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वादों का हिसाब मांगो तो धैर्य खो बैठती है सरकार और पुलिस

महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के पुणतांबा गांव से अपनी उपज का वाजिब दाम मांगने को लेकर शुरू हुआ किसान आंदोलन मध्य प्रदेश के मंदसौर में आकर हिंसक हो गया। कोई ठोस आश्वासन नहीं मिल पाने से ही किसानों की नाराजगी बढ़ी तो मंदसौर में पुलिस धैर्य खो बैठी।
वादों का हिसाब मांगो तो धैर्य खो बैठती है सरकार और पुलिस

पुलिस को धैर्य खोने और निहत्थी भीड़ पर गोली चलाने का कितना अधिकार है या कितना होना चाहिए, यह बहस का मसला हो सकता है। लेकिन ऐसी भी मिसालें हैं कि 1956 में केरल में कृष्ण पिल्लै की पहली समाजवादी सरकार के राज में आजादी के बाद पहली दफा पुलिस की गोली से एक आदमी की मौत हुई तो समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने अपनी पार्टी की सरकार के खिलाफ ही आंदोलन छेड़ दिया था। सरकार गिर गई थी। लेकिन वह दौर अलग था जब लोकतंत्र के केंद्र में आम आदमी हुआ करता था। तब किसान भी देश की नीतियों के केंद्र में थे। 

लेकिन नब्बे के दशक में उदारीकरण के बाद किसान सरकारी नीतियों के केंद्र से हट गए या हटा दिए गए। खाद, बीज और कृषि उपकरणों पर मिलने वाली सब्सिडी पर सबसे अधिक हायतौबा मचाया जाने लगा। यह अलग बात है कि किसानों के नाम पर यह सब्सिडी कंपनियों और उद्योग को ही हासिल होती रही है।

वही वह दौर था जब देश में आखिरी बार महेंद्र सिंह टिकैत, नजुंदास्वामी, शरद जोशी, किशन पटनायक जैसे नेताओं ने किसान आंदोलनों की धूम मचाई थी। लेकिन उसके बाद किसान आंदोलनों का जैसे दौर ही बीत गया। किसान अपने संकटों के लिए सिर्फ खुदकशी पर मजबूर हो गए। नब्बे के दशक से अब तक लगभग 4 लाख किसानों की खुदकशी के मामले राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के रिकॉर्ड में दर्ज हो चुके हैं। लेकिन फिर किसान आंदोलित हुए तो उन्हें गोली मिली।

किसानों की दयनीय हालत बयान करने के लिए इतना ही काफी नहीं है। विडंबना यह भी है कि मौसम की बेरुखी और सिंचाई के साधनों के अभाव के बावजूद देश में अन्न, दूध, फल-सद्ब्रिजयों की उपज भी काफी बढ़ी है। सामान्य समझ तो यही कहती है कि उपज बढ़ी तो आमदनी बढनी चाहिए, लेकिन किसान की हालत दयनीय होती गई है, उसका कर्ज बढ़ता गया है।

फिलहाल किसान भाजपा सरकारों से उनके चुनाव घोषणा-पत्र के मुताबिक लागत से 50 प्रतिशत अधिक समर्थन मूल्य ही मांग कर रहे हैं लेकिन यह मांग सरकारों को रास नहीं आ रही है। 2014 में ही मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दे चुकी है कि वह उपज का दाम लागत से डेढ़ गुना नहीं दे सकती। राजनैतिक पार्टियां वोट पाने की लालच में कर्जमाफी का वादा भी करती रही हैं। भाजपा ने 2014 के बाद यही किया। अब यही उसके गले की हड्डी बनती जा रही है। यानी वादे पूरे करने को कहो तो पुलिस और सरकार धैर्य खो बैठती है।

 

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