‘बाबा नागार्जुन’ प्रगतिवादी विचारधारा के कवि-लेखक थे। उन्होंने यायावरी प्रवृत्ति के फलस्वरुप ‘यात्री’ उपनाम रखा। मैथिली भाषा में ‘यात्री’ उपनाम से और हिंदी में ‘नागार्जुन’ उपनाम से साहित्य-सृजन किया। उनके पूर्व, मैथिली के लेखकों-कवियों के समक्ष मैथिली-भाषा-आंदोलन की विवशता रही होगी लेकिन वे आत्ममुग्ध ढंग से, ‘साइकिल के हैंडल’ में चूड़ा-सत्तू की पोटली बांधकर, मिथिला के गांव-गांव जाकर प्रचार-प्रसार करने में जीवनदान करते थे। वे मानते थे कि मातृभाषा की सेवा के बदले दाम कैसे मांगा जाए, इसीलिए बदले में कुछ प्राप्ति की आशा नहीं रखते थे। उनका मैथिली-हिंदी का भाषिक विचार, वैसा नहीं था जैसा दोनों भाषाओं के इतिहास-दोष या राष्ट्रभाषा बनाम मातृभाषा की द्वन्द्वात्मकता में देखने-मानने का चलन था।
30 जून, 1911 को ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा का पूर्ण चंद्र, हिंदी-मैथिली काव्य जगत में अपनी फ़क़ीरी, बेबाक़ी, फक्कड़पन से अनोखी पहचान बनाने वाले कवि के उदय का साक्षी था। कबीर का प्रतिनिधित्व करने वाले ‘वैद्यनाथ मिश्र’ महान कवि ‘बाबा नागार्जुन’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। मधुबनी जिले के ‘सतलखा’ गाँव की भूमि नागार्जुन के जन्म लेने से धन्य हुई। प्राचीन परंपरागत पद्धति से संस्कृत की शिक्षा प्राप्त करके नागार्जुन ने हिंदी-संस्कृत, मैथिली तथा बंगाली भाषाओं में कविताएं लिखीं। नागार्जुन की मातृभाषा मैथिली थी अतः उन्होंने प्रमुख रचनाएं मैथिली के अलावा हिंदी भाषा में भी लिखीं। उपलब्ध साहित्य में उनके समस्त लेखन का अनुपात मैथिली में कम और हिंदी में अधिक है जो विस्मयकारी है। हिंदी सहज-स्वाभाविक, रचना-भाषा के तौर पर उनके काव्यकर्म का माध्यम बनी इसीलिए हिंदी में उनकी सर्वाधिक काव्य पुस्तकें उपलब्ध हैं। संभावना व्यक्त की जाती है कि नागार्जुन की कुछ कविताएं यदा-कदा प्रकाशित हुई हों, पर उन्होंने स्वयं कहा था कि उनकी 40 राजनीतिक कविताओं का चिरप्रतीक्षित संग्रह ‘विशाखा’ कभी उपलब्ध नहीं हुआ, इसीलिए तीसरा संग्रह अब भी प्रतीक्षित है। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘अकाल और उसके बाद’ में अपनी प्रभावान्विति में अभिव्यक्त उनकी करुणा साधारण दुर्भिक्ष के दर्द से बहुत आगे की लगती है। ‘फटेहाली’ कविता बौद्धिक प्रदर्शन है जिसका पथ प्रशस्त करने का श्रेय ‘यात्री’ को है।
मार्क्सवाद से गहरे प्रभावित नागार्जुन, मार्क्सवाद का रूप-रंग देखकर खिन्न भी रहते थे। वे लोगों से पूछते थे कि वे सभी ‘मार्क्स, चे ग्वेरा या चारु मजूमदार’ में से किसके मार्क्सवाद का अनुसरण करते थे। उन्होंने जयप्रकाश नारायण का समर्थन किया, लेकिन जनता पार्टी विफल होने पर उनको संबोधित करके लिखा-
‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने, भोगा हमने क्रांति विलास
अब भी खत्म नहीं होगा क्या, पूर्णक्रांति का भ्रांति विलास’
नागार्जुन का क्रांतिकारिता में पूर्ण विश्वास था जिसके चलते उन्होंने जयप्रकाश की अहिंसक क्रांति और नक्सलियों की सशक्त क्रांति का भरपूर समर्थन करते हुए लिखा-
‘काम नहीं है, दाम नहीं है, तरुणों को उठाने दो बंदूक, फिर करवा लेना आत्मसमर्पण’
