आज आपका जन्मदिवस है।मेरे लिए दिसम्बर का आगमन ही खुशियों भरा होता है। पहली तारीख को पत्नी का जन्मदिन , तेरह आपका और बीस दिसम्बर ज्येष्ठ पुत्री साक्षी का जन्मदिन।पर आज सिर्फ आपकी बातें, आपके व्यक्तित्व व कृतित्व की बातें।
आपका जन्म उन्नीस सौ उनतीस के तेरह दिसम्बर को रामपुर हवेली में हुआ था, पैतृक गाँव महिषी सहरसा, बिहार, माता का नाम त्रिवेणी देवी एवम पिता का मधुसूदन चौधरी था।पिता एक सुखी सम्पन्न गृहस्थ परिवार से थे, वे स्वयं ही एक योग्य, प्रख्यात शिक्षक थे।राजकमल का बचपन सुख-दुख का, प्रेम-घृणा का, मार-दुलार का संगम था।प्रारम्भ में खूब लाड़-प्यार मिला, मिले भी क्यों ना, अपने कुल खानदान के वो पहले चिराग थे, पिता उनकी हर ख्वाहिश पूरा करने को सदैव तैयार रहते थे।अल्पवयस में ही पिता मधुसूदन चौधरी ने उन्हें सा ते भवतु से लघु सिद्धांत कौमुदी तक कण्ठस्थ करा दिया था। पांच साल की उम्र में ही उन्हें अमरकोश याद था।उस समय अमरकोश पढ़े-लिखे परिवार के लिए प्रारम्भिक पुस्तक हुआ करता था। हरेक पिता की तरह उनके पिता की भी इच्छा थी कि उनका पुत्र खूब पढ़े लिखे, उन्नति करें, उच्च पद, प्रतिष्ठा हासिल करें।
बहुत ही आनन्द से उनका बचपन बीत रहा था, पर भाग्य का लिखा कौन मिटा सकता है, अचानक ही उनकी माँ का देहांत हो गया, राजकमल एवम उनके भाइयों की जिंदगी बिखरने लगी थी । पिता जो नियति के आगे विवश थे, कुछ सोच नही पा रहे थे । क्या किया जाय ? सैंतीस साल की जिंदगी यानी अभी तो आधी से ज्यादा उम्र बाँकी है । इन बच्चों की देखभाल कौन करेगा ?।
बहुत ही विषम परिस्थिति में उन्होंने तीसरी शादी परसौनी की।इसी शादी के बाद पिता पुत्र के बीच संबंधों में एक दरार सी पैदा हो गई । राजकमल का बालपन इसे सहजता से स्वीकार नही कर पाया और वे पिता से विमुख होते गए , अपने लिए नई राह तलाशने लगे. वैसे तो पिता पुत्र में आंतरिक मनमुटाव जरूर था पर राजनीति, साहित्य व अध्यात्म जैसे विषयों पर खूब चर्चा होती थी।
बकौल चाचाजी( उनके अनुज प्रसिद्ध कवि अग्निमित्र, एक बार पिता पुत्र में बहस चल रही थी।उसी समय मेरा जन्म हुआ था।जब बहस चरम पर था।ना पिता झुकने को तैयार ना पुत्र।पिता ने अंत मे ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। मेरे बाबा ने कहा, अब तुम भी एक पुत्र के पिता हो तुम बताओ तुम अपने पुत्र को राजकमल चौधरी बनाना चाहते हो या मधुसदन चौधरी।राजकमल चौधरी कोई जबाब नही दे पाए। कोई भी पिता अपने पुत्र को क्रांतिकारी, युगप्रवर्तक, विध्वंस कारी, विगुल फुकने वाला नही बनाना चाहता है।हरेक पिता की चाहत बस इतनी होती कि उसका पुत्र सुखी सम्पन्न हो, उसका जीवन शांतिपूर्ण ढंग से बीते। पर राजकमल किसी बंधन में बंधने को तैयार कहाँ थे।
उन्हें तो सारे बंधन त्यागकर अनुभव का खजाना लूटना था और उत्कृष्ठ साहित्य का सृजन करना था।कविता, कथा, उपन्यास साहित्य के इन तीन विधाओं में वो पारंगत थे, उनका अनुवाद भी बेहद उम्दा है।कहते है शंकर की चौरंगी का जो अनुवाद उन्होंने किया था मूल से भी ज्यादा प्रसिद्ध हुआ।
उनकी रचनाओं की कुछ पंक्तियां देखें ....शब्दो का चयन से लेकर भाषा शैली तक अत्यंत ही प्रभावशाली है।आपकी कविताओं में सर्वाधिक चर्चा मुक्ति-प्रसंग एवम दास कविता की हुई है।मुक्ति-प्रसंग तो अपने आप में एक दस्तावेज है। एक एक पंक्ति अचंभित करता हैं. मौत के बिस्तर पर लेटे आदमी की मानसिकता इतना सुदृढ़।
उनकी कविताओ के कुछ अंश .......
