इस साल उनकी 126वीं जयंती पर जो कुछ हुआ, डॉ. अंबेडकर जीते जी संभवतः कभी नहीं होने देते। वे जीवन भर संवैधानिक लोकतंत्र में यकीन करने वाले इन्सान रहे। उन्होंने कभी भी अराजक तौर-तरीकों का समर्थन नहीं किया। नायक पूजा के तो वे घोर विरोधी थे और अन्धश्रद्धा के भी। मगर आज अंबेडकर के नाम पर ही अराजकता का नया व्याकरण निर्मित किया जा रहा है ।
दंगा मुक्त उतर प्रदेश देने का वादा करने वाले आदित्यनाथ योगी के राज में सहारनपुर में पहला दंगा संविधान निर्माता के नाम पर ही करवाया जा चुका है। दलित बहुजन पक्ष इसमें संघ परिवार के विभाजनकारी एजेंडे को दोषी मानते हैं। उनका कहना है कि सहारनपुर के दुधली गांव के लोग तो 14 अप्रैल को ही गांव के अंबेडकर भवन में अंबेडकर जयंती मना चुके थे। उन्हें तो यह भी पता नहीं था कि 20 अप्रैल को उनके गांव में अंबेडकर जयंती की कोई यात्रा निकलने वाली है। वैसे भी दुधली गांव में इससे पहले कभी अंबेडकर जयंती पर शोभायात्रा या रैली नहीं निकाली गई। मगर इस बार सत्तारूढ़ भाजपा के नेताओं ने बिना किसी प्रशासनिक स्वीकृति के जबरन यह यात्रा निकाली। इसका मुस्लिम समुदाय के लोगों ने विरोध किया। फिर पुलिस की मौजूदगी में ही पथराव शुरू हो गया। आगजनी और फायरिंग तक हुई, जिसमे दर्जनों लोग घायल हो गये। इस दौरान पुलिस के एक आला अधिकारी के आवास पर उपद्रवियों ने जो ताडंव किया, वजह जगजाहिर है।
सवाल उठता है कि जब दुधली के दलितों ने हर साल की तरह 14 अप्रैल को ही अंबेडकर जयंती शांतिपूर्वक ढंग से मना ली तब भाजपा के स्थान सांसद, जिलाध्यक्ष, विधायक और अन्य पार्टी पदाधिकारियों को ऐसी क्या जरुरत आन पड़ी कि उन्होंने अंबेडकर के नाम पर बिना इजाजत रैली निकालकर दो समुदायों को लड़वा दिया? दलित पक्ष का यह सवाल भी बेहद जायज है कि अंबेडकर का जन्मोत्सव मनाने के नाम पर शोभायात्रा जैसे आयोजन कहीं अंबेडकर के दैवीकरण करने का कुत्सित प्रयास तो नहीं है? इस वर्ष जिस तरह से अंबेडकर जयंती के नाम पर ढ़ेरों कार्यक्रमों का आयोजन हुआ है, वह कई सारे सवाल खड़े करता है। कहीं अंबेडकर के नाम पर धार्मिक कलश यात्रायें निकलीं, तो कहीं उनकी मूर्ति को दूध से पवित्र किया गया। एक जगह पर तो भाजपा की महिला मोर्चा ने हवन का ही आयोजन कर डाला। भाजपा और संघ से जुड़े विस्तारक–प्रचारक लोगों ने इस बार विभिन्न जगहों पर अंबेडकर जयंती समारोहों में विशेषज्ञ के नाते शिरकत की है, वह भी चौंकाने वाला दृश्य है।
जब से केंद्र में मोदी सरकार आई है, संघ विचार परिवार अंबेडकर को हथियाने काम बहुत सावधान क़दमों से आगे बढ़ा रहा है। अंबेडकर की 125वीं जयंती को राष्ट्रव्यापी मनाने से लेकर उनके नाम पर सिक्का जारी करने और लंदन से लेकर मुंबई तक बाबा साहब अंबेडकर से जुड़े स्मृति स्थलों को तीर्थ स्थल बनाने में भाजपा सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसे अंबेडकर की विरासत पर काबिज होने की कवायद कहा जाता रहा है। इसके जरिये मोदी सरकार दलित मतदाताओं को यह सन्देश देने में भ्ज्ञी कामयाब रही है कि बरसों सत्ता में रही कांग्रेस के मुकाबले भाजपा अंबेडकर को ज्यादा मानती है। दो दिन तक अंबेडकर के योगदान पर संसद में चर्चा और देश व्यापी संविधान दिवस का मनाया जाना भी संभवतः इसी रणनीति का हिस्सा है। कभी संघ और भाजपा के घनघोर विरोधी रहे दलित नेताओं को सत्ता में सहभागी बना कर दक्षिणपंथी राजनीति ने अपने दलित एजेंडे का सबूत किया है। भले ही वे बेमन से दलितों अपनाएं।
इस एजेंड के पीछे कई ठोस कारण भी हैं। काफी दिनों से संघ को वैचारिक और जमीनी स्तर पर दलित, बहुजन, मूलनिवासी की चुनौती झेलनी पड़ रही है। इसे वे अक्सर विभाजनकारी विचारधारा बताकर गरियाते भी रहे है, लेकिन हाल के वर्षों में दलित-मुस्लिम एकता के नारों ने संघ और भाजपा को काफी असहज किया है। जय भीम और जय मीम के नारे भी उनकी बैचेनी बढ़ा रहे थे, ऐसे में हिन्दुत्ववादी राजनीति के लिए यह बेहद जरुरी हो गया कि दलित मुस्लिम समीकरण को जितना जल्दी हो तोडा जाये।
भले ही भाजपा आज केंद्र से लेकर अन्य बहुत से राज्यों में सत्तासीन है, मगर दलित-बहुजन चेतना का अल्पसंख्यक राजनीति से जुड़ना संघ के लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है। इसलिए संघ की वर्तमान प्रयोगशाला उत्तर प्रदेश से इसका शंखनाद किया गया है। सहारनपुर का शोभायात्रा कांड दलित-मुस्लिम एकता को कमजोर करने का पहला बड़ा प्रयास है। अब यह देखना होगा कि दलित और मुस्लिम समुदाय के मध्य निर्मित हो रही राजनीतिक जुगलबंदी सहारनपुर जैसे झटके कैसे सह पाएगी?