“चौखट पर खड़े अगले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बनते राजनैतिक हालात शायद पक्ष-विपक्ष दोनों के लिए खतरे की घंटी”
ठीक बरस भर बाद 18वीं लोकसभा के परिणाम सामने होंगे। इस बरस भर की यात्रा बीते नौ बरसों में एकदम अलग और मुश्किल होने वाली है। सही मायने में घड़ी की टिक-टिक हर घंटे, हर दिन, हर महीने राजनीति के ऐसे रंग बिखरने को तैयार है जो 1977 और 1989 की सियासी बिसात को भी पीछे छोड़ देगी। ये चुनाव न इमरजेंसी के बाद के हालात वाले चुनाव होने वाले हैं और न बोफोर्स सरीखे किसी घोटाले की आवाज उठाने वाले। यह तो खुद को सबसे सफल बताने की चकाचौंध और सबसे असफल सत्ता के जरिये संवैधानिक ताना-बाना तोड़ने के आरोपों के बीच के चुनाव हैं। इसमें जनता की भूमिका अरसे बाद राजनीतिक दलों से बड़ी हो गई है। राजनीतिक दल जनता के फैसले में अपनी जीत-हार देखने को मजबूर हैं।
कर्नाटक ने जो लकीर खींची, वह कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने भर की नहीं है। यह सबसे ताकतवर और सबसे लोकप्रिय होने का तमगा लिए भाजपा के सर्वेसर्वा नरेंद्र मोदी की नौ बरस में पहली ऐसी हार है जिसने एक झटके में उस प्रभामंडल को ही मटियामेट कर दिया जिसकी रोशनी में भाजपा मान बैठी है कि उसकी जीत तय है। दरअसल घड़ी की टिक-टिक संदेश भी दे रही है, वक्त बरस भर का नहीं है। महज डेढ़ सौ दिन बाद चार बड़े राज्यों का चुनावी अलार्म बज जाएगा। उसके पांच महीने बाद यानी ठीक डेढ़ सौ दिनों बाद 2024 की वह घंटी बजेगी जिसमें सत्ता का सब कुछ दांव पर होगा- राष्ट्रवाद हो या राष्ट्रीय सुरक्षा, हिंदुत्व की गूंज हो या जाति समीकरणों का खेल यानी मंडल-कमंडल के साथ सियासी प्रयोग। इसके सामानांतर विपक्ष की समूची राजनीतिक बिसात उन मुद्दों पर टिकी है जिसे सत्ता ने छुपाने का प्रयास नहीं किया, बल्कि इन्हीं आरोपों को अपना राजनीतिक हथियार बना लिया है। इसकी फेहरिस्त खासी लंबी है। मसलन, ईडी और सीबीआइ के राजनीतिक दुरुपयोग के आरोप। दूसरी तरफ जनता महंगाई से त्रस्त है, बेरोजगारी का दर्द झेल रही है, कॉरपोरेट की लूट को देख रही है, और देश के संवेदनशील मुद्दों पर प्रधानमंत्री मोदी की चुप्पी को भी सुन रही है।
चाहे अनचाहे पहली बार 2024 की ओर बढ़ते कदम के केंद्र में विपक्ष की किसी पार्टी का कोई नेता या कोई चेहरा नहीं है, बल्कि मोदी की सत्ता और सत्ता के फैसले हैं। विपक्ष का कमजोर और बंटा हुआ होना है। खास बात कि सभी के केंद्र में नरेंद्र मोदी हैं। तो, चुनाव भी मोदी को लेकर ही है, चाहे विधानसभा के हों या लोकसभा के। यह पांच कदमों की यात्रा है।
पहला कदम कांग्रेस पर टिका है, जिसमें जिन तीन राज्यों में उसे 2018 में जीत मिली थी अब उसे बरकरार रखना है। राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश के चुनाव कांग्रेस को 2024 के लिए कितनी ताकत दे पाएंगे, यह सबसे बड़ा सवाल है। पिछली बार मध्य प्रदेश कांग्रेस जीती जरूर लेकिन भाजपा ने उसे खरीद लिया। राजस्थान जीत कर भी गहलोत-पायलट में बंट चुका है। सिर्फ छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के जरिये मौजूदगी बेसवालिया है। अगर इन तीन राज्यों में अगले पांच महीनों के बाद होने वाले चुनाव में कांग्रेस का वर्चस्व रहा तो फिर 2024 नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी होगा। बिखरा हुआ विपक्ष कांग्रेस में सिमट जाएगा। राहुल गांधी अगुआई करते नजर आएंगे।
