तृणमूल काग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा मोदी सरकार की प्रखर आलोचक हैं। हाल के चुनावी नतीजों, केंद्र सरकार के सात साल के कामकाज, मौजूदा दौर में उसकी छवि, कोविड की दूसरी लहर और केंद्र-राज्य संबंध जैसे विषयों पर आउटलुक के प्रीता नायर ने उनसे बात की। मुख्य अंश:
हाल के वर्षों में केंद्र-राज्य संबंधों को आप कैसे देखती हैं?
इस सरकार ने संघीय ढांचे को तार-तार कर दिया है। इसके दो कानूनों को लीजिए- एनआइए और यूएपीए। दोनों संघीय ढांचे के खिलाफ हैं। कोई भी किसी भी राज्य में जा सकता है और बिना अनुमति गिरफ्तार कर सकता है। ये अनुच्छेद 370 को हटाना चाहते थे तो उसका प्रस्ताव जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पारित होना चाहिए था, लेकिन सरकार ने तर्क दिया कि वहां राष्ट्रपति शासन है। लेकिन इस तर्क से तो वे पश्चिम बंगाल को भी विभाजित कर सकते हैं। कानून व्यवस्था खराब होने के नाम पर राष्ट्रपति शासन लगा दें और कहें कि हम गोरखालैंड बना रहे हैं।
क्या कोविड-19 से लड़ाई में राज्यों को भरोसे में लिया गया?
वैक्सीन संकट इसका अच्छा उदाहरण है। उन्होंने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून लागू कर दिया। राज्य कुछ नहीं कर सकते। किसी चीज पर हमारा नियंत्रण नहीं था। पहली खेप में हमें जो 90 हजार टेस्टिंग किट मिले वे बेकार निकले। हमने एक साल पहले वैक्सीन खरीदने की बात कही थी, लेकिन तब केंद्र ने अनुमति नहीं दी। हम फाइजर या जॉनसन से वैक्सीन खरीदने के लिए ग्लोबल टेंडर भी नहीं निकाल सकते थे। इस बीच सरकार वैक्सीन निर्यात कर रही थी। और अब कीमत देखिए। एक ही चीज की 150 रुपये, 400 रुपये, 600 रुपये अलग-अलग कीमत कैसे हो सकती है?
मोदी भक्तों को भी यह समझने में वैश्विक महामारी की जरूरत पड़ी कि भारत को हिंदू राष्ट्र की जरूरत नहीं। भारत को ऑक्सीजन और स्वास्थ्य इन्फ्राएस्ट्रक्चर की जरूरत है। आज किसी को परवाह नहीं है। लाशें नदी में तैर रही हैं। आपको यही नहीं मालूम कि वे कहां से आईं। इससे पहले बंगाल में अकाल के समय ऐसा मंजर देखने को मिला था, जब नदियों में लाशें तैरती थीं। मोदी ने देश को घुटनों पर ला दिया है।
तो क्या केंद्र-राज्य के बीच भरोसा बिल्कुल नहीं रहा?
संघीय ढांचे के नाम पर कुछ नहीं बचा है। लोकसभा में भाजपा पूर्ण बहुमत में है। यह सरकार अनेक बिल सिर्फ इसी ताकत के दम पर ले आई। इसमें कृषि बिल भी है। ऐसा नहीं कि विपक्ष वहां नहीं था। हम थे, हमने कृषि कानूनों के खिलाफ बोला। वे सीबीआइ और ईडी जैसी एजेंसियों का इस्तेमाल विपक्ष के नेताओं के खिलाफ कर रहे हैं। मायावती आज चुप क्यों हैं, हम सब जानते हैं।
आपने पहले कहा है कि सरकार संस्थानों का महत्व कम करती जा रही है...।
इन्होंने चुनाव आयोग और न्यायपालिका को कमतर किया है। आज हम देख रहे हैं कि तमाम हाइकोर्ट किस तरह सरकार की निंदा कर रही है, सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने सरकार की आलोचना की। अब अदालतें तुषार मेहता का झूठ सुनने को तैयार नहीं। 30 मार्च 2020 को तुषार मेहता ने कहा था कि सडक़ों पर कोई प्रवासी मजदूर नहीं है। अब वे कह रहे हैं कि ऑक्सीजन की कमी नहीं है। हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को जब अचानक एहसास हुआ कि वे अपने प्रियजनों के लिए भी अस्पताल में बेड नहीं ले सकते, तो उन्हें लगा कि पानी सिर से ऊपर पहुंच गया है।
