की व्यवस्था की। उन्हीं के सहारे मैं जीवित रहा और आगे बढ़ता रहा। वे सभी लोग मुझे याद रखते हैं और मैं उनके प्रति शुक्रगुजार रहता हूं। मैंने यह भी सीखा कि अगर इनसान नाउम्मीद न हो और शिद्दत से अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता रहे तो उसे फतह जरूर हासिल होती है।
जिस दौरान आप फिल्मों की स्क्रिप्ट लिख रहे थे, तब भी क्या गीत लेखन करते थे?
नहीं। मैंने 1979 तक केवल फिल्म स्क्रिप्ट लिखी है। तब तक शायरी या गीत लेखन से मेरा कोई राब्ता नहीं था। अस्सी के दशक की शुरुआत से पहले मैंने शायरी शुरू की थी। मैं कुछ चुनिंदा लोगों को अपनी शायरी सुनाता था। उन्हीं लोगों में निर्देशक यश चोपड़ा शामिल थे। उन्हें मेरा कवि पक्ष भी पसंद आया और उन्होंने मुझसे फिल्म सिलसिला के गीत लिखने को कहा। मैंने पहले तो बहुत मना किया लेकिन फिर गीत लिखने को तैयार हो गया। गीत लिखकर मुझे आनंद आया और फिर मैं धीरे-धीरे गीत लेखन में भी बहुत सक्रिय हो गया। फिर कुछ ऐसी बात रही कि लोगों ने गीतों को इतना प्यार दिया कि मेरा गीतकार होना ही जनता के दिल में बस गया। यही कारण है कि मैंने अपने बेटे फरहान अख्तर की फिल्म लक्ष्य की स्क्रिप्ट लिखने के बाद कोई स्क्रिप्ट नहीं लिखी जबकि गीत लेखन तो अब भी जारी है। इतना जरूर है कि कोविड के दौरान समय मिलने पर मैंने दो फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी है। समय आने पर इन पर फिल्में बनाई जाएंगी।
अगर लेखकों के पारिश्रमिक की बात हो तो फिल्म लेखन के काम को जिस स्तर तक आपने और सलीम खान ने पहुंचाया था, आपके बाद के लेखक उस स्तर को कायम न रख सके?
फिल्म जगत में किसी भी लेखक को इक्का-दुक्का हिट फिल्मों से पहचान नहीं मिलती है। जब तक आपकी लिखी कई फिल्में हिट नहीं होतीं, तब तक आप उस जगह नहीं होते जहां आपका महत्व हो, आपसे कुछ पूछा जाए। मैंने और सलीम साहब ने जब एक के बाद एक सुपरहिट फिल्में दीं, तब कहीं हमारा अस्तित्व स्थापित हुआ। तब हम अपनी शर्तों पर काम कर सके। मगर ध्यान रखने वाली बात यह है कि ऊंचे मुकाम तक पहुंचने के लिए हमने बहुत त्याग भी किया। हमें कोई काम पसंद नहीं आया तो हमने वह काम छोड़ दिया। फिर चाहे उसे छोड़कर हमको तकलीफ हुई, लेकिन हम अपनी शर्तों पर चले। अपनी शर्तों पर काम करने के उसूल के कारण मैं और सलीम साहब नौ महीने बेरोजगार रहे। मैंने एक गाड़ी खरीदी थी, जो मुझे वापस बेचनी पड़ी। मगर धैर्य का फल मिला और हमने मिलकर ऐसा काम किया जिसने कीर्तिमान स्थापित किया। यही हमारी कामयाबी का राज है। हमारे बाद लेखकों में उस हिम्मत की कमी दिखी। लेखकों ने किसी भी तरह काम हासिल किया। वह काम छोड़ने से घबराते रहे। उनमें नहीं बोलने की ताकत नहीं थी। यही कारण है कि उन्होंने खराब काम भी किया और असर छोड़ने में असफल रहे।
व्यावसायिक होने के बावजूद आपकी लिखी हुई फिल्में आज भी प्रासंगिक हैं, इसके पीछे क्या वजह हो सकती है?
