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लापता हिंदुत्व

देश में हर जाति-धर्म की राजनीति की जगह, इसे सिकोड़ने की कोशिश मोदी को भारी पड़ी और सरकार बहुमत नहीं जुटा...
लापता हिंदुत्व

देश में हर जाति-धर्म की राजनीति की जगह, इसे सिकोड़ने की कोशिश मोदी को भारी पड़ी और सरकार बहुमत नहीं जुटा पाई

जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएंगे- अयोध्या में राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद से अयोध्या की गलियों में पूरे चुनाव भर यह गीत गूंजता रहा। किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि अयोध्या में अब कभी भाजपा हार भी सकती है, लेकिन अयोध्या में राम मंदिर बना तो पूजा से ज्यादा पर्यटन और भक्तों से ज्यादा गुजरात के बिल्डर नजर आने लगे। इससे अतीत की यादों को समेटे, सांस्कृतिक जड़ों को जिलाए रखने वाले छोटे-बड़े घर, दुकान, पूजा-पाठ की जगहें, सब कुछ ध्वस्त हो गया। साथ ही गुजरात से इस शहर में ऐसे बड़े-बड़े व्यापारी जमीन खरीदने से लेकर पर्यटन के रास्ते पैसों की बौछार करने आ पहुंचे जिनके पास मंदिर के लिए बिजनेस मॉडल था। लोगों की इच्छा, भक्ति-भाव सब कुछ चकाचौंध तले दफन हुआ, तो चुनाव गुस्से में तब्दील हो गया। ऊपर से जले पर नमक का काम कांग्रेस के न्यायपत्र ने किया। बेरोजगारी-मंहगाई उफान मारने लगी। जातिगत समीकरण टूटने लगे। हिंदूवादी पार्टी का तमगा लगाए भाजपा के हर वजीर को प्यादा बनी जनता ने मात देना शुरू कर दिया। अयोध्या को समेटे फैजाबाद की जिस लोकसभा सीट पर भाजपा 2014 से अपना परचम लहरा रही थी उसने सिर्फ वह सीट ही नहीं गंवाई बल्कि अयोध्या और राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा की समूची राजनीति को ही धराशायी कर दिया।

 

बनारस में प्रधानमंत्री मोदी की जीत इतनी सिकुड़ गई कि यदि सिर्फ 75 हजार वोट इधर से उधर हो जाते तो कांग्रेस के अजय राय चार दशक बाद दूसरे राजनारायण साबित होते। अयोध्या के साथ दक्षिण में भी हिंदुत्व की चाल नहीं चली। तमिलनाडु के रामनाथपुरम को दूसरे काशी के बतौर पेश कर राजनीतिक ख्वाहिश भी पार्टी पूरी नहीं कर पाई।

 

सही मायने में 2024 के जनादेश ने तीन संदेश साफ तौर पर भाजपा को दिए हैं। पहला, दलित और पिछड़ा समाज एकजुट हो जाए तो भाजपा की समूची राजनीति खत्म हो जाएगी। दूसरा, हिंदुत्व के नाम पर सियासत साधना या भाजपा को हिंदूवादी पार्टी कहकर वोटों का ध्रुवीकरण करने की उम्र भी पूरी हो चली है। तीसरा, नरेन्द्र मोदी जिस अंदाज में भाजपा को हांकते चले गए उससे जनता के साथ भाजपा के सरोकार खत्म हो गए। इसका स्पष्ट परिणाम उत्तर प्रदेश में दिखा। दूसरी तरफ क्षत्रपों को लेकर जो रुख अपनाया गया उसने बाकी कसर पूरी कर दी। यानी पहली बार भाजपा की राजनीतिक जड़ों पर चोट हुई। अनुच्छेद 370 का हटना, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण, समान नागरिक संहिता एजेंडे के रास्ते पर निकल पड़ने के बावजूद जनता भाजपा की उन जड़ों को ही टटोलती रही जिसे नरेन्द्र मोदी ने अपना कद बढ़ाने के तौर-तरीकों के जरिये खत्म कर नई राजनीति को जन्म दिया। जनता यह बर्दाश्त नहीं कर पाई। यह महत्वपूर्ण है कि जिस हिंदुत्व के आसरे गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जरिये भाजपा धीरे-धीरे आगे बढ़कर सत्ता पर काबिज हुई उसी प्रयोगशाला में सेंघ लग गई। उप्र और महाराष्ट्र में तो यह प्रयोगशाला पूरी तरह ध्वस्त हो गई। अरसे बाद गुजरात में भाजपा डगमगाई, हालांकि कांग्रेस गुजरात में एक ही सीट जीत पाई और दो सीट कम अंतर से हारी लेकिन इसने गुजरात प्रयोगशाला की कलई भी खोल दी।

 

मध्य प्रदेश ही एकमात्र ऐसा राज्य रहा जहां भाजपा ने कांग्रेस को पूरी तरह गायब कर दिया, लेकिन यह भी सच है कि मध्य प्रदेश में भाजपा की लंबी पारी ने हर जिले में स्वयंसेवकों की टोली खड़ी कर दी है जो वहां के समाज में घुल-मिल गई है। इसके अलावा मध्य प्रदेश में कांग्रेस के कद्दावर नेता ही सर्वेसर्वा रहे इसलिए कांग्रेस का संगठन जमीन से गायब हो गया। 

 

भाजपा का हिंदुत्व अगर इस चुनाव में लापता हो गया, तो दूसरी ओर आरक्षण और संविधान ने भाजपा को चाहे-अनचाहे ऐसे कठघरे में खड़ा कर दिया जहां संघ की पूरी राजनीतिक ट्रेनिंग ने घुटने टेक दिए।  सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को जिस तरह संघ की पाठशाला में पढ़ाया जाता है, वह भी हिंदू राष्ट्र की उस परिकल्पना पर टिका है जहां सभी हिंदू हैं, सभी बराबर हैं। कोई भी मांग बतौर हिंदू ही करनी चाहिए और स्वयंसेवक जब प्रधानमंत्री बनता है तो उसका नजरिया समूचे देश के लिए एक समान होता है। यानी दलित हो या आदिवासी या मुस्लिम, नजरिया हिंदू समाज का ही रखना होगा। यह अंदाज संघ के स्वयंसेवकों की टोली तक तो चल सकता है लेकिन राजनीति में नहीं क्योंकि भारत में सांसद सिर्फ जनता के नुमाइंदे भर नहीं होते। यही वजह रही कि उत्तर प्रदेश-बिहार-बंगाल-राजस्थान या किसी भी राज्य में जाति-समुदाय के वोट अब भी उनके अपने समुदाय के उम्मीदवार को ही जाते हैं। माना यही जाता है कि उनकी जरूरतों को लेकर संवाद उनके अपने ही कर सकते हैं। यही वजह है कि भारत में हर जाति-धर्म की राजनीति को स्पेस मिला हुआ है। पहली बार इस स्पेस को हड़पने की कोशिश मोदी सत्ता ने की, तो झटके में वह बहुमत के जादुई आंकड़े से भी नीचे आ गई। अब यह मोदी या भाजपा सरकार नहीं, बल्कि एनडीए या कहें नायडू-नीतीश की सरकार हो चली है जो न तो अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में गए थे, न ही बुलाए गए थे।

 

पुण्य प्रसून वाजपेयी

 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

 

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