दूसरा कदम मोदी सरकार के उन फैसलों से जुड़ा है जो विपक्ष को एक होने नहीं देगा। इसमें सबसे बड़ी भूमिका ईडी और सीबीआइ की होगी। विपक्ष का ऐसा कोई कद्दावर नेता बचा ही नहीं है जिसका नाम ईडी या सीबीआइ की फाइल में दर्ज न हो। शरद पवार, ममता बनर्जी, हेमंत सोरेन, तेजस्वी यादव के नाम सीधे दर्ज हैं। केजरीवाल और भूपेश बघेल को कभी भी शराब घोटाले में पूछताछ कर गिरफ्तार किया जा सकता है। बचे तो राहुल गांधी भी नहीं हैं। अखिलेश हों या मायावती, उद्धव ठाकरे हों या आदित्य ठाकरे, इन पर जांच एंजेसियों की गाज कभी भी गिर सकती है। यानी 2024 से पहले मोदी सत्ता का हर कदम विपक्ष को तार-तार करके भ्रष्टाचार को ही मुद्दा बनाकर अपनी कमजोरियों को छुपाने की ताकत रखता है।
तीसरा कदम विपक्ष के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण है। एकजुट विपक्ष या कहें 2024 को लेकर वन टु वन के चुनावी समीकरण। यानी विपक्ष आपस में इस तरह जुड़ जाए कि लोकसभा की सभी सीटों पर भाजपा के सामने एक विपक्षी उम्मीदवार खड़ा हो। मगर राजनीतिक दलों की निजी जरूरत और उनकी पहल से लगता नहीं है कि यह संभव हो पाएगा। कर्नाटक के शपथ ग्रहण का तेलंगाना, केरल, पंजाब, दिल्ली, ओडिशा और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्रियों को निमंत्रण तक नहीं भेजा गया, जबकि वहां गैर-भाजपा सरकारें हैं। इन पांच राज्यों में लोकसभा की 103 सीट है, जिसमें इन पार्टियों के पास 45 सीटें हैं। फिर बड़ा सवाल यह भी है कि कांग्रेस उस पट्टी से भी लगभग गायब है जिसमंद गठबंधन वाले तीन महत्वपूर्ण राज्य यूपी, बिहार, महाराष्ट्र हैं, जहां लोकसभा की 168 सीटों में से कांग्रेस के पास सिर्फ 3 सीटें हैं। यूपी में विपक्ष भी अखिलेश यादव और मायावती में बंटा हुआ है। कांग्रेस ने अखिलेश को निमंत्रण भेजा लेकिन मायावती को नहीं। फिर समझना यह भी होगा कि विपक्ष के कद्दावर क्षत्रप कांग्रेस को भी अपने सरीखा मानते हैं। यानी ममता और अखिलेश खुलकर कहने से नहीं चूके कि कांग्रेस को भी उन क्षत्रपों को समर्थन देना चाहिए जहां वे कांग्रेस से मजबूत हैं। ऐसे हालात में तो कांग्रेस करीब 225 सीटों से यूं ही बाहर हो जाएगी। तो, सवाल यह है कि समझौते का रास्ता नीतीश कुमार की भारत यात्रा से कैसे निकलेगा। हालांकि ममता बनर्जी ने नीतीश से मुलाकात में जयप्रकाश नारायण को याद करके बिहार की जमीन पर ही विपक्षी एका की बैठक का सुझाव दिया, लेकिन समझना यह भी होगा कि 1977 में इंदिरा गांधी के खिलाफ विपक्ष की एकता की बड़ी वजह जनता का आंदोलन था जिसे जेपी ने खड़ा किया था। यानी जनता ही इमरजेंसी को लेकर इंदिरा के खिलाफ एकजुट होने लगी तो राजनीतिक दलों के नेताओं को समझ में आया कि सभी मिल कर चुनाव लड़ेंगे तो जीत तय है। तभी जनता पार्टी बनी और इंदिरा हारीं। लेकिन अभी न जेपी हैं, न कोई आंदोलन।
चौथा कदम मुद्दों का है। मोदी सत्ता या कहें भाजपा के पास चार मुद्दे अनवरत हैं: राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा, हिंदुत्व और डायरेक्ट बैक ट्रांसफर स्कीम। लेकिन यह कमजोरी भी है कि मोदी का चेहरा इन चारों मुद्दों को बार-बार चुनाव में भुना चुका है। यानी इनकी उम्र पूरी हो चली है। सवाल है, 2024 के लिए मोदी खुद के लिए कौन-सा नया चेहरा गढ़ेंगे। भाजपा के लिए पहली बार कर्नाटक में हिंदुत्व भी डगमगाया और ओबीसी का साथ भी। इसके विपरीत विपक्ष के पास मुद्दों की भरमार है, जिसके केंद्र में मोदी ही हैं। मसलन, कॉरपोरेट लूट, सार्वजनिक उपक्रमों को खत्म करना, अदाणी कांड, महंगाई के बीच रोजगार का गायब होना, एमएसएमई की मुश्किल, देश को पांच किलोग्राम मुफ्त अनाज पर ला टिका देना और सबसे बढ़कर संवेदनशील मुद्दों पर प्रधानमंत्री मोदी का खामोश हो जाना। चाहे महिला पहलवानों के यौन शोषण के आरोप हों या बृजभूषण शरण सिंह को बचाना हो, या अदाणी से दोस्ती में देश की संपत्ति लुटाने के आरोप हों, या मसला चीन की सीमा पर दखल बढ़ने का हो।
