बीज वक्तव्य में प्रसिद्ध अंग्रेज़ी विद्वान सुमन्यु सत्पथी ने कहा कि ‘अनुवाद’ एक स्त्री की तरह है, अगर वह सुंदर है तो विश्वनीय नहीं और यदि विश्वास के काबिल है तो सुंदर नहीं। उन्होंने बताया कि सारला दास महाभारत का कभी तो अनुवाद करती हैं और कभी उसका सृजन, कभी-कभी वे इसे मूल रूप से लिखती हैं। उन्होंने ‘एलिस इन वंडरलैंड’ का ज़िक्र किया और कहा कि उन्होंने मूल टेक्स्ट के साथ विमर्श में पर्याप्त स्वतंत्रता भी ली है।
सत्र की अध्यक्षता करते हुए आयोजक संस्था साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा कि पुनर्कथन की पंरपरा भारतीय वांग्मय में हजारों वर्ष पूर्व से मौजूद रही है। उन्होंने अनुवाद और पुनर्कथन के उदाहरण देते हुए कहा कि रामायण और महाभारत के सबसे अधिक अनुवाद हुए हैं। उन्होंने कहा कि तुलसीदास ने अनुवाद भी किया और पुनर्कथन भी। अकादेमी के सचिव के. श्रीनिवासराव ने सभी का स्वागत करते हुए कहा कि अकादेमी का मुख्य कार्य ही अनुवाद है, जिसके कारण भारतीय साहित्य विभिन्न भाषाओं में आम आदमी तक पहुँचा है।
‘भक्ति आंदोलन: अनुवाद पुनर्कथन के रूप में’ विषय पर केंद्रित सत्र की अध्यक्षता मिनी कृष्णन ने की और चन्द्रकान्त पाटिल, नंदकिशोर पांडेय और जे.एल. रेड्डी ने आलेख पढ़े। चन्द्रकांत पाटिल ने कहा कि जब-जब मुख्यधारा का साहित्य शिथिल और प्राणहीन होता है संत साहित्य लोक साहित्य की ओर लौटकर ही नवजीवन पाता है।
‘भारत की अलिखित भाषाएँ’ विषयक परिसंवाद का प्रथम सत्र, अकादेमी के जनजातीय एवं वाचिक साहित्य केन्द्र, नई दिल्ली की निदेशक प्रो. अन्विता अब्बी अध्यक्षता ने की और विशेष अधिकारी डॉ. देवेन्द्र कुमार देवेश ने स्वागत वक्त्व्य दिया।
डॉ. अवधेश कुमार मिश्र ने पूर्वोत्तर भारत की भाषाओं पर बात करते हुए कहा कि विभिन्न क्षेत्रों की बोली भाषाएँ प्रायः अपने क्षेत्र की प्रमुख भाषा लिपि को अपनाती हैं। लेकिन पूर्वोत्तर की अधिकांश भाषाओं को रोमन लिपि को अपनाया हुआ है। इंदिरा गाँधी अंतरराष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के प्रो. अवधेश कुमार सिंह ने कहा कि वाचिक और लिखित में वे वाचिक को ही अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। प्रो. पुरुषोत्तम बिलिमाले और डॉ. शैलेन्द्र मोहन ने क्रमशः तुलु और निहाली भाषाओं के संदर्भ में अपने विस्तृत आलेख प्रस्तुत किए।
इस अवसर पर अकादेमी द्वारा प्रकाशित कालाहांडी के वाचिक महाकाव्य, ले. महेन्द्र कुमार मिश्र, अनु. दिनेश मालवीय का विमोचन अकादेमी के अध्यक्ष प्रो. विश्वनाथप्रसाद तिवारी द्वारा किया गया। उन्होंने कहा कि एक समय था जब वाचिक ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता था, लेकिन आज जब लिखित महत्वपूर्ण हो गया है, इस तरह की पुस्तकों का प्रकाशित होना सुखदायी है। दूसरा वैचारिक सत्र प्रो. सुकृता पॉल कुमार की अध्यक्षता में संपन्न हुआ, जिसमें प्रो. आनंद महानंद, प्रो. भक्तवत्सला भारती और प्रो. सी. महेश्वरन ने अपने आलेख प्रस्तुत किए। तृतीय सत्र ‘अलिखित भाषाओं का वजूद’ विषयक परिचर्चा का था, जिसकी अध्यक्षता प्रो. रमाकांत अग्निहोत्री ने की। परिचर्चा में आयशा क़िदवई, कीर्ति जैन, वासम्मली, जोसेफ़ बरा और कार्तिक नारायणन ने सहभागिता की।