अपनी लड़ाई , अपनी नींद , अपनी भूख में हर आदमी , अब
एक बौना मसीहा है ,
अपने अन्दर !
अपने अन्दर पान के हरे पत्ते पर
वह स्थापित करता है , कोई
मूर्ति;
और , कांच का एक फूलदान !
चलो, हम इस मूर्ति के सामने झुक जाएँ, प्रणति में; हम
स्वीकार कर लें | हम कहें :
अहल्या से अब तक की सारी भ्रूण हत्याएं
हमने की है ! गलियों में, सूखे हुए तालाबो के किनारे , सोए हुए
जितने भी लावारिस जख्मी , कुत्ते
हमारा ही रक्त-मांस है
-उनमें!
साढे सात हजार वर्षो की लम्बी मेहनत से हमने ही
इस काली , बदसूरत , गर्भहीन धरती को बना लिया है ,
लावारिस भ्रूणों का , कुत्तो का जमघट !
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खामोश शव की बारीकी मेरी आँखों मे जमी रही
-स्याह बर्फ
तूफ़ान में टूटे हुए दरख्तों की हरी टहनियाँ
मेरे सीने पर लगीं
-सामने सपाट मैदान ही मैदान !
मैं सन्नाटे में लावारिस सोया रहा.
मेरी देह से चिपकी हुई काली तितलियाँ
मेरे पेट में दुबकी हुई भूखी बिल्ली
मेरी बांहों मे साँप-
कहाँ है रूह ? कब तक है ?
बर्फ का रंग बदलेगा
चिमनियाँ उगलेगी धुआँ
रूह लौटेगी
-जब बजेगा सायरन आओ,
मेरे साथ चले आओ
मैं नींद में भी रास्ते तय करता हूँ ...
अवाम हूँ मैं.
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पतझर. डूबी हुई शाम. बन्द कमरे में कैद आसमान.
नीम बेहोश दरख्तों के तले, याद के साये में
तुम मुझे बुलाते हो.
............
............
पतझर. डूबी हुई शाम. बन्द आँखों में एक पूरी दुनिया.
नीम बेहोश दरख्तों के तले, प्यार के साये में
तुम मुझे बुलाते हो. सुनो,
मैं नही आऊँगी ...
सूरज कहीं सोया है. किरणें कहीं खोई हैं.
कहीं और चली जाऊँगी.
अब थोड़ा उनकी कहानियों पर बात करें।
उनकी हरेक कहानी अपने आप में विलक्षण है। उनकी छोटी से छोटी कहानी भी अंतर्मन पर गहरा छाप छोड़ती है।शैली इतनी जबरदस्त की कई बार पाठक पुनः पिछले पृष्ठ पर पहुंच जाता।एक तो उनकी कहानियों का शीर्षक ही जिज्ञासा से भर देता है। जलते हुए मकान में कुछ लोग, खामोश घाटियों के साँप, जैसे एक काँच की दीवार, बारह आंखों का सूरज, ट्रेल की बीबी, जीभ पर बूटों के निशान , तब तीसरे आदमी ने कहा, एक आदमी गुस्से में. हरेक शीर्षक एक उत्सुकता लिए। इसी तरह उनकी मैथिली कहानियाँ का शीर्षक देखें साँझक गाछ, सुरमा सगुन बिचारे ना , एकटा चम्पाकली एकटा विषधर, घड़ी, माँछ, फुलपरास वाली।
अब जरा उनकी कहानियो के इन पंक्तियों को देखें ....