पांचवां कदम नेता की खोज का, चेहरे का है। नरेंद्र मोदी एक चेहरा हैं, जो 2014 में डेवलपमेंट के नाम पर चले। गुजरात मॉडल का जिक्र करके चले। 2019 में राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रवाद के नाम पर चले। लेकिन 2024 में कौन-सा नारा लगाकर मोदी का चेहरा चलेगा, अभी इस पर सस्पेंस है। दूसरी तरफ विपक्ष के पास अभी तक कोई ऐसा चेहरा नहीं है जिस पर समूचा विपक्ष एक हो। कांग्रेस कमजोर है, तो उसके चेहरे के पीछे समूचा विपक्ष खड़ा होने को तैयार नहीं है। राज्य दर राज्य क्षत्रप खुद को ही चेहरा माने हुए हैं। केजरीवाल या ममता बनर्जी या फिर केसीआर, सभी खुद को मोदी सत्ता के सामने सबसे मजबूत मानते हैं। यानी मोदी बनाम कौन होगा, यह गायब है। लेकिन यहीं से 2024 की राह जनता की ओर से निकल सकती है। यानी वोटों की गोलबंदी के लिए मंडल या कमंडल का खेल पहली बार बेदम लग रहा है। और नए हालात पनपने शुरू हो गए हैं।
पहली बार यह सवाल भी है कि वोटों की गोलबंदी में ओबीसी का कार्ड किसके पक्ष में जाएगा। नरेंद्र मोदी घोषित तौर को खुद को ओबीसी कह चुके हैं। अब कांग्रेस के तीन मुख्यमंत्री गहलोत, बघेल और सिद्धारामैया ओबीसी हैं। पहली बार कर्नाटक में जनता के ही तीन प्रयोग मोदी सत्ता को चुनौती देने लगे हैं। पहला, मुस्लिम, दलित, आदिवासी का एक साथ कांग्रेस के पक्ष में आना। दूसरा, बंबई कर्नाटक के इलाके में लिंगायत भाजपा के साथ गया तो विरोध में ओबीसी पूरी तरह कांग्रेस के साथ खड़ा हो गया। तीसरे, कांग्रेस ने बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने का ऐलान किया तो झटके में जेडीएस-कांग्रेस में बंटा मुस्लिम वोट एकजुट होकर कांग्रेस के पक्ष में चला गया। वह आखिरी सवाल उठने भी लगा है कि सांप्रदायिक आधार पर मोदी के पीछे वोटों का ध्रुवीकरण नहीं हो रहा है, जबकि यूपी में योगी आदित्यनाथ के नाम पर 80:20 का खुला खेल ध्रुवीकरण करके भाजपा को जीत दिला रहा है। यानी पूरे देश की पहचान लिए मोदी को हिंदुत्व का लाभ नहीं मिल रहा है।
तो फिर 2024 में मोदी की निर्भरता यूपी को लेकर योगी पर रहेगी या योगी ही भाजपा का चेहरा बन जाएंगे। सोचिए, अगर यूपी का मुसलमान भी अखिलेश का साथ छोड़ देता है, तो झटके में कांग्रेस और योगी अपने आप सामने आ जाएंगे। यानी योगी को यूपी में पहली बार क्षत्रप अखिलेश या समाजवादी पार्टी से नहीं, बल्कि राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस से टकराना होगा। और देश में भी अगर राजनीतिक हालात भाजपा बनाम कांग्रेस के ही बनते हैं तो फिर संघ भी योगी को चेहरा बनाने में देर नहीं करेगा। महत्वपूर्ण यह भी है कि आरएसएस के लिए कमंडल छोड़ना नामुमकिन है। मंडल को अपनाना चुनावी जीत के लिए मजबूरी है। लेकिन जब मोदी का चेहरा फेल होने लगेगा तो 2024 में कोई रिस्क संघ भी लेना नहीं चाहेगा, खासकर तब जब आरएसएस अपने शताब्दी बरस में प्रवेश कर रहा है। शायद इसलिए 2024 की टिक-टिक हर किसी के लिए खतरे का अलार्म है। जहां राजनीति बदलेगी और देश किस दिशा में जाएगा, इंतजार सभी को है। इसलिए हर दांव हर कोई चलने को तैयार है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टीवी शख्सियत हैं)