यूनाइटेड नेशन्स एनवायरमेंट प्रोग्राम ने बीफ को पर्यावरणीय रूप से हानिकारक मांस बताया है। एक ग्राम बीफ को बनाने के लिए भारी उर्जा लगती है। औसतन हर हैंमबर्गर के कारण पर्यावरण में तीन किलो कार्बन का उत्सर्जन होता है। आज पृथ्वी को बचाना उपभोग से जुड़ा है और मांस का उत्पादन दुर्भाग्यवश बेहद ज्यादा ऊर्जा खपत वाला काम है।
संयुक्त राष्ट्र की रोम स्थित संस्था खाद्य एवं कृषि संगठन यानी एफएओ ने कहा कि आम तौर पर मांस खाना और विशेष तौर पर बीफ खाना वैश्विक पर्यावरण के लिए सबसे ज्यादा प्रतिकूल हैं। यह बात हैरान करने वाली हो सकती है लेकिन वैश्विक तौर पर बीफ उत्पादन जलवायु परिवर्तन के प्रमुख दोषियों में से एक है। कुछ का तो यह भी कहना है कि मांस उत्पादन उद्योग में बीफ शैतान है। हालांकि, यह बात किसी भी समाज में उचित नहीं ठहराई जा सकती कि बीफ खाने के संदेह के आधार पर किसी व्यक्ति की पीट-पीटकर हत्या कर दी जाए।
विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि बीफ छोड़ने से पृथ्वी पर वैश्विक कार्बन फुटप्रिंट कम होगा। यह कमी कारों का इस्तेमाल छोड़ने से कार्बन अंश में आने वाली कमी से कहीं ज्यादा होगी। इसलिए अगर अांकड़ों पर गौर किया जाए तो खतरनाक गैसों के उत्सर्जन के जरिये ग्लोबल वार्मिंग में जितना योगदान ट्रांसपोर्ट सेक्टर का है, उससे अधिक मांस उत्पाद का है। एफएओ के अनुसार, वैश्विक स्तर पर ग्रीन हाउस गैसों के 18 फीसदी उत्सर्जन के लिए पशुधन क्षेत्र जिम्मेदार है जबकि इसमें ट्रांसपोर्ट सेक्टर की हिस्सेदारी 15 फीसदी है। यही वजह है कि पर्यावरण प्रेमी मीट उद्योग और मांसाहार के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं।
भारत में प्रति व्यक्ति मांस खपत काफी कम
कृषि मंत्रालय के वर्ष 2012 के आकलन के अनुसार, भारत में 51.20 करोड़ पशुधन है, जिनमें से गाय और भैंसों की संख्या कुल मिलाकर 11.10 करोड़ है। भारत में अधिकतर जानवरों का पालन वध के लिए नहीं किया जाता, इनका इस्तेमाल दूध निकालने और खेतों की जुताई में किया जाता है। यूएनईपी का आकलन है कि वर्ष 2012 में विश्वभर में 1.43 अरब मवेशी थे। वर्ष 2012 में यूएनईपी के अध्ययन मांस उत्पादन के कारण बढ़ता ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में पाया गया कि औसतन भारतीय एक दिन में प्रति व्यक्ति 12 ग्राम मांस का उपभोग करते हैं, जो कि वैश्विक औसत 115 ग्राम से लगभग 10 गुना कम है। वहीं अमेरिका में एक दिन में प्रति व्यक्ति 322 ग्राम मांस खाया जाता है। चीन में यह 160 ग्राम है। इस प्रकार ग्लोबल वाॅर्मिंग में किसी अमेरिकी व्यक्ति का योगदान किसी मांसाहारी भारतीय की तुलना में 25 गुना ज्यादा है।
ग्लोबम वार्मिंग में अधिक बीफ की हिस्सेदारी
अमेरिका की प्रतिष्ठित येल यूनिवर्सिटी द्वारा वर्ष 2014 में प्रकाशित अध्ययन में कहा गया कि बीफ उत्पादन के लिए अन्य पशुधन की तुलना में औसतन 28 गुना ज्यादा जमीन की जरूरत होती है और ग्लोबल वाॅर्मिंग में इसकी हिस्सेदारी 11 गुना ज्यादा है। बीफ उत्पादन जल संरक्षण के लिए भी बुरा है क्योंकि बीफ के लिए पशु को पालने में गेहूं या चावल जैसी फसलें उगाने की तुलना में लगभग 10 गुना ज्यादा पानी लगता है। मवेशियों के डकार, मलद्वार के रास्ते पेट से निकलने वाली गैस के जरिए मिथेन नामक जलवायु परिवर्तनकारी गैस निकलती है। जुगाली करने वाले इन पशुओं के पेट में भोजन पचाने वाले बैक्टीरिया के जरिए यह गैस पैदा होती है। मिथेन ग्लोबल वाॅर्मिंग के मामले में कार्बन डाइ-आॅक्साइड की तुलना में 21 गुना प्रभावी है।
एक स्वीडिश अध्ययन से आंकड़ों का इस्तेमाल करते हुए यूएनईपी ने कहा, ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के मामले में घर में एक किलो घरेलू बीफ खाना दरअसल 160 किलोमीटर तक किसी मोटरवाहन का इस्तेमाल करने के बराबर है। इसका अर्थ यह है कि दिल्ली से आगरा जाने वाली कार से उतना ही जलवायु परिवर्तन होगा, जितना कि एक किलो बीफ खाने से होगा। इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं है कि बीफ को पर्यावरण के लिहाज से बेहद प्रतिकूल माना जाता है। एफएओ का आकलन है कि वर्ष 2050 तक मांस का वैश्विक उपभोग बढ़कर 46 करोड़ टन हो जाएगा। वहीं वैश्विक पर्यावरणीय निगरानी संस्था यूएनईपी ने सिफारिश की है कि लोग जलवायु के लिहाज से कम नुकसानदायक मांस अपनाएं और इसके साथ ही संस्था ने जोर दिया है कि स्वस्थ भोजन न सिर्फ एक व्यक्ति के लिए बल्कि पूरी पृथ्वी के लिए महत्वपूर्ण है।
(जाने-माने विज्ञान लेखक पल्लव बाग्ला द्वारा पीटीआई भाषा के लिए लिखा गया साप्ताहिक स्तंभ )