‘इन्द्रनाथ का नशा टूटता है और वह भागने की कोशिश करता है।मगर भागकर कहाँ जाएगा? चारों ओर अंधेरा-ही-अँधेरा है. अथाह जल है. समुद्र है. इन्द्रनाथ लौट आता है। शाम होती है, किसी नशे की उम्मीद में उसका गला सूखने लगता है, आँखें जलने लगती हैं, पेट की अंतड़ियों में ऐंठन उभरने लगती है। वह भूखे कुत्ते की तरह जतीन बाबू के पास जाकर दुम हिलाने लगता है। उनके पाँव दबाता है. मालिश करता है। उँगलियो) चटखाता है, और इनाम में अफीम या गाँजा या भोग या चरस की एक पुड़िया लेकर खुशी से चीखने लगता है। ‘
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तुम्हारी देह से कच्चे प्याज की गंध आती है।जाओ, अभी साबुन से नहाकर आओ!... चलो, निकलो यहाँ से! हफ्ते बीत जाते हैं, नहाती तक नहीं. गन्दी औरत! कुतिया कहीं की! जाओ, नहाकर आओ... निकलो!"-प्रसाद चीख रहा था।उसकी आवाज बता रही थी कि वह शराब पीकर आया है।पीने के बाद प्रसाद ऐसी ही बातें करता है. हर चीज उसे गन्दी और बदबूदार लगती है। बदसूरत लगती है। सवा रुपये की शराब पीता है और दुनिया की हर चीज को पाक और खूबसूरत देखना चाहता है।
वैसे, शकुन्तला रोज नहाती है। घंटों नहाती रहती है।बेवकूफ लड़की है। लोग उसकी तरफ देखें, उसे देखते रहें, उसकी भारी और भरी हुई देह, चाँदी की गोल और लम्बी सिल की तरह उसकी बहि और उसकी आँखों में मशाल की आग, जंगल की दहशत, जंगल।
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बार बार अपने घर का,अपने इस सजे-सजाये ड्राइंगरूम का नाम लेकर, वह खुश हो रहा था।उसकी पत्नी रसोई घर में उसके लिए चाय बना रही है।बगल के कमरे में उसकी नौकरानी उसके छोटे बच्चे को सुला रही है छह साल की उसकी लड़की उसके बिस्तरे में सो गई है. सो गया है उसका भाई. .....यह घर उसका है, उसकी पत्नी इस घर की मालकिन है।
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शाम को धका-माँदा ऑफिस से सीधा घर लौटा, तो मेरा सिर जोरों से दर्द कर रहा था. मैंने शशि से कहा, "कुछ पैसे हों, तो मुझे दो. सिर भारी है, आज बहुत खटना पड़ा. जरा कॉफी हाउस में घूम आता हूँ."
शशि, पहले तो देर तक गौर से मेरा चेहरा देखती रही कि वाकई मेरा सिर दर्शक हा है या नहीं, फिर बोली, "पैसे नहीं हैं! कुल दस का एक नोट है और अभी सैलरी मिलने में एक हफ्ता बाकी है! नोट भुना लोगे तो दो ही दिन में सारे पैसे उड़ जाएंगे. बेकार कहाँ जाओगे! तुम जब तक नवभारत टाइम्स पढ़ो, मैं चाय बना देती हूँ क्यों, ठीक है न?"
