बिस्मिलाह खान भारत की उन तारीखी शख्सियतों में हैं, जिनके बिना भारत का इतिहास अधूरा माना जाएगा। भारत की संप्रभुता, उदारता, विविधता का परिचय हैं बिस्मिल्लाह खान। उनकी शहनाई इस बात का सुबूत है कि संगीत ईश्वर की इबादत का जरिआ है। बिस्मिल्लाह खान जब तक जीवित रहे, इसी तलाश में रहे कि अल्लाह की मेहरबानी से उन्हें सच्चे सुर की प्राप्ति हो। उनकी खोज रही कि कोई गुरु, कोई फकीर मिले, जो उनके सुरों में तासीर पैदा कर दे।
बिस्मिल्लाह खान का पूरा जीवन संगीत की खिदमत करते हुए बीत गया। उन्होंने अपने जीवन का सुनहरा दौर बनारस में गंगा नदी के किनारे बिताया। बिस्मिलाह खान गंगा में स्नान करते, मस्जिद में नमाज पढ़ते और फिर बनारस के बालाजी मंदिर के प्रांगण में घंटों तक शहनाई का रियाज करते। बिस्मिल्लाह खान के पुरखे इसी देश की मिट्टी की सेवा करते हुए बीत गए। वे सभी शास्त्रीय संगीत से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए थे।
बिस्मिल्लाह खान का मन पढ़ाई लिखाई में नहीं लगता था। संगीत की रूचि उन्हें शहनाई के नजदीक लेकर गई। बिस्मिल्लाह खान को उनके मामा अली बख्श ने शहनाई की तालीम देनी शुरू की। आहिस्ता आहिस्ता बिस्मिल्लाह खान शहनाई और गायन में परांगत होते चले गए। बिस्मिल्लाह खान सुर को बहुत पवित्र मानते थे। उनका कहना था कि समाज के भेद सुर पर आकर मिट जाते हैं। सुर की संगत में सब एक हो जाते हैं। कट्टरपंथियों से बिस्मिल्लाह खान कहते कि अल्लाह की इबादत का रास्ता है संगीत। अजान संगीत है, कव्वाली संगीत है। इसलिए संगीत किसी सूरत में धर्म के विरुद्ध नहीं हो सकता।
बिस्मिल्लाह खान ने देश और विदेश में ख्याति प्राप्त की। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके कार्यक्रम हुए। उनके संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से लेकर पद्म पुरस्कारों और भारत रत्न से सम्मानित किया गया। बिस्मिल्लाह खान ने दुनिया भर में कार्यक्रम किए लेकिन उनकी आत्मा अंत तक बनारस में रही। वह कहते कि जब मैं काशी विश्वनाथ मंदिर की दीवार के पत्थरों को छूता हूं तो मुझे शिवत्व की अनुभूति होती है। मैं इस एहसास से दूर नहीं रह सकता। बिस्मिल्लाह खान कहते कि मैं दुनिया में कहीं भी जाऊं तो मुझे भारत दिखाई देता है और मैं भारत में जहां भी जाता हूं, मुझे बनारस दिखाई देता है। ऐसा प्रेम था बनारस से बिस्मिल्लाह खान को।
बिस्मिल्लाह खान ने हिन्दी सिनेमा में भी काम किया। उन्होंने फिल्म "गूंज उठी शहनाई" में संगीत दिया। लेकिन उन्हें बॉलीवुड का तौर, तरीका रास नहीं आया। फिल्मी करियर के लोग उन्हें संगीत सिखाने और समझाने की कोशिश करते दिखाई दिए। इससे बिस्मिल्लाह खान का मन उचट गया और उन्होंने फिर सिनेमाई दुनिया का रुख नहीं किया। बिस्मिल्लाह खान राष्ट्रीय धरोहर हैं। उन्होंने न जाने कितने मौकों पर लाल किले पर शहनाई की मांगलिक धुन बजाई। पण्डित नेहरू से लेकर तमाम बड़े नेताओं का स्नेह प्राप्त हुआ बिस्मिल्लाह खान को।