नागार्जुन जनवादी होने के नाते जनता के हित में बयान देते थे। किसी एक विचारधारा पर स्थिर नहीं रहने के कारण उनकी खूब आलोचना भी होती थी। पर उनका मानना था कि किसी विशेष विचारधारा के समर्थन की बजाए वे गरीबों, मज़दूरों, किसानों के हितार्थ कार्य करने के लिए पैदा हुए थे। उन्होंने गरीबों को जाति या वर्ग में विभाजित करने की जगह केवल गरीब माना। उन्होंने भीषण आर्थिक अभावों के बावजूद विशद लेखन किया। उनके गीतों में लयात्मक रूप से व्यक्त हुई काव्य की पीड़ा, अन्यत्र किसी रचनाकार के लेखन में नहीं दिखती है। उन्होंने काव्य के अलावा गद्य भी लिखा। उनका एक मैथिली उपन्यास, कई हिंदी उपन्यास तथा संस्कृत से हिंदी में अनूदित ग्रंथ प्रकाशित हुए। नागार्जुन ‘एक दर्जन काव्य-संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिली कविता संग्रह तथा एक संस्कृत काव्य संग्रह ‘धर्मलोक शतकम्’ थाती के रूप में सौंप गए हैं। नागार्जुन के बारे में वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने लिखा था कि, ‘नागार्जुन जैसा प्रयोगधर्मा कवि कम ही देखने को मिलता है, चाहे वे प्रयोग लय के हों, छंद के हों या विषयवस्तु के हों।’
नागार्जुन की प्रकाशित रचनाओं का पहला वर्ग उपन्यासों का है। उन्होंने औपन्यासिक कृतियों में सामाजिक समस्याओं को सधे अंदाज़ में लेखनीबद्ध किया था। उनकी कथा-सृष्टि का चौड़ा फलक जनपदीय संस्कृति और लोक जीवन है। उनकी रचनाओं में आंचलिक परिवेश वाले ग्रामीण जीवन के सुख-दु:ख की कथा है, मार्क्सवादी सिद्धांतों की झलक के साथ सामाजिक आंदोलनों का समर्थन है और समाज में व्याप्त शोषण एवं धार्मिक-सामाजिक कुरीतियों पर कुठाराघात है। उनकी रचना ‘बाबा बटेसरनाथ’ इन संदर्भों की उल्लेखनीय कृति है। उसमें ज़मींदारी के उन्मूलन के बाद की सामाजिक समस्याएं एवं ग्रामीण परिस्थितियां अंकित हैं और निदान स्वरूप, समाजवादी संगठन द्वारा व्यापक संघर्ष की परिकल्पना है। कथा के प्रस्तुतीकरण के लिए व्यवहृत किये जाने वाले अभिनव, रोचक शिल्प की दृष्टि से उनका ये उपन्यास महत्वपूर्ण है।
नागार्जुन की प्रकाशित रचनाओं का दूसरा वर्ग कविताओं का है। ‘युगधारा’ उनका प्रारंभिक काव्य संकलन था। उनकी कविताओं का एक संग्रह ‘सतरंगे पंखोंवाली’ प्रकाशित हुआ था। नागार्जुन कवि के रूप में प्रगतिशील और प्रयोगशील थे। उनकी कई कविताएं प्रगति और प्रयोग के मणिकांचन संयोग के कारण सहज भाव सौंदर्य से दीप्त हैं। आधुनिक हिंदी कविता में नागार्जुन की कुछ रचनाओं की शिष्ट-गंभीर तथा सूक्ष्म-चुटीले व्यंग्य की दृष्टि से अलग पहचान है। कतिपय रचनाओं में सरस, मार्मिक प्रकृति चित्रण है। नागार्जुन शैलीगत विशेषता के अंतर्गत लोकमुख की वाणी बोलते थे अतः उनकी लोक भाषा में लिखी रचनाएं, तद्भव तथा ग्रामीण शब्दों के प्रयोग के कारण मिठास लिए हैं। संस्कृत के क्लिष्ट-तत्सम शब्दों का प्रयोग कुछ कविताओं में अधिक है किंतु अधिकतर कविताओं, उपन्यासों की भाषा सरल है।
नागार्जुन की कविताओं में स्वतंत्रता के पूर्व से जीवन के अंतिम क्षण तक जनता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने-भिड़ने, सीखने-सिखाने की हठ परिलक्षित है। जनकवि के रूप में वे सत्ता के विरुद्ध खड़े हुए, समकालीन आलोचकों की कुटिल भ्रू-भंगिमा से मोर्चा लिया और उन्हें साहित्य जगत से बर्खास्त किया गया। पर उन्हें जनता का अगाध स्नेह भी मिला। दिल्ली की बसों के चिढ़े-खीझे ड्राइवर हों या बिहार के धधकते खेत-खलिहानों के खेतिहर-मजूर, सबने उन्हें अपना मानकर सर-आँखों पर बिठाया। नागार्जुन ने कभी अपने ईमान का सौदा नहीं किया, स्वयं से और जनता से छल-कपट