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केदारनाथ सिंह - हिंदी की आधुनिक पीढ़ी के रचनाकारों में समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षर

केदारनाथ सिंह समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षर, ऐसे सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे जिनका नाम हिंदी की...
केदारनाथ सिंह - हिंदी की आधुनिक पीढ़ी के रचनाकारों में समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षर

केदारनाथ सिंह समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षर, ऐसे सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे जिनका नाम हिंदी की आधुनिक पीढ़ी के रचनाकारों में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उनकी कविताएं अपनी अनूठी शैली के कारण सर्वथा अलग थीं। वे शहरवासी अवश्य रहे पर गंगा की पवित्रता, अपनी भूमि, लहराती फसलों और खेत की पगडंडियों को कभी भुला नहीं पाए। केदारनाथ जी की कविताओं में गंवई व शहरी द्वन्द्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। उनका कहना था कि, ‘‘एक ख़ास तरह का मध्यवर्ग शहर में विकसित होता रहा है, जो गाँवों से आया है। आधुनिक हिंदी साहित्य उन्हीं लोगों का साहित्य है।’’ उनकी बहुचर्चित लंबी कविता ‘बाघ’, मील का पत्थर मानी जाती है। वे प्रसिद्ध कविता संकलन ‘तीसरा सप्तक’ के सहयोगी कवि भी थे। वे काव्य पाठ के लिए विश्व के अनेक देशों में आमंत्रित किए जाते थे। उनकी कविताएं प्रमुख भारतीय भाषाओं के अलावा विदेशी भाषाओं अंग्रेज़ी, स्पेनिश, रूसी, जर्मन, हंगेरियन में अनुवादित हुई हैं। 

 

केदारनाथ जी का जन्म 1934 की 7 जुलाई को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम डोमन सिंह तथा माता का नाम लालझरी देवी था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव के प्राथमिक विद्यालय में हुई जिसके बाद वे बनारस चले गए। उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से 1956 में हिंदी में स्नातकोत्तर और 1964 में शोध के उपरांत पी.एच.डी की डिग्री ली। कई विश्वविद्यालयों में अध्यापन के पश्चात जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत हुए। पढ़ाई के साथ हिंदी साहित्य के काव्य में भी उनकी रुचि थी। भोजपुरी भाषा युक्त लेखन तथा भारतीय सभ्यता-संस्कृति और मानवता से पूर्ण कविताओं के कारण उनको भोजपुरी भाषा का कवि भी माना गया।

 

केदारनाथ जी की कविताओं की भूमि ‘नागार्जुन’ की तरह गांव की रही। वे एक ही समय में गांव और शहर, दोनों पर कविताएं लिखते थे, इसीलिए उनकी काव्‍य-संवेदना का दायरा गांव से शहर तक व्‍याप्‍त था। उनकी कविताओं में पहले गांव से शहर, फिर शहर से गांव आने की यात्रा के क्रम में, गांव के निशान शहर में और शहर के निशान गांव में जाते दिखते हैं। केदारनाथ सिंह की विशेषता थी कि वे मध्यम मार्ग अपनाते थे। इसीलिए दोआब के गांव-जवार, नदी-ताल, मेड़-पगडंडी से बतियाने के क्रम में वे ना अज्ञेय की तरह बौद्धिकतावादी होते थे, ना ही प्रगतिवादियों की तरह भावुक होते थे। अनुभव की बजाए वे पूर्णतः सतर्क होकर शहरी विवेक-बुद्धि का प्रयोग करते थे। उनकी कविताओं में तमाम तरलताओं के साथ जीवन की स्‍वीकृति रहती थी.. 

 

‘‘मैं जानता हूं बाहर होना एक ऐसा रास्‍ता है,

जो अच्‍छा होने की ओर खुलता है,

और मैं देख रहा हूं इस खिड़की के बाहर,

एक समूचा शहर है’’

 

केदारनाथ जी को ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’, ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’, ‘व्यास सम्मान’, उत्तरप्रदेश का ‘भारत भारती सम्मान’, केरल का ‘कुमारन आशान पुरस्कार’, बिहार का ‘दिनकर पुरस्कार’ तथा ‘जीवन भारती सम्मान’ से सम्मानित किया गया। ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से हिंदी के प्रसिद्ध हस्ताक्षर ‘सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह दिनकर, सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन अज्ञेय, महादेवी वर्मा, नरेश मेहता, निर्मल वर्मा, कुंवर नारायण, श्रीलाल शुक्ल और अमरकांत’ सम्मानित किए गए थे। ज्ञानपीठ की चयन समिति ने हिंदी के अद्भुत कवि केदारनाथ सिंह को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने का निर्णय लिया। उन्हें 2013 में देश का सर्वोच्च साहित्य सम्मान ‘49वां ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्रदान किया गया। केदारनाथ जी ये पुरस्कार पाने वाले हिंदी के दसवें लेखक थे।