अगर कोई फिल्म सही उद्देश्य के साथ बनाई जाती है, उसमें अश्लीलता, घटियापन और गंदगी न हो तो, वह लंबे समय तक लोगों को अपनी गिरफ्त में रखती है। हमारी फिल्में एक बड़े वर्ग को संबोधित होती थीं इसलिए उनका मनोरंजक होना अनिवार्य था। तभी हमारी फिल्मों को कॉमर्शियल कहा जाता है। कलात्मक यानी आर्ट सिनेमा एक विशेष वर्ग के लिए बनता है इसलिए उसकी भाषा अलग होती है। महत्वपूर्ण यह है कि आप सही उद्देश्य और दृष्टि से फिल्म बनाएं। फिर वह कमर्शियल हो या आर्ट सिनेमा, लोग हमेशा प्यार देते रहेंगे। आज भी कई लोग अच्छा काम कर रहे हैं। जब मेरी फिल्में रिलीज हुई थीं, तब किसी को अंदाजा नहीं था कि वे पांच दशक बाद भी दर्शकों को आकर्षित करेंगी। समय सब हिसाब करता है। यह समय ही तय करेगा कि आज जो फिल्में बन रही हैं, उनका असर भविष्य में क्या रहता है। इतना जरूर है कि युवा पीढ़ी के फिल्मकार ईमानदारी से अपनी कला को अभिव्यक्त कर रहे हैं। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि उनका काम भी भविष्य की यात्रा करेगा।
हाल के दिनों में फिल्म के गीतों और कहानियों को लेकर विवाद और बायकॉट की स्थिति उत्पन्न हो रही है, इस बारे में आपके क्या अनुभव हैं?
यह जरूर है कि हमारे देश में फिल्मों और फिल्मी बिरादरी के बारे में गैर-जिम्मेदार बयान दिए जा रहे हैं मगर मुझे विश्वास है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाल के दिशानिर्देश के बाद स्थिति बेहतर होगी। प्रधानमंत्री ने स्पष्ट संदेश दिया है कि नेताओं को फिल्मों के बारे में गैर-जिम्मेदार बयानबाजी से परहेज करना चाहिए। मेरा विश्वास है कि उनके कहने के बाद सभी विवाद समाप्त हो जाएंगे।
अमिताभ बच्चन की कामयाबी का बड़ा श्रेय सलीम-जावेद की जोड़ी को दिया जाता है...
अमिताभ बच्चन इतने प्रतिभावान कलाकार हैं कि उन्हें तो आसमान पर चमकना ही था। मैं और सलीम साहब तो केवल माध्यम भर रहे। हम नहीं भी होते तो भी अमिताभ बच्चन शोहरत के शिखर पर पहुंचते। अमिताभ बच्चन कोई साधारण कलाकार नहीं हैं। सौ साल में कोई उनकी प्रतिभा का कलाकार जन्म लेता है। इसलिए प्रतिभा की ऐसी नदी अपनी यात्रा शुरू करेगी तो कोई भी ताकत उसे समंदर तक पहुंचने से नहीं रोक सकती। अमिताभ बच्चन ने जिस ऊंचाई को छुआ है, उसे वे हर हाल में छूने की काबिलियत रखते थे।
आपने सुपरस्टार राजेश खन्ना के साथ फिल्म हाथी मेरे साथी में काम किया, जो बेहद कामयाब रही। क्या वजहें रहीं, जो यह सफर आगे नहीं चल सका?
हाथी मेरे साथी की कामयाबी के बाद हमने फिल्म जंजीर के लिए जब अभिनेता की तलाश की तो उसमें राजेश खन्ना की छवि फिट नहीं हुई। राजेश खन्ना तब तक देश के बड़े सुपरस्टार बन चुके थे और उनकी रोमांटिक छवि सबके दिल में जगह बना चुकी थी। इस तरह यह संभव नहीं था कि उन्हें जंजीर में कास्ट किया जाए। जंजीर की बड़ी कामयाबी के बाद हमारे हिस्से में शोले, दीवार जैसी फिल्में थीं। स्पष्ट है कि ये फिल्में भी राजेश खन्ना की छवि के साथ तालमेल नहीं बनाती थीं। यह कारण रहा जो हम उनके साथ काम नहीं कर सके और हमारे रास्ते अलग दिशा में आगे बढ़े।