उनके साथ मेरा संबंध करीब 30 साल पहले शुरू हुआ। तब संडे ऑब्जर्वर के संपादक रहे विनोद ने अनिल धारकर की टीवी समीक्षाओं के विरोध में मेरा एक छोटा सा पत्र प्रकाशित किया जिसने मेरे किशोर अहं को रोमांच से भर दिया। मेरे पत्र में सजग विचारों से ज्यादा बचकानी बनावट थी। मैंने वह पत्र इलाहाबाद के अपने यूनिवर्सिटी से उतनी ही नाउम्मीदी से लिखा था, जिससे कोई फंसा हुआ आदमी किसी बोतल में अपना संदेश डालता। ऑब्जर्वर के स्टाइलिश फॉन्ट में बदल कर वह एक चमत्कारी नई संभावना की बात करने लगा।
सालों बाद इससे मुक्त होने में मदद करने के लिए विनोद फिर सामने थे। इस बार उन्होंने पायनियर के संपादक के रूप में मेरा पहला समीक्षा-निबंध प्रकाशित किया। अगले दो दशकों में मैंने उनके लिए कई सारे लेख लिखे। आदतन विनोद ने प्रिंट में मेरे शुरुआती प्रयोगों को छापने के लिए कभी आभार जताने या किसी हलकी-फुलकी सुविधा की भी आशा नहीं की। जब उन्होंने आउटलुक के 10वीं वर्षगांठ अंक में लिखने के लिए मुझसे कहा तो मैंने इस पत्रिका के बारे में काफी आलोचनात्मक रूप से लिखा। उन्होंने मेरे हर शब्द को छापा और न तो मुझसे और लेख मांगना बंद किया, न ही विरले मुलाकात होने पर अपनी शरारती मुस्कुराहट और खुशमिजाज बातों के साथ मेरा अभिवादन करना छोड़ा।
एक संपादक के रूप में उनके गुण मुख्य रूप से चौकस अनुभव और सामान्य उदारता के थे। वह शामलाल जितने विद्वतापूर्ण और व्यवस्थित नहीं थे, न ही उन कुछ संपादकों की तरह सख्त, जिनके साथ मैंने काम किया है। न ही वह महिलाओं, दलितों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ सामान्य हिंसा पर गहरे क्षोभ से अपने काम में प्रेरित होते थे। हाल के सालों में टेलीविजन कार्यक्रमों में उनकी मौजूदगी लोकप्रियता के उनके एक खराब आकलन से प्रेरित थी, एक टीवी पंडित के रूप में उनके योगदान टीआरपी मुग्ध एंकरों, तुरत-फुरत विशेषज्ञों और नकली विश्लेषकों द्वारा सार्वजनिक जीवन को भद्दा बनाने से नहीं रोक पाए। पक्के अंग्रेजीदां विनोद विदेशी लेखकों और पत्रकारों से बहुत जल्दी प्रभावित हो जाते थे।
फिर भी, नए सुझावों के लिए अहम संपादकीय सहजवृत्ति, साहित्यिक और पत्रकारिता संबंधी प्रतिभा को परखने की काबिलियत और पुराने मुहावरों व भाषा की नापसंदगी के साथ चलने वाली शैली के लिए झुकाव उनमें भरपूर था। एक ओर मजबूत इरादों वाले और दृढ विनोद अपने काम में अहं से मुक्त रहते थे। उनका दृढ मगर सच्चा विश्वास था कि ईमानदार पत्रकारिता अपना ईनाम खुद है, और इसने उन्हें उद्धारक मनोवृत्ति और बौद्धिक महत्वाकांक्षा, दोनों से बचा लिया। साथ ही इसने आउटलुक को ऐसे समय के दौरान एक आक्रामक रूप से स्वार्थी उच्च वर्ग का एक और मुखपत्र बनने से बचा लिया, जब भारत ऊपर जाता और फिर अचानक से गिरता दिख रहा था। 1991 से पहले गूंजने वाले समाजवाद के नारों से कभी झांसे में न आए विनोद नव-उदारवादियों और हिंदुत्ववादियों के यूटोपिया के वादों से भी उतने ही अप्रभावित थे। वह एक लखनवी सडक़छाप के विनम्र, भेदने वाले अविश्वास से दिल्ली, मुंबई और अहमदाबाद के अतिशयोक्तिपूर्ण दावों में छेद करते थे।
राजनीतिक ताकत से सम्मोहित (वह एक जबर्दस्त गप्पी थे) होने के बावजूद, वह व्यक्तिगत रूप से राजनीति के कई प्रलोभनों में नहीं आते थे और उनके आगे घुटने टेकने वाले पत्रकारों को तिरस्कार की नजर से देखते थे। उनमें से कई उनके साथी थे। वास्तव में विनोद उनके बीच अलग सिर्फ इसलिए नहीं दिखते थे क्योंकि वह अक्सर कारपोरेट और राजनीतिक महारथियों के साथ भिड़ जाते थे (इसलिए यह हैरत की बात नहीं है कि उनके खड़े किए हुए कई संस्थानों में से सिर्फ एक ही अपना अस्तित्व बचा पाया)। उनकी ईमानदारी 70 और 80 के दशक में अंग्रेजी पत्रकारिता के स्वर्णिम काल में, इंडिया टुडे, इंडियन एक्सप्रेस, संडे, जेंटलमैन, इम्प्रिंट, बांबे और द इलुस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया से उभरे कई दूसरे पत्रकारों के बदलते रास्तों से भी प्रमाणित होती है, जिन्होंने हाल के सालों में राजनीति, कारोबार और मनोरंजन के बीच की सीमाओं को मिटाते हुए फायदा कमाया है।
पहुंच की पत्रकारिता के ऐसे कुछ उस्ताद अगर आज पूरी तरह कमजोर नहीं, तो बेनकाब जरूर हो चुके हैं। मध्यवर्गीय भारत के पुराने लैंडमार्क ढह चुके हैं – विनोद के देहांत ने हमें इस शून्य का एहसास और गहराई से कराया है – और हम नहीं जानते कि हम किधर जा रहे हैं। एक सामूहिक दिशाभ्रम, जो शायद ही साबित हो पाता है, जब हम किसी राष्ट्रीय मुक्तिदाता के आह्वान को सुनते हैं या उसके महान सुधारों से अपने रास्तों के रोशन होने की उम्मीद करते हैं। विनोद ने संपादकीय कार्यों से आंशिक रूप से सेवानिवृत्ति लेते हुए एक युवा और अधिक भरोसेमंद पीढ़ी को उसकी जिम्मेदारियां संभालने के लिए प्रोत्साहित किया। वास्तव में सिद्धांतवादी और साहसी प्रतिभाओं से संपन्न भारत की अंग्रेजी पत्रकारिता अब अनियमित रूप से एक तरह के सुधार की ओर बढ़ रही है। हालांकि बिकाऊ और औसत लोगों की तरक्की को चुनौती देने के लिए काफी कुछ किए जाने की जरूरत है। यह कहना सुरक्षित है कि इस महत्वपूर्ण अभियान में विनोद की उपलब्धियां – हलकेपन और गंभीरता का उनका मिश्रण – आगे भी प्रेरित करता रहेगा।
पंकज मिश्रा एक लेखक और टिप्पणीकार हैं। उनकी पिछली पुस्तक थी द ग्रेट क्लेमर: एनकाउंटर्स विद चाइना एंड इट्स नेबर्स