चुनाव आयोग को देखिए। अप्रैल के मध्य में जब महामारी तेजी से फैल रही थी तब प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने अनेक रैलियां कीं। हमने आयोग से सबकी रैलियों पर प्रतिबंध लगाने को कहा, लेकिन उन्होंने हमारी बात नहीं सुनी। 17 अप्रैल को प्रधानमंत्री ने कुंभ मेला को प्रतीकात्मक बनाने की अपील की और उसे शाम चार बजे चुनावी सभा में कहा कि "जीवन में इतनी बड़ी भीड़ मैंने कभी नहीं देखी।" चुनाव के बीच में भी हमने बाद के चरणों को मिलाकर एक साथ मतदान कराने का आग्रह आयोग से किया, लेकिन उन्होंने हमारी बात नहीं सुनी। जब 19 अप्रैल को प्रधानमंत्री ने अपनी रैलियां रद्द कर दीं तो आश्चर्यजनक रूप से चुनाव आयोग ने कह दिया कि कल से कोई रैली नहीं होगी। लोगों को लगता है कि सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग सब डरे हुए हैं। आज कोई बच्चा भी उनकी इज्जत नहीं करता। इस सरकार ने न्यायपालिका को इतना कमतर कर दिया है कि स्वतंत्र लोकतांत्रिक भारत में लोगों का भरोसा ही उठ गया है। यह भारत के लोकतंत्र पर बड़ा आघात है।
कामकाज और लोगों की धारणा के लिहाज से आप मोदी सरकार के सात वर्षों का आकलन कैसे करती हैं?
शुरुआत धारणा से करते हैं। नोटबंदी से लेकर हर बड़ी नाकामी को, तीन महीने पहले तक इस सरकार ने बड़ी कुशलता से मैनेज किया। हमेशा यह दिखाने की कोशिश की कि देश के लिए बड़ा काम किया है। लेकिन अब यह छवि दरकने लगी है। उन्होंने सरकार और प्रधानमंत्री को अलग कर रखा था। सरकार की आलोचना तो ठीक थी, लेकिन प्रधानमंत्री को कुछ नहीं कहा जा सकता था। उनकी छवि भगवान जैसी बना दी गई। जो सामान्य नियम यहां तक कि अमेरिका के राष्ट्रपति और इंग्लैंड के प्रधानमंत्री पर लागू होते थे, वे नरेंद्र मोदी पर लागू नहीं होते। लोगों ने नोटबंदी, प्रवासी मजदूर संकट सब कुछ स्वीकार कर लिया। लेकिन चतुराई एक सीमा तक ही काम करती है। लोग दर्द झेल सकते हैं, दिन में सिर्फ एक वक्त का खाना खा सकते हैं, लेकिन वे जान नहीं दे सकते। वह भी बीमारी से नहीं, बल्कि इलाज के अभाव में। पांच-छह हफ्तों में हुई मौतों से प्रधानमंत्री की छवि बिगड़ी है।
मैं लोगों की इस बात से सहमत नहीं कि विपक्ष नहीं है। विपक्ष हमेशा रहा है, बस लोग हमारी बात सुनना नहीं चाहते थे। राहुल गांधी ने तो कोविड-19 संकट के बारे में सबसे पहले कहा था, लेकिन किसी ने उनकी बात नहीं सुनी। दरअसल लोगों को यह सोचना अच्छा लगता कि विपक्ष कहीं है ही नहीं। आज अचानक उन्हें लगने लगा है कि विपक्ष है।
जहां तक कामकाज की बात है, तो सरकार पहले दिन से शून्य की हकदार है। सिर्फ आंकड़ों के आधार पर सरकार चलाना महत्वपूर्ण नहीं, नैतिकता भी अहम है। सरकार को सही फैसले करने पड़ते हैं, और इसमें वह नाकाम रही है। जब आप 30 करोड़ मध्यवर्ग की बात करते हैं तो दूसरी तरफ 50 करोड़ वे लोग भी हैं जो भीषण गरीबी में जी रहे हैं। कोविड-19 जैसी बीमारी के समय सबके लिए टीकाकरण अभियान की जरूरत है। एक सभ्य और नैतिक सरकार के ये पैमाने हैं जिन पर यह सरकार पूरी तरह विफल रही है।