जब आपने लेखन की शुरुआत की तब मराठी भाषा में लघुकथा का दौर था। आपको क्यों लगा कि उपन्यास लिखना चाहिए?
दरअसल वह लघु कथाओं और कहानियों का दौर था। मराठी के अधिकांश साहित्यकार जिनमें गंगाधर गाडगिल, अरुण गोखले, मु. बा. भावे, माडगुलकर आदि जिन्हें मैं योग्य मानता था वे सभी साहित्य के इसी प्रारुप में उलझे थे। कोई बड़ा सोचने को तैयार नहीं था। यह बात हमेशा मेरे दिल में कहीं चुभती रही। क्षमता होकर भी आप उसका उपयोग न करें तो आपकी महानता का समाज को क्या लाभ? केवल उन दो-तीन पेज की व्यावसायिक या अखबारी किस्से- कहानियां लिखते रहना मुझे चंद पैसों के लिए अपनी क्षमता को बंधक रखने जैसा लगता था। इस तरह छोटी-छोटी कहानियां, लघु कविताओं का फैशन सा चल पड़ा था। आखिर यह कहां तक उचित है? जबकि हमारे देश की परंपरा बड़ा लिखने की रही है। फिर चाहे वेद लिखे गए हो या ग्रंथ या फिर इतिहास। जितना वृहद लेखन भारत में हुआ है शायद ही कहीं और हुआ। बावजूद इसके हमारा किस्से-कहानियों, लघु निबंध या ललित लेखन तक ही सीमित रहना, बात कुछ जंचती नहीं। इस सब का परिणाम यह हुआ कि मेरे मन में उन सभी के प्रति एक तिरस्कार की भावना जागी। आखिर यह सब पाठक को ठगने जैसी बात हुई। आप ता उम्र कुछ भी इमेजनरी या साइकोलॉजिकली, मन-गढंत कहानियां बनाएं और साहित्य में खानापूर्ती करें। मुझे लगता है इससे मराठी और भारतीय साहित्य को एक बड़ी हानि हुई है। वैसे भी साने गुरुजी के ‘श्याम ची आई’ के बाद लंबे अर्से तक कोई उपन्यास नहीं लिखा गया। तब मैंने कुछ बड़ा लिखने की सोची। मैंने ‘कोसला’ लिखने का मन बनाया।
आज मराठी में उपन्यासों की क्या स्थिति है?
न मेरे पहले कुछ बड़ा लिखा गया न बाद में कुछ खास लिखा जा रहा है। न जाने आज की पीढ़ी को क्या हो गया है? जबकि आज कि पीढ़ी हमसे कहीं ज्यादा जागरूक है। उनके पास बेहतर संसाधन हैं। अपने आपको प्रोजेक्ट करने के लिए इतने रास्ते मौजूद हैं। फिर भी वे क्यों नहीं कुछ बड़ा सोचते? मैं ठीक से जानता नहीं लेकिन शायद हिंदी और अन्य भाषाओं में भी यही स्थिति है।
कोसला के नायक पांडूरंग सांगवीकर को आपने कैसे जन्म दिया?
दरअसल कोसला मेरे अपने ही जीवन के अनुभवों पर आधारित उपन्यास है। आप उसे मेरी आत्मकथा भी कह सकते हैं। वह नायक कुछ हद तक उसी का प्रतिरूप है। मेरे विचार से हर लेखक को पहली प्राथमिकता अपने अनुभवों को देनी चाहिए। उन्हें ज्यादा से ज्यादा पाठकों के साथ शेअर करना चाहिए। ताकि पाठक के हाथ कुछ लग सके। फिर वह सीख या मार्गदर्शन किसी भी रूप में क्यों न हो। इसमें आप केवल इमेजनरी होकर नहीं चल सकते। इसके इतर हम अपने अनुभव जितने अच्छे और प्रभावी ढ़ंग से लिख सकते हैं उतना कुछ और नहीं। इसी से पाठक आपसे जुड़ता भी है। मुझे लगता है कि शायद इसी वजह से ‘कोसला’ का नायक पांडूरंग सब पर असर छोड़ता है।
लेकिन यह पात्र आपके अगले उपन्यास बिढ़ार, जरीला, झूल में उतना प्रभावी क्यों नहीं रहा?