नहीं किया और लोकप्रियता प्राप्ति के लिए समझौते नहीं किए। ‘जन-आंदोलनों का इतिहास’ लिखने वालों को नागार्जुन का काव्य-संसार देखना चाहिए। उनकी कविता और जनांदोलन का गहरा द्वंद्वात्मक संबंध उल्लेखनीय है। उनकी रचनाओं में ‘तेभागा-तेलंगाना’ से लेकर जयप्रकाश की संपूर्ण क्रांति, भगतसिंह से लेकर भोजपुर तक और इतिहास की मुख्यधारा द्वारा विस्मृत किया जाने वाला स्थानीय प्रतिरोध, सब दर्ज है। आंदोलनों की कमी-कमज़ोरी और उनका टूटना-बिखरना अपनी संपूर्णता में मौजूद है। जे.पी. आंदोलन पर लिखी उनकी कविताएं - ‘क्रांति सुगबुगाई है’ और ‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने’ इसकी गवाह हैं। कवि आंदोलनों पर बेशक प्रभाव डालते हैं लेकिन आंदोलन का प्रभाव उनपर भी पड़ता है। खेती-किसानी के प्रतिनिधि कवि केदारनाथ, त्रिलोचन और नागार्जुन निरंतर कविताएं लिख रहे थे पर नक्सल आंदोलन द्वारा भूमि का सवाल राजनीति के केंद्र में स्थापित करने पर ही सुधीजनों का ध्यान उनकी कविताओं पर गया। नागार्जुन द्वारा लिखित भारत का संक्षिप्ततम जन-इतिहास काबिले-गौर है -
‘पांच पूत भारतमाता के, दुश्मन था खूंखार,
गोली खाकर एक मर गया, बाकी बच गए चार,
चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीण,
देश निकाला मिला एक को, बाकी बच गए तीन,
तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गए वो,
अलग हो गया उधर एक, अब बाकी बच गए दो,
दो बेटे भारतमाता के, छोड़ पुरानी टेक,
चिपक गया एक गद्दी से, बाकी बच गया एक,
एक पूत भारतमाता का, कंधे पर था झंडा,
पुलिस पकड़ कर जेल ले गई, बाकी बच गया अंडा !
उपर्युक्त कविता बचपन की गिनतियों के सम्मोहक संसार से जोड़ती हुई, कौतूहल और जिज्ञासा के आदिम मनोभाव से खेलती और उसको बतौर अपनी ज़मीन प्रयोग करती है। नागार्जुन में बचपन की लय और तुक में जन-इतिहास भरने की दिलचस्प ललक थी। उन्होंने इस लय में मौजूद कौतूहल और जिज्ञासा का उपयोग करके उसे आधुनिक इतिहास की समीक्षा के लिए बरतते हुए, ‘भारतमाता के पांच बलिदानी’ कविता को लड़ाकू सपूतों के संघर्ष से शुरू किया, जिसमें पहले दोनों को क्रमशः हत्या और देश निकाला मिलता है। भगतसिंह, आज़ाद जैसे भारतमाता के ढेरों बेटों को खूंखार शत्रु के विरुद्ध लड़ने के लिए फाँसी और गोली मिली। बाकी बचे लोगों को उस शहादत का आधार बना मिला पर उन्होंने क्या किया? नागार्जुन ने देश के विभाजन पर सीधे तौर पर कुछ नहीं लिखा। पर उपर्युक्त कविता की आंतरिक संगति को समझते हुए, वो बेटा जो अलग हो गया, उसपर बार-बार ध्यान अटकता है। नागार्जुन ने स्वतंत्रता हेतु संघर्षरत पुरानी पीढ़ी को इस कविता में गौरवांवित होकर स्मरण किया है।
‘नागार्जुन रचनावली’ सात बृहद खंडों में प्रकाशित है जिसका एक खंड ‘यात्री समग्र’, मैथिली समेत संस्कृत और बांग्ला भाषाओं में लिखा है। ‘यात्री’ की मैथिली कविताओं की प्रकाशित दोनों पुस्तकें ‘चित्रा’ और ‘पत्रहीन नग्न गाछ’, उनकी मैथिली कविताओं के संग्रह हैं। नागार्जुन अपनी ऐतिहासिक मैथिली रचना ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ के लिए 1969 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किए गए थे। 1994 में साहित्य अकादमी ने उन्हें ‘साहित्य अकादमी फेलो’ के रूप में नामांकित करके सम्मानित किया था। नागार्जुन ने अपनी रचनाओं ‘युगधारा’, ‘खिचड़ी’, ‘विप्लव देखा हमने’, ‘पत्रहीन नग्न गाछ’, ‘प्यासी पथराई