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। सिर्फ सौ रुपये में पूरा महीना चला लेनेवाली इस होशियार गृहस्थिन की बात पर मुस्कुराया।
शशि ने मेरी मुस्कुराहट देख ली, और पूरी जीभ बाहर निकालकर मुझे चिढ़ाते हुई. हंसती हुई बाहर चली गई।
शशि की यह अदा, जीभ दिखाकर भाग जाने की यह मासूम अदा, मुझे बहुत प्यारी-प्यारी लगी, क्योंकि मैंने देखा था, शशि की जीभ पर बूटों का एक भी निशान नही था।
आपके द्वारा रचित सभी उपन्यास एक से एक है, चाहे वो देहगाथा हो कि शहर था शहर नही था, अग्निस्नान हो कि बीस रानियों का बाइस्कोप, ताश के पत्तो का शहर हो कि मछली मरी हुई सभी मुझे अति प्रिय है।
मछली मरी हुई तो एक अद्भुत अनूठी उपन्यास है। कितनी बार पढ़ चूका हूँ पर अब भी वही रुचि।
इस उपन्यास के कुछ अंश देखें ...
"मैं यह बात समझ भी रहा था. मैं जानता था कि कल्याणी-जैसी स्त्री ही प्यार कर सकती है. गृहस्थ स्त्रियां प्यार नही कर सकती. प्यार कर सकती हैं आवारा औरतें. जिन्हें किसी चीज की परवाह नही है. जो सामाजिक मर्यादाएं नहीं मानती. नैतिक नियंत्रण नही मानती. धर्म नहीं मानती हैं. ऐसी औरतें कदम कदम पर देह बेचती चलती है , मगर मन नही बेचतीं. पत्नी बनकर भी नही. वेश्या बनकर भी नही.
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"तुमने उसी से विवाह किया. मुझे कष्ट हुआ था. वह तुम्हारी कमजोरी दूर नहीं कर सकेगी. वह तुम्हें अपने स्त्रीत्व का सुख नहीं दे सकेगी. सुख उसने नहीं दिया और तुम जानवर बने रहे. साधारण मनुष्य नहीं बन सके.
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"असाधारण बनना, 'एब्नॉर्मल' बनना अधिक कठिन नहीं है. आदमी शराब की एक बोतल पीकर असाधारण बन सकता है. दौलत का थोड़ा-सा नशा, यौन पिपासाओं की थोड़ी-सी उच्छृंखलता, थोड़े-से असामाजिक-अनैतिक कार्य आदमी को 'एब्नार्मल' बना देते हैं. कठिन है साधारण बनना. कठिन है अपनी जीवन-चर्या को सामान्यता- साधारणता में बाँधकर रखना। प्रकृत्ति सहज है। कठिन है निवृत्ति.
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"मैं चाहता था, तुम अपनी उपलब्धियों में असाधारण बनो. अपनी परिस्थितियों में नहीं. मैं चाहता था, तुम ज्ञान में, शक्ति में, साहस में, धैर्य में, अपनी आत्मा में असाधारण बनो. अपने शरीर में नहीं. किंतु शीरी के संपर्क में रहकर यह संभव नहीं था, क्योंकि
"आदमी की शुरुआत उसके अपने परिवार से ही होती है. परिवार का वातावरण और परिस्थितियाँ ही सबसे पहले उसके व्यक्तित्व और कार्यों पर प्रभाव डालती हैं. तुम पर शीरी का प्रभाव पड़ा. तुम्हारा जानवर और भी जंगली बनता गया.
"और इस जंगलीपन का शिकार हुई, कल्याणी की लड़की-प्रिया! "पर शिकार बनकर भी प्रिया ने वह काम कर दिया, जो कल्याणी करना चाहती थी. तुम तुम आदमी बन गए। तुम जो कमजोरी महसूस कर रहे थे, वह दूर हो गई. मैंने खून से लथपथ प्रिया का शरीर देखा था. तुमने उसके साथ बलात्कार किया. एक बार नहीं, कई बार. कल्याणी ने तुम्हारी जो शक्ति छीन ली थी, प्रिया ने उसे वापस लौटा दिया. यह एक अच्छी बात हुई.
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देर हो चुकी थी. शीरी ने आँखें खोल दीं और एक हाथ आगे बढ़ाकर निर्मल को उसने वक्त पर पकड़ना चाहा. पी लेना चाहा. मगर देर हो चुकी थी. बर्फ का टुकड़ा अब पानी में था और पानी को भाप बनकर हवा में उड़ जाने में देर नहीं लगती है.
