“राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने पांच बार प्रधानमंत्री रहे विक्रमसिंघे को फिर सौंपी जिम्मेदारी, पर सवाल यह कि राजनीति बदलेगी या नहीं”
जब राजनीति देशवासियों के लिए ही विभाजनकारी बन जाए, समस्याएं सुलझाने के बजाय विरोध करने वालों के खिलाफ दमनकारी नीति अपनाई जाए, लोकशाही को दरकिनार कर तानाशाही तरीके से मनमाने फैसले लिए जाएं तो देश का क्या अंजाम हो सकता है, श्रीलंका इसका गवाह है। वहां खाने-पीने के सामान, ईंधन, रसोई गैस और दवा जैसी जरूरी वस्तुओं का भी अकाल पड़ गया है। बिजली और ईंधन न होने के कारण स्कूल बंद करने के आदेश दे दिए गए हैं। आवश्यक सेवाओं को छोड़ बाकी सरकारी कर्मचारियों से दफ्तर न आने को कहा गया है। महंगाई दर 30 फीसदी के करीब पहुंच गई है। दो महीने से आंदोलन कर रहे विरोधियों को हटाने के लिए राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे समर्थकों ने उन पर हमला कर दिया तो पूरे देश में हिंसा भड़क उठी। सत्तारूढ़ दल के एक सांसद की हत्या कर दी गई। अनेक नेताओं-मंत्रियों के घर जला दिए गए। गोटाबाया के बड़े भाई और पूर्व प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के 9 मई को इस्तीफा देने के बाद उनके पैतृक निवास को भी आग के हवाले कर दिया गया।
राजपक्षे समर्थकों और विरोधियों के बीच झड़प में नौ लोग मारे गए और करीब 200 जख्मी हुए। स्थिति यह है कि राष्ट्रपति को एक महीने में दूसरी बार 6 मई को आपातकाल लगाना पड़ा, जो 21 मई को हटा। वरिष्ठ नेता रणिल विक्रमसिंघे को 12 मई को नया प्रधानमंत्री नियुक्त किए जाने के बाद हालात कुछ सुधरे हैं लेकिन आंदोलनकारी गोटाबाया के इस्तीफे पर अड़े हैं। मुख्य विपक्षी दल समागी जन बलवागय (एसजेबी) के नेता सजित प्रेमदास भी मांग कर रहे हैं कि गोटाबाया तत्काल इस्तीफा दें। हालांकि अभी तक उन्होंने इस्तीफे से इनकार किया है।
नव उदारवादी माने जाने वाले विक्रमसिंघे छठी बार प्रधानमंत्री बने हैं। 225 सीटों वाली संसद में यूनाइटेड नेशनल पार्टी के वे एकमात्र सांसद हैं। गोटाबाया ने अब तक 22 मंत्री नियुक्त किए हैं, जिनमें एसजेबी के नेता भी हैं। इस तरह उन्होंने सरकार को राष्ट्रीय स्वरूप देने की कोशिश की है।
नए प्रधानमंत्री से काफी उम्मीदें हैं। विक्रमसिंघे के कटु आलोचक भी मानते हैं कि विभाजनकारी राजनीति के दौर में उनमें चुनाव जीतने की क्षमता भले न हो, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी पहचान देश को मौजूदा हालात से निकालने में मदद कर सकती है। उन्होंने मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद को विदेशी मदद जुटाने के लिए कोऑर्डिनेटर बनाया है। नशीद की श्रीलंका के सभी दलों के नेताओं के साथ मित्रता है। अपने देश से निकाले जाने के बाद उन्होंने काफी समय श्रीलंका में बिताया है।
हालांकि विक्रमसिंघे के लिए आगे की राह आसान नहीं होगी। इसका अंदाजा तभी हो गया जब राष्ट्रपति के अधिकार सीमित करने के लिए संविधान में 21वें संशोधन का प्रस्ताव सत्तारूढ़ श्रीलंका पोदुजन पेरुमन (एसएलपीपी) पार्टी के विरोध के कारण कैबिनेट की बैठक में नहीं रखा जा सका। पदग्रहण के बाद उन्होंने कहा, “अर्थव्यवस्था बेहद खराब स्थिति में है। अगले दो महीने सबसे कठिन भरे होंगे और लोगों को कुछ बलिदान करने तथा चुनौतियों के लिए तैयार रहना होगा।” विक्रमसिंघे के मुताबिक देश में एक चौथाई बिजली तेल से बनती है, जिसके आयात के लिए पैसे नहीं हैं। इसलिए संभव है रोजाना 15 घंटे बिजली कटौती हो। दवाओं और सर्जिकल उपकरण सप्लायरों को चार महीने से भुगतान न होने के कारण इनकी भीषण किल्लत हो गई है। आवश्यक वस्तुओं के आयात के लिए 75 अरब डॉलर चाहिए जबकि सरकार के पास सिर्फ 2.5 करोड़ डॉलर की विदेशी मुद्रा बची है। महज 80 अरब डॉलर जीडीपी वाले देश पर 51 अरब डॉलर का कर्ज है।
श्रीलंका के इस संकट की जड़ें 20 साल पुरानी नीतियों में हैं। दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर साउथ एशियन स्टडीज के प्रो. संजय भारद्वाज आउटलुक से कहते हैं, “राजपक्षे भाइयों ने पहले विभाजनकारी राजनीति का रास्ता चुना। बहुसंख्यक सिंहली समुदाय को खुश कर उन्हें साथ लेने की कोशिश की। दूसरी तरफ जो अल्पसंख्यक अपनी समस्याओं को लेकर आवाज उठा रहे थे, उन पर दबाव की नीति अपनाई गई। इसी बहुसंख्यकवादी नीति के आधार पर वे 2005 से शासन कर रहे थे।” शुरू में तो बहुसंख्यक खुश थे और राजपक्षे सरकार का समर्थन कर रहे थे। लेकिन आर्थिक संकट आया और सर्वाइवल की चिंता सताने लगी तब लोगों को लगा कि वह राजनीति गलत थी। अब सिंहली, तमिल और मुस्लिम एक साथ सरकार विरोधी प्रदर्शन कर रहे हैं।
