उत्तर प्रदेश में जदयू का कोई बड़ा जनाधार नहीं है। फिर भी पार्टी विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी में है, क्या वजह है?
यह बात ठीक है कि उत्तर प्रदेश में जदयू का कोई बड़ा आधार नहीं है लेकिन हमारा प्रयास है कि हम राज्य में गरीब, पिछड़ों के हक की आवाज बनें। उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा सूबा है। खास वजह यह रही कि पंडित जवाहर लाल नेहरू पहले प्रधानमंत्री बने और इस राज्य से चुनाव जीतते थे। उनके बाद भी उत्तर प्रदेश ने देश को कई प्रधानमंत्री दिए लेकिन जो भी दल सत्ता में आए उन्होंने गरीबों, पिछड़ों के लिए कोई ठोस पहल नहीं की। केवल वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करते रहे इसलिए हम अपने छोटे-छोटे प्रयास को बड़ा करने में जुटे हैं ताकि सामाजिक-आर्थिक विषमता को दूर किया जा सके।
जदयू का एजेंडा क्या होगा?
जदयू अपने एजेंडे पर काम कर रही है। विकास हमारी प्राथमिकता है। गरीब, किसान, दलित, अल्ससंख्यक, पिछड़े वर्ग के हितों की जो अनदेखी हो रही है, यही हमारा मुद्दा है। हम चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश के जरिये देश की सियासत को बदला जाए। यह संभव भी है कि इस बार का चुनाव देश की राजनीति में एक नया मोड़ साबित हो सकता है।
वह कैसे?
एक समय था जब जनता दल उत्तर भारत की सबसे बड़ी पार्टी थी और राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत होती जा रही थी। मुलायम सिंह यादव भी हमारे सहयोगी थे और बाद में अलग हो गए। हमने उत्तर प्रदेश में 1991 का विधानसभा चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़ा और सफल भी हुए। उसके बाद 1993 में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने एकजुट होकर चुनाव लड़ा और सत्ता में आए। उसके बाद से लेकर 2014 के लोकसभा चुनाव तक उत्तर प्रदेश को माइनस करके केंद्र में सरकारें बनती रहीं। क्षेत्रीय दलों का महत्व बढ़ा। लेकिन 2014 में भाजपा को जो बड़ी सफलता मिली उससे फिर एक बार क्षेत्रीय दलों को एक साथ होने का समय आ गया है। इसलिए मुझे लगता है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति को बदले बिना देश में सशक्त विकल्प खड़ा नहीं किया जा सकता।
लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा का जादू नहीं चल पाया?
बिल्कुल सही है कि बिहार में भाजपा का जादू नहीं चल पाया। उसके पीछे सबसे बड़ा कारण रहा कि जनता दल के जो दो धड़े थे, वे एक हो गए। अगर हम एक नहीं होते तो शायद हमें इतनी बड़ी सफलता नहीं मिलती।
तो क्या उत्तर प्रदेश में भी आप समान विचारधारा वाले दलों को एकजुट करेंगे?
हमारा प्रयास है कि हम एकजुट होकर चुनाव लड़ें ताकि जिस उद्देश्य को लेकर जनता दल की लड़ाई शुरू हुई थी वह पूरा हो सके।
लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव से पहले महागठबंधन बनाने का आपका प्रयास सफल नहीं हो पाया?
हमने एक पहल की थी कि समान विचारधारा वाले दल एकजुट हों और लेकिन समाजवादी पार्टी चुनाव से पहले ही अलग हो गई। हमने देश के अलग-अलग सूबों से चार पूर्व मुख्यमंत्रियों नीतीश कुमार, लालू यादव, ओमप्रकाश चौटाला, एचडी देवेगौड़ा को एक मंच पर लाने का काम किया ताकि एकजुट होकर राष्ट्रीय स्तर पर एक विकल्प बने। समाजवादी पार्टी को छोड़ सभी लोग हमारे साथ खड़े हैं।
उत्तर प्रदेश में किस राजनीतिक दल के साथ गठबंधन करेंगे?