बिस्मिल्लाह खान जब शहनाई वादन करते तो उसमें ही लीन हो जाते। एक बार किसी शो में शहनाई वादन के दौरान बिजली चली गई। तब आयोजकों ने एक लालटेन लाकर उनके सामने धर दी। अगले एक घंटे तक बिस्मिल्लाह खान इसी रोशनी में आंख बंद कर के पूरी तन्मयता से शहनाई बजाते रहे। जब उन्होंने आंखें खोली तो बोले " लाइट तो जला लेते भाई"। यानी उस्ताद को ख्याल ही नहीं था कि वादन के दौरान बिजली चली गई थी। ऐसी एकाग्रता, ऐसा समर्पण ही आपको उस्ताद बनाता है।
बिस्मिल्लाह खान को लता मंगेशकर और बेगन अख्तर के गायन से बेहद लगाव था। बिस्मिल्लाह खान अक्सर कहते थे कि मैंने जब भी लता मंगेशकर का गाना सुने तो कोशिश की कि कुछ कमी ढूंढ़ पाऊं। मगर यह लता मंगेशकर की दिव्यता है कि वह कभी सुर से नहीं भटकीं। लता के गायन में कभी भी न सुर कम हुआ और न बेसुरा हुआ। हमेशा सटीक और सधा हुआ गाया लता ने।
बिस्मिल्लाह खान बेगन अख्तर की गजल "दीवाना बनाना है तो" के दीवाने थे। वह अक्सर इस गजल को सुनते। जब मौका मिलता तो वह बेगम अख्तर के पास पहुंच जाते और इसी गजल को सुनाने की गुजारिश करते। बिस्मिल्लाह खान कहते कि इस गजल को गाते हुए हुए जो "चीं" की आवाज होती है, वाही इस गजल का जादू छिपा है। बिस्मिल्लाह खान का कहना था कि शास्त्रीय संगीत के उसूलों के हिसाब से बेगम अख्तर की आवाज खारिज थी। मगर बेगम अख्तर की आवाज का यही दोष उनकी खूबी बना। इसी के कारण करोड़ों लोग बेगम अख्तर के मुरीद थे।
जब भारत सरकार ने बिस्मिल्लाह खान को भारत रत्न से सम्मानित करने का फैसला किया तो खुशी में पूरा बनारस शहर हर्ष और उल्लास से सराबोर हो गया। भारत रत्न मिलने पर बिस्मिल्लाह खान ने पत्रकार राजीव बजाज को दिए इंटरव्यू में कहा "भारत रत्न पाना तो गौरव की बात है, हमको बहुत फ़क्र महसूस होता है, लेकिन अगर सरकार कुछ रकम भी बाँध देती तो अच्छा रहता ,आने वाले वक़्त के लिए बच्चों को सहारा हो जाता। इसलिए कि सम्मान के नाम पर मिले काग़ज़ का टुकड़े और शॉल से घर का चूल्हा नहीं जलता है। भूख इंसान को बड़ी तकलीफ़ देती है। कलाकारों के लिए इस दिशा में भी सोचना चाहिए। यह कहकर बिस्मिल्लाह खान मुस्कुरा दिए। बिस्मिल्लाह खान ने चंद लाइनों में तमाम भारतीय कलाकारों की पीड़ा कह दी। अपनी बात कहने की हिम्मत और सहूलियत भी बड़ी तपस्या से आती है। रीढ़ की हड्डी रख पाना सबके बस की बात कहां।
बिस्मिल्लाह खान की मौत के कुछ सालों बाद उनके घर से पांच शहनाइयां चोरी हुईं। जब पुलिस ने जांच पड़ताल की तो मालूम हुआ कि इन शहनाइयों को बनारस के एक सुनार के पास उस्ताद के एक पोते ने उधार चुकाने के लिए बेच दिया था। आज बिस्मिल्लाह खान की पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते हुए आंखें नम हो जाती हैं। दिल इस अफ़सोस से भीगा जाता है कि विदेशी आक्रमणों, गुलामी के दौर, स्वाधीनता की लड़ाई के बाद भी हम अपनी धरोहरों को सहेजना नहीं सीख पाए।