 

केदारनाथ जी के काव्य संग्रह ‘अभी बिलकुल अभी’, ‘जमीन पक रही है’, ‘यहां से देखो’, ‘बाघ’, ‘अकाल में सारस’, ‘उत्तर कबीर और अन्य कविताएं’ तथा ‘तालस्ताय और साइकिल’ हैं। उनके आलोचनात्मक ग्रंथ ‘आधुनिक हिंदी कविता में बिंबविधान’, ‘मेरे साक्षात्कार’, ‘कल्पना और छायावाद’, ‘मेरे समय के शब्द’ हैं। उन्होंने ताना-बाना (आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन), समकालीन रूसी कविताएं, कविता दशक, साखी पत्रिका तथा शब्द पत्रिका का संपादन किया। 

 

केदारनाथ जी की भाषा बोलचाल की हिंदी भाषा थी। उनकी कविताओं का प्रवाह नदी की धारा जैसा अविरल था। एकमात्र उन्होंने काव्य में भाषा का परिष्कार किया था। उनकी काव्य भाषा के विषय में उक्ति प्रचलित थी कि भाषा के संबंध में उनका संशय उत्तरोत्तर बढ़ा रहता था। वे सदैव ये जानने को प्रयासरत रहते थे कि भाषा कहां और कैसे बच सकती है, भाषा जहां विफल है वहां विकसित करने की आवश्यकता है क्या आदि। उनको इस बात का आभास था कि भाषा को विकसित करना बचा है। केदारनाथ जी की अद्भुत शैली वाली कविताएं उनकी परंपराओं से मिली दिशाएं, मनुष्य की अक्षय उर्जा तथा अदम्य जिजीविषा की कविताएं थीं। उनका प्रयोग उन्होंने जीवन के रूपों को मिलाकर किया था। वे अपनी अपूर्व शैली में आगे बढ़ते गए लेकिन अपनी पिछली जिंदगी का भी अपनी शैली में उपयोग किया। 

 

केदारनाथ जी का हिंदी साहित्य जगत के भारतीय लेखकों में अलग स्थान था। दिल्ली में रहते हुए भी उनके हृदय में बलिया और बनारस की मिट्टी की महक और स्मृतियां बसी रहीं जिनको वे हरदम याद करते थे। अपनी कृतियों को उन्होंने जन्म भूमि की मिट्टी से ओतप्रोत करने का कार्य बखूबी निभाया। उनकी कविताओं में वो बिंब सर्वाधिक प्रयुक्त हुआ है जो चीजों को जोड़ता है। उन्हें किसी भी रूप में किसी ना किसी से जुड़ने वाली, लोगों को आपस में किसी ना किसी तरीके से मिलाने वाली हर चीज, चाहे वो सड़क, पुल या कविता के शब्द हों, पसंद थी । उन्हें नई छवि बनकर तैयार होने वाले बिंब कविता में डालना पसंद था। वे मानते थे कि किसी भी वस्तु को जोड़ने से उस में वृद्धि होने के साथ, अगर उसे कोई अच्छा रूप दिया जाए तो वो एक अच्छी कविता का रूप हो सकता है। 

केदारनाथ जी हर वर्ष ठंड में बहन के घर कोलकता जाते थे। 2018 में उनको निमोनिया हो गया, फलस्वरूप एक महीने तक इलाज चलता रहा। उनकी हालत में सुधार हुआ लेकिन तबियत फिर बिगड़ गई। उनको दिल्ली के साकेत और मूलचंद अस्पताल में भर्ती कराया गया और बाद में एम्स में स्थानांतरित किया गया था। एम्स के सूत्रों के अनुसार उनको 13 मार्च को वहां लाया गया था। भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक लीलाधर मंडलोई जी ने जानकारी दी थी कि केदारनाथ जी 2018 में 19 मार्च की शाम को दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में चिरनिद्रा में सो गए। 

 

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