हां, यह सच है कि उस पात्र की भूमिका कुछ कमज़ोर हुई। दरअसल मैंने जब कोसला लिखा उस वक्त मैं केवल 23-24 साल का था। मेरा युवा मन मेरी सबसे बड़ी ताकत थी। कोसला और बिढ़ार में एक लंबा अंतराल आ गया था। इस दरमियान मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर वापस अपने गांव सांगवी लौटा। लेकिन तब मुझे और मेरे जैसे युवाओं को परिवार और गांव वालों ने स्वीकार नहीं किया। गांव में खेती की दशा बहुत खराब थी। दो वक्त की रोटी जुगाड़ना भी मुश्किल हो रहा था। अतः उन्होंने हमें शहर में ही जाकर कोई नौकरी तलाशने को कहा। मैं और गांव के मेरे जैसे कई लड़के शहर आ गए और नौकरी करने लगे। सबसे पहले मैं पोस्ट ऑफिस में रहा लेकिन जल्द ही किसी स्कूल में शिक्षक की नौकरी मिली। शिक्षक रहते मुझे महाराष्ट्र के कई छोटे-बड़े शहरों, गांवों में रहना पड़ा। इस दौरान मुझे समाज के विभिन्न वर्गों, भाषा-बोलियों, लोक कथाओं, परंपराओं को समझने का मौका मिला। इस लंबे अंतराल से मेरा कोसला और बिढ़ार के बीच का तारत्म्य टूटा ऐसा मुझे लगता है। हालांकि तब मैं पहले से ज्यादा अनुभवी हुआ था।
कोसला एक युवा मन से लिखा गया उपन्यास था। यही तारुण्य शायद पाठकों को भा गया। खासकर उन नौजवानों की बातें जो गांवो से शहर में रोज़गार की तलाश में आते हैं। जिसमें उनका भोलापन छिपा होता है। शायद यही भाव वे मेरे अगले उपन्यास में भी देखना चाहते थे जो उन्हें नहीं मिला।
इन सबके बीच नेमाड़े पंथ की शुरुआत कब हुई?
मराठी के वरिष्ठ लेखक जयंत दळवी ने परिहास में एक बात कही कि अब हमारा युग खत्म अब नेमाड़े का युग शुरु हुआ। जिसे उन्होंने ‘नेमाड़ पंथ’ कहा। जिस पर मराठी साहित्य जगत में एक बहस छिड़ी। आगे चलकर वे साहित्यकार जो विद्रोही विचारों के थे उन्हें नेमाडे पंथी कहा जाने लगा। जिनमें खासकर युवाओं की संख्या ज्यादा थी। ऐसे युवा जो सामाजिक प्रतिमानों को धवस्त करने का काम किया करते थे। फिर वह मां-पिता, गुरू, धर्म-जाति, ईश्वर हो या बरसों से चली आ रही सामाजिक परंपरा या मान्यता। वे हर चीज़ पर संशय करते और उस पर पुरजोर तरीके से लिखते। ऐसे में जमे जमाए साहित्यकार जो खुद को तत्ववादी मानते थे बौखला उठे और उन्होंने ऐसे लेखकों को भी नेमाड़ पंथी करार दे दिया। आगे चलकर इसी से दलित साहित्य की नींव पड़ी।
आपने दलित साहित्य की बात की लेकिन यह साहित्य मराठी में जितनी प्रखरता से उभरा अन्य भाषा और प्रांतों में उतना पल्लवित क्यों नहीं हुआ?