अभी यह तय नहीं है लेकिन हमारा प्रयास है कि जिस तरह हमने बिहार में प्रयोग किया और सफल हुए उसी तरह का प्रयोग करेंगे ताकि देश में एक नए तरह का विकल्प खड़ा किया जा सके।
लेकिन भाजपा पिछड़े, दलितों को लुभाने के लिए अथक प्रयास कर रही है। भाजपा को कहां तक सफलता मिलेगी?
यह बिल्कुल सही है कि भाजपा दलित, पिछड़ों को लुभाने में जुटी है। उसका प्रयास भी जारी है लेकिन मुझे नहीं लगता कि उसका यह प्रयास कारगर साबित होगा। जो मौजूदा हालात हैं उसमें उत्तर प्रदेश में किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलेगा। क्योंकि भाजपा दलित, पिछड़ों का वोट पाने के लिए प्रयास तो कर रही है लेकिन कोई प्लान नहीं कर रही है। क्योंकि कांग्रेस का इतिहास उठा कर देख लीजिए दलित, मुस्लिम, अगड़ी जाति के लोग जो वोट बैंक थे वह सब छिटक गए। क्योंकि कांग्रेस के पास इस वर्ग के लिए कोई ठोस योजना नहीं थी। जहां तक रहा पिछड़े वर्ग का सवाल तो आजादी के बाद जो पिछड़े वर्ग का हक था उसे मिलने में कितने साल लग गए। 1993 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हुईं और आज भी पिछड़ों को आरक्षण के नाम पर बांटने का काम किया जा रहा है।
आरक्षण का मुद्दा तो भाजपा भी बीच-बीच में उठाती रही है?
भाजपा यह मुद्दा उठाने वाली अकेली पार्टी नहीं है। आरक्षण का मुद्दा तो उठता रहा है उसका तरीका अलग-अलग रहा है। आजादी के बाद दलित, आदिवासियों को तो आरक्षण का लाभ दे दिया गया लेकिन पिछड़ों के आरक्षण के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। ऊंचा तबका कहता है कि आरक्षण नहीं होना चाहिए। वहीं कुछ सियासी दल भी इसे लेकर राजनीति कर रहे हैं।
कहा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिकता भी एक मुद्दा होगा। इस पर आपकी क्या राय है?
सांप्रदायिकता आज से ही नहीं, आजादी के बंटवारे के बाद से मुद्दा रहा है। उसके साथ ही सामाजिक विषमता भी एक मुद्दा रहा है। सामाजिक-आर्थिक विषमता बनी रहे उसमें कुछ लोग ऐसे हैं जो धर्म के नाम पर सियासत करते हैं। धर्म के नाम पर जो बंटवारा हो रहा है यह मुद्दा मुल्क के लिए ठीक नहीं है।
लेकिन सामाजिक-आर्थिक विषमता खत्म हो, धर्म मुद्दा न बने। इसके लिए क्या विकल्प हो सकता है?
विकल्प एक ही है कि सभी लोग धर्म, जाति से ऊपर उठकर विकास के लिए सोचें। आज कमजोर तबका खंड-खंड है। यह तबका जब तक एक नहीं होगा तब तक विकास की बात नहीं हो सकती। आज जाति, धर्म, क्षेत्र की जो बेड़ियां पड़ी हुई हैं उन्हें दूर करना होगा। आज जब पूरे देश में मेहनतकश मजदूर, किसान, दलित आदिवासी जब वह सोच रहा है कि उनकी एक पार्टी हो तो देर किस बात की है सभी एकजुट होकर एक राष्ट्रीय स्तर पर मंच तैयार करें और खुद नेतृत्व करें। आज छोटी-छोटी जातियों के संगठन बन गए हैं। लेकिन लक्ष्य एक नहीं है। जब तक इस वर्ग का लक्ष्य एक नहीं होगा तब तक लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती।