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छंटना चाहिए नीतियों का कोहरा

किसानों को फसल अवशेष जलाने से रोकने के लिए वित्तीय मदद सबसे कारगर कदम है। किसानों को दो हजार रुपये...
छंटना चाहिए नीतियों का कोहरा

किसानों को फसल अवशेष जलाने से रोकने के लिए वित्तीय मदद सबसे कारगर कदम है। किसानों को दो हजार रुपये प्रति एकड़ की मदद चाहिए। इससे करीब दो हजार करोड़ रुपये का बोझ ऐसा नहीं है जिसे वहन नहीं किया जा सकता है।

पिछले कुछ दिनों से अचानक एक विमर्श बहुत तेज हो गया है और उसके केंद्र में है वायु प्रदूषण। यह चर्चा इसलिए खास हो गई, क्योंकि इसके केंद्र में देश की राजधानी दिल्ली है। जिस तरह अचानक इस पर फैसला सुनाने और बयानों का दौर चला, उससे यह बात लगभग तय हो गई कि कुछ इमरजेंसी जैसी स्थिति पैदा हो गई है। डॉक्टरों और पर्यावरणविदों के बयान आने लगे कि जहरीली हवा हजारों लोगों की जान ले सकती है। बच्चों और बुजुर्गों के लिए यह स्वास्थ्य संकट का समय है। इस संकट की वजह भी खोजी जाने लगी तो सबसे पहले आरोप के घेरे में आए किसान जो देश की खाद्य सुरक्षा बनाए रखने के लिए दिन-रात जुटे रहते हैं और वह भी न्यूनतम आमदनी और सीमित संसाधनों के जरिये। देश की राजधानी के हर व्यक्ति की जुबान पर यही बात रही कि हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के किसानों ने धान की कटाई के बाद बचे फसल अवशेष को जला दिया है और उसका धुआं दिल्ली के ऊपर स्मॉग की चादर बनकर फैल गया, जिसमें सांस लेने से लोग बीमार हो रहे हैं। हालांकि इसके साथ ही कुछ सवाल निर्माण गतिविधियों और वाहन प्रदूषण पर भी उठे लेकिन अधिक आरोप किसानों पर ही लगे। इस बात में कुछ सच्चाई भी है लेकिन पूरा सच यह नहीं है कि केवल किसानों के फसल अवशेष जलाने के चलते यह स्थिति पैदा हुई है।

हालांकि धीरे-धीरे बहस बदल भी रही है और किसान को अकेले दोषी होने से मुक्ति मिल रही है। इसकी वजह यह है कि पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने किसानों की समस्या को बहुत तर्कसंगत तरीके से रखा है। किसान इस समस्या का निपटारा अपने स्तर पर नहीं कर सकता है क्योंकि उसके पास विकल्प और संसाधन दोनों सीमित हैं। पहले ही कम आय और बढ़ती लागत के चलते कर्ज के बोझ में दबे किसान किसी भी नए वित्तीय बोझ को उठाने की स्थिति में नहीं हैं। यहीं सरकार की भूमिका शुरू होती है। वैसे भी संविधान के तहत देश के हर नागरिक को बेहतर हवा में सांस लेने का अधिकार मिला है और इसे मुहैया कराना सरकार का जिम्मा है। यह जिम्मा किसी एक राज्य का नहीं, बल्कि केंद्र और राज्य सरकारों दोनों का है। लेकिन हमारी सरकारें इस जिम्मेदारी को निभाने में नाकाम दिख रही हैं। सरकारें पिछले कई साल से लगातार खड़ी हो रही इस समस्या का कोई दीर्घकालिक हल नहीं खोज पाई हैं और बार-बार न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद कुछ कामचलाऊ कदम भर उठा लेती हैं।

असल में कुछ हद तक मौसम में होने वाले बदलावों को भी ध्यान में रखने की जरूरत है। जो जानकारियां बाद में सामने आईं, उनके मुताबिक पश्चिम एशियाई देशों से उठे धूल के गुबार हवा के साथ दिल्ली के आसपास आए। फिर, पूर्वी दिशा से आई हवा की नमी इसमें मिल गई। उसके चलते दिल्ली और उसके आसपास स्मॉग के हालात बने। जहां तक किसानों के फसल अवशेष जलाने की बात है तो वह काम तो अक्टूबर में शुरू हो जाता है और मध्य नवंबर तक लगभग समाप्त हो जाता है। जबकि दिल्ली में हालात 7-8 नवंबर को खराब हुए। हालांकि इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता है कि इस हालात के लिए कुछ हद तक खेतों में जलाए गए अवशेष जिम्मेदार हैं, लेकिन बड़े पैमाने पर निर्माण गतिविधियों और वाहनों से निकलने वाले धुएं और औद्योगिक प्रदूषण का भी इसमें बराबर का हिस्सा है।

अब सवाल उठता है कि इसका हल क्या है। अगर पश्चिम एशिया से उठे धूल के गुबार और पूर्वी हवाओं की नमी जैसे पहलू की बात करें तो इसका कोई हल सरकारों के पास नहीं है। लेकिन समस्या के दूसरे पहलुओं पर सरकारें कदम उठा सकती हैं। किसानों को फसल अवशेष जलाने से रोकने के लिए उन्हें दंडित करने का कदम व्यावहारिक नहीं है, बल्कि उनकी मदद करने का कदम ज्यादा व्यावहारिक है। इसके लिए इऩ अवशेषों के वैकल्पिक उपयोग के रास्ते निकालने के साथ ही किसानों की वित्तीय मदद सबसे कारगर कदम है। यह काम केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर करना होगा। किसानों को कम से कम दो हजार रुपये प्रति एकड़ की मदद करनी होगी। इसके चलते अगर करीब दो हजार करोड़ रुपये का बोझ पड़ता है तो क्या करोड़ों लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए केंद्र, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सरकारें वित्तीय सहयोग नहीं कर सकती हैं। इन सरकारों के लिए यह इतनी बड़ी रकम नहीं है जिसे वहन नहीं किया जा सकता है। बात केवल दिल्ली-एनसीआर के निवासियों की नहीं है, वायु प्रदूषण की समस्या उत्तर भारत में ही नहीं, पूरे देश में बढ़ रही है। इसके समग्र हल की जरूरत है।

दिलचस्प बात यह है कि जब उत्तर भारत इस स्वास्थ्य संकट से जूझ रहा है, उसी समय हम बॉन में जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण पर हो रहे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण पर अपनी प्रतिबद्धता को मजबूती के साथ दोहरा रहे हैं। लेकिन घरेलू मोर्चे पर हालात इसके उलट है। जरूरी है कि हम नीतियों पर फैले कोहरे को साफ करें और दीर्घकालिक नीतियां बनाकर इस संकट को हल करने की दिशा में कदम उठाएं और वह भी बिना किसी तरह की राजनीति के।  

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