उसका सबसे मूल कारण महाराष्ट्र की मजबूत साहित्यिक परंपरा रही है। दूसरा कारण हम सब मित्र जो अपनी लिटिल मैग्जीन निकाला करते थे उसका भी सबसे बड़ा योगदान रहा है। जिसका बैकअप उन्हें खूब मिला। जिसमें नम्रता या शिष्टाचार के लिए कोई जगह नहीं थी। फिर किसी पर भी बात करनी हो। आगे चलकर इसने आम्बेड़करिज्म और फिर कास्टीज्म का रूप दे दिया गया। तब कहीं जाकर ‘दलित पैंथर’ की स्थापना हुई। मेरा ऐसा मानना है कि कम्यूनिलिज्म हो या कास्टीज्म ज्यादा दिनों तक साहित्य में टिक नहीं सकता। फिर वह गांव का एक गरीब ब्राम्हण ही क्यों न हो वह भी दलित ही होता है। शायद उसे भी यह बात बुरी लगने लगी। और वह भी इस विचारधारा से अलग होने लगा और अब तो दलित साहित्य में केवल नव बौध्द और महार जाति के लोग ही बचे हैं। वह भी लगभग अब खत्म होने की कगार पर है।
दलित साहित्य को बढ़ाने में किसका योगदान ज्यादा रहा?
आम्बेड़कर के अनुयाई श्री म. ना. वानखेड़े ने इसे खूब बढ़ाया लेकिन उनके जाने के बाद यह जैसे खत्म सा हो गया।
आपको उपन्यास, कविता या आलोचना इनमें से क्या लिखना ज्यादा पसंद है?
मेरी ख्याति उपन्यासकार की है लेकिन मुझे कविता लिखना ज्यादा पसंद है। असका मूल कारण है, कविता अंतर्मन से निकलती है। मुझे लगता है कविता लिखने से एक संपूर्ण व्यक्तित्व निखरता है। कविता लिखना चुनौतीपूर्ण है। वह आपके अवचेतन मन में जन्म लेती है। उसी अवचेतन में विचारों का मंथन भाव, अर्थ और शब्दों के मार्ग से कविता रुप में आती है। जिसे हम संस्कृत में परा, मध्यमा, पश्यंति, वैखणी कहते हैं। शब्द एक भाषा में परिवर्तित हो जाते हैं। कविता में आपको रचनात्मकता की कसौटी पर खुद को कसना होता है। जबकि कथा और उपन्यासों में ऐसा नहीं है। उसमें आपकी प्रखर बुद्धिमत्ता की आवश्यक्ता होती है। आपको सबकी योजना बनानी होती है। प्लॉट तैयार करना, पात्रों का चुनाव जैसी कई दिक्कतें होती हैं। जो कुछ हद तक कृत्रिम सा लगता है। जिसमें आप एक विचार को शब्दों से बड़ा बनाते हैं जबकी कविता में एक बड़े विचार को सारगर्भित करते हैं।
आप साहित्य सम्मेलनों के प्रखर विरोधी रहे है ऐसा क्यों?
मेरा मानना है कि किसी भी योग्य व्यक्ति को इसमें नहीं जाना चाहिए। न तो इन सम्मेलनों से पाठकों को कुछ मिलता है और न साहित्य को। महज सम्मेलन के नाम पर दो-चार हजार लोग इकट्ठा हो जाते हैं। वे मस्त आउटिंग करते हैं, मजा मारते हैं। फिर उसमें भाषावाद, प्रांतवाद, जातिवाद इतना ज्यादा होता है कि साहित्य नाम की कोई चीज वहां नहीं रहती। मुख्य बात यह है कि ऐसे में संवाद के लिए कोई जगह नहीं रहती।
वर्तमान समय में साहित्य वाट्सएप या एसएसएस पर भी आ गया है। आप क्या कहना चाहेंगे?