राजपक्षे सरकार की आर्थिक नीतियां भी कम कसूरवार नहीं। भारद्वाज कहते हैं, “संकट का एक बड़ा कारण यह है कि श्रीलंका का ज्यादातर कर्ज द्विपक्षीय है। द्विपक्षीय कर्ज लेने के कारण देश में कोई ढांचागत सुधार नहीं किया गया, जबकि कर्ज का बोझ बढ़ता गया।” ईंधन न होने से खाने-पीने की चीजों और दवाओं का ट्रांसपोर्टेशन रुक गया। इन चीजों की किल्लत हो गई, जो थोड़ा उपलब्ध था उनके दाम काफी बढ़ गए। इससे आम लोगों की दिनचर्या पर असर हुआ। भारद्वाज के अनुसार, “लोगों ने विरोध किया तो सरकार ने कर्फ्यू और इमरजेंसी लगाकर उन्हें दबाने की कोशिश की। इससे असंतोष और बढ़ा और संकट गहराने लगा।”
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तीन दशक तक चला गृहयुद्ध 2009 में खत्म हुआ तो तत्कालीन राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने राजस्व बढ़ाने के उपायों पर ध्यान नहीं दिया। राष्ट्रपति बनने के बाद 2019 में गोटाबाया ने टैक्स में कटौती की जिससे सरकार की आमदनी प्रभावित हुई और उसके ठीक बाद महामारी के आने से पर्यटन उद्योग बैठ गया। इससे विदेशी मुद्रा का संकट बढ़ने लगा। संकट और बढ़ा तो पिछले साल अप्रैल में उर्वरक आयात पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इससे धान के साथ चाय और रबड़ उत्पादन भी प्रभावित हुआ जिनके निर्यात से श्रीलंका को विदेशी मुद्रा मिलती है। प्रतिबंध तो कुछ महीने बाद हटा लिया गया, लेकिन उर्वरक आयात नहीं हुआ। देश में मौजूदा मई-अगस्त के सीजन के लिए भी उर्वरक नहीं है। विक्रमसिंघे ने उर्वरक आयात करने की बात कही है लेकिन वह सितंबर-मार्च सीजन के लिए ही होगा। यानी मौजूदा सीजन में भी उपज कम होगी और खाद्य पदार्थों के लिए आयात पर निर्भरता बढ़ेगी।
भारद्वाज इस संकट के लिए चीन को भी जिम्मेदार ठहराते हैं। वे कहते हैं, राजपक्षे सरकार ने भारत से दूरी बढ़ाकर चीन के साथ नजदीकियां बढ़ाईं। मानवाधिकारों और अल्पसंख्यक अधिकारों को लेकर भारत का जो दबाव रहता था, चीन के आने से वह कम हो गया। मानवाधिकार में खराब रिकॉर्ड के कारण पश्चिमी देशों ने भी श्रीलंका का सहयोग नहीं किया। आज पश्चिमी देश मानवाधिकार रिकॉर्ड सुधारने की शर्त पर ही मदद कर रहे हैं। भारत अभी तक 3.5 अरब डॉलर की मदद कर चुका है। जी-7 देशों ने भी कर्ज लौटाने में मदद का वादा किया है। विश्व बैंक और आइएमएफ ने सरकारी खर्चे घटाने तथा ब्याज और टैक्स की दरें बढ़ाने की शर्त रखी है। लेकिन आइएमएफ की मदद शुरू होने में छह महीने का वक्त लग सकता है। इसलिए पूर्व वित्त मंत्री अली साबरी ने पिछले दिनों कहा कि देश को संकट से उबरने में दो साल लग सकते हैं।
एक समय श्रीलंका की अर्थव्यवस्था दक्षिण एशिया में सबसे अच्छी हालत में थी। विकास दर अच्छी थी, मानव विकास पैमाने पर उसका रिकॉर्ड बढ़िया था। लेकिन बहुसंख्यकों को खुश करने और अल्पसंख्यकों को दबाने की जो नीति अपनाई, उससे लोगों का गुस्सा बढ़ता गया। अब जब उनके सामने जीवन-मरण का प्रश्न उठा तो उनका गुस्सा फूट गया है। इसलिए भारद्वाज कहते हैं, “शांति गोटाबाया के जाने पर ही कायम होगी। स्थायी समाधान तभी निकलेगा जब वहां नए सिरे से चुनाव कराए जाएं और अल्पसंख्यकों की समस्याएं दूर की जाएं।”
जन आंदोलन का एक कारण सांसदों और मंत्रियों का विलासितापूर्ण जीवन भी है। विक्रमसिंघे ने कहा है कि उनके मंत्री वेतन नहीं लेंगे और भत्ते भी कम किए जाएंगे। अब लोग कह रहे हैं कि मंत्री मंदिरों या दूसरे पूजा स्थलों का चक्कर लगाने में समय नष्ट करने के बजाय काम पर ध्यान दें। सांसदों को संसद की कार्यवाही में भाग लेने के लिए भत्ता मिलता है, उसे भी बंद करने की मांग उठी है। आखिर इसी लिए तो उन्हें चुना गया है। अपना काम करने के लिए भत्ता क्यों? उम्मीद है कि यह संकट श्रीलंका में एक नई राजनीतिक संस्कृति को जन्म देगा और दूसरे देश भी इससे सीख लेंगे।