आदमी जब आदमी नहीं होता, बर्फ का पिघलता हुआ टुकड़ा होता है-वह मर जाता है. निर्मल मर गया.
हर बार यही होता है. निर्मल अपने नैतिक अधिकार का लाभ उठा नहीं पाता. निर्मल दरिद्र है. सर्वहारा है सर्वहारा !!
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तब शीरीं पद्मावत जाल तोड़कर निकलती हुई मछली की तरह उछल पड़ी. निर्मल के बिखरे हुए, टूटे हुए, शरीर पर कूद गई. दोनों हाथों से निर्मल की देह पीटने लगी, "बस! इतना ही चाहते थे ? सिर्फ इतना ही चाहते थे ? बोलो ? तुम्हें मेरा जरा भी खयाल नहीं मुझे मार क्यों नहीं डालते.
अपने लेखन के शुरुआत में ही उन्होंने बता दिया था, कि वो बनी बनाई लीक पर चलने वाले नहीं. कोई भी क्षेत्र हो, नया आदमी , चाहे वो कलाकार हो , लेखक हो या और ही किसी पेशे में , जब वो शुरुआत करता है तो अपने वरिष्ठ के पदचिह्नों पर चलता है, आशीर्वाद प्राप्त करता है , उसी के जैसे होने की कोशिश करता है, और समय के साथ अपनी एक अलग पहचान बनाता है.
महान गायक मुकेश के शुरूआती गीतो को सुनेंगे तो लगेगा जैसे तलत मेहमूद ने गाया हो. देव साहेब, राजकपूर, दिलीप कुमार के अभिनय का अनुकरण बाद के कलाकरो में साफ़ देखा जा सकता है. कई सारे रचनाकारों को पढ़ते हुए लगता है इनपे उनका छाप है. पर राजकमल अपनी पहली रचना से ही अलग हैं जब भी आपकी रचनाओ के मध्य से गुजरता हूँ अजीब से एहसास होता है ,एक नया स्वाद , नई जिज्ञासा आखिर ऐसी क्राँतिकारी रचना लिखने के लिए कितने टन साहस और आत्मशक्ति की आवश्यक्ता रही होगी और आपने कैसे इसे हासिल किया होगा. आपकी रचनाएँ गाँव देहात के रास्ते से चलते-गुजरते नगर-महानगर ,देश की सीमा मापते हुए विदेशी साहित्य तक को अपनी जद मे लेता है.
पिछले दिनों आपकी एक पुस्तक प्रतिनिधि कहानियाँ का अंग्रेजी अनुवाद ट्रेसेज ऑफ बूट्स ऑन टँग सीगल बुक्स से प्रकाशित हुई , पुस्तक देखकर अत्यधिक खुशी हुई. बहुत ही उम्दा अनुवाद किया गया हैं. मेरी आंतरिक इच्छा है कि आपकी रचनाओ का अन्य-अन्य भाषओ में अनुवाद हो. "सीगल बुक्स" एवम अनुवादक सौदामिनी देव के साथ राजकमल प्रकाशन के मालिक अशोक महेश्वरी को धन्यवाद जिन्होंने इस ओर पहल की ।हाँ इस बात का मलाल जरूर है कि प्रकाशित होने से पहले ना अनुवादक ने, ना प्रकाशक ने अनुमति की आवश्यकता समझी. बिल्कुल अच्छा नही लगा, आखिर साहित्य से लगाव रखने वाले लोग ऐसा कैसे कर सकते हैं ? अशोक जी से बात हुई है, उन्होने आश्ववासन दिया है.
खैर कुछ भी हो पिताजी की रचनाएं दूर दूर तक फैल रही है उनका नाम और यश दूर दूर तक फैल रहा है, इससे अच्छी बात क्या हो सकती है.
कौटिश: नमन!
(लेखक नीलमाधव चौधरी प्रसिद्ध लेखक राजकमल चौधरी के पुत्र हैं और हिन्दी व मैथिली के चर्चित कवि हैं।)