इस प्रश्न का उत्तर मैं आपको एक अध्यापक के रूप में देना चाहूंगा। हमारे यहां आदिकाल से सदैव कम्यूनिकेशन पर बल दिया गया है। संवाद ही एक मार्ग ऐसा है जो निरंतर जारी रहना चाहिए। अकेला व्यक्ति भी मन ही मन में संवाद कर सकता है। अगर आप सावरकर का ही उदाहरण लें तो वह जेल में भी कैद रहकर दीवारों पर अपने विचारों को लिखा करते थे। वहां तो कोई पाठक नहीं था। लिपी से पूर्व सभी बातें मौखिक ही थीं। लगभग एक लाख साल पहले तक यह चली भी। हमारे सभी वेद, उपनिषद, लोक कथाएं, लोकगीत सब जबानी ही चला करते थे। उन्हें वैसे ही कंठस्थ करने की परंपरा थी। इसलिए हम शिक्षा में भी कहते हैं कि ‘Express yourself orally first.” लेखन तो बाद में आता है। अतः इन SMS को मैं संवाद का अच्छा माध्यम मानता हूं। या कहें यह मौखिक का ही आधुनिक रूप है। जिससे सभी को अपने विचार रखने की आजादी मिली है। न जानें कब इसमें आया छोटा सा विचार भी एक बड़ा रूप ले ले। बल्कि हमें तो खुश होना चाहिए कि हम एक टेक्नीकल डिवाईस में लिपीबद्ध हो रहे हैं।
आप प्रखर राष्ट्रवाद के विरोधी माने जाते हैं ऐसा क्यों?
यदि मैं मराठी की बात करूं तो यह राष्ट्रीयता और देशभक्ति की विचारधारा का कोई स्तरीय लेखक मुझे अभी तक मिला नहीं। दरअसल यह विचारधारा ही मुझे पूरी तरह थोथी लगती है। इसकी चर्चा केवल राजनैतिक स्तर पर ही होती है। मुझे नहीं लगता कि इस तरह के लेखन से लेखक और पाठक को कुछ मिल पाता है। यह राष्ट्रीयता की बात करना मुझे कृत्रिम लगता है। हम किस आधार पर पाकिस्तानियों, बांग्लादेशियों या फिर नेपाल के लोगों को गैर कह सकते हैं। वह भी हमारे मित्र ही होते हैं। वह भी हमारी ही तरह के लोग हैं। इसलिए मुझे लगता है कि यह सब राजनीतिक बातें हैं। एक अच्छे लेखक को इन सीमाओं के पार सोचना चाहिए। मुझे हिंदी के बारे में मालूम नहीं कि इस विचारधारा से जुड़े कोई अच्छे लेखक है भी या नहीं।
हाल में घोषित ज्ञानपीठ पुरस्कार को आप कैसे देखते हैं?
ज्ञानपीठ की घोषणा होने पर मुझे लगा कि मेरा करिअर अब खत्म हुआ। क्योंकि यह पुरस्कार अक्सर जीवन के आखिरी पड़ाव पर ही किसी लेखक को हासिल होता है। इसलिए सबसे पहले मैंने अपना चेकअप करवाया। अभी सब कुछ ठीक ठाक है यह जानकर मुझे लगता है कि मेरे पास अभी और जिंदगी शेष है। यह तो विनोद की बात हुई। लेकिन हां इस बात कि मुझे खुशी है कि अब मैं बड़े परिप्रेक्ष्य में देखा और पढ़ा जाऊंगा। अन्य भाषा में भी मेरी किताबें अनुवादित होकर पाठकों तक पहुंचेंगी। उन सभी बातों को जो शायद इस रूप में न होती उन्हें ज्ञानपीठ मिलने से फिर एक नई उर्जा एक नई गति मिली है।
साहित्य में आप अपना गुरू किसे मानते हैं?
मैं विंदा करंदीकर को अपना गुरू मानता हूं। वह मेरे मार्गदर्शक भी थे और आदर्श भी। वह एक अच्छे कवि भी थे। लेकिन उनका अधिकांश जीवन संघर्ष में बीत गया। वह जिस बात के हकदार थे वह उन्हें नहीं मिला। जिसका मुझे दुख है। लेकिन उन्होंने जो कुछ भी लिखा वह बेहतरीन था, वह मुझे अच्छा लगता है।
आप अगली पीढ़ी में किसे देखते हैं जो आपके लेखन को आगे ले जा सकते है?
एक शिक्षक होने के नाते मेरे कई सारे शिष्य हैं। इनमें कुछ नाम ऐसे हैं जैसे रघुनाथ पठारे, राजेन्द्र गवस, महेंद्र कदम, सदानंद देशमुख। यह सभी अच्छे उपन्यासकार हैं। जिनकी शैली मुझे प्रभावित करती है।
क्या आपके परिवार में कोई ऐसा है जो लेखन से जुड़ा हो?
मेरी नातिन। वह जब कागज पर कुछ न कुछ लिखती है तो मुझे संतोष होता है।
आपको लिखने की प्रेरणा कहां से मिली?
मेरे गांव से। मेरा गांव महाराष्ट्र के खानदेश में सांगवी नाम से है। वह एक पठारी इलाका है। वहां की एक विशिष्ट बोली भी है। कई तरह की लोक कलाएं वहां रचती-बसती हैं। साहित्य हमारी परंपरा का हिस्सा था। वारकरी संप्रदाय का एक व्यापक असर इस गांव पर रहा है। तरह-तरह के कला रूप वहां देखने को मिलते हैं। मैं एक कला प्रेमी भी हूं। इन सभी चीजों ने मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया।
सलमान रुश्दी पर आपने जो कुछ कहा क्या वह जरूरी था? क्या जरूरी है कि कोई बड़ा पुरस्कार मिलते ही हम किसी दूसरे पर आक्षेप करें?
मैं स्वयं भी आश्चर्यचकित था यह खब़र पढ़कर। मैं नहीं समझ सका कि मेरी बात को किस तरह से लिया गया। दरअसल मैं एक सेमिनार के दौरान अपनी बात रख रहा था। विषय मातृभाषा पर केंद्रित था। जिसमें मराठी और अन्य भाषाई साहित्य पर चर्चा हो रही थी। मैंने अपना अभिमत रखा कि आज मराठी के इतर अन्य भाषाओं में भी बहुत कुछ लिखा जा रहा है। हमें उसे भी देखना चाहिए। लेकिन मेरा विशेष जोर मातृभाषा पर था। मेरा मानना है कि कोई भी लेखक अपनी बात जितनी अच्छी तरह से अपनी मातृभाषा में कह सकता है किसी और भाषा में नहीं। मैंने एक उदाहरण स्वरूप सलमान रश्दी और नायपॉल की बात कही। मैंने कहा अमेरिका में बैठकर पाकिस्तान या पैगंबर के बारे में भला बुरा कैसे लिख सकते हैं। यह एक अच्छे लेखक की निशानी नहीं है। बल्कि एक अच्छा लेखक तो कुछ भी कहेगा वह अपने समाज की भलाई के लिए ही कहेगा। आप बिना इस्लाम को जाने इस्लाम पर या बिना क्रिश्चियनिटी को जाने जीजस पर टिप्पणी कैसे कर सकते हैं। कल को ब्रिटेन का प्रधानमंत्री किसी को दूसरी इंदिरा गांधी निरुपित करे तो क्या वह हास्यास्पद नहीं होगा। वह हास्यास्पद तो होगा ही अनैतिक भी होगा। अतः किसी भी बात को लिखने के लिए आपको उस समाज का हिस्सा होना जरूरी है। उसके बाद यह बखेड़ा खड़ा हुआ। जिस पर सलमान रुश्दी ने ट्वीट किया जो दुर्भाग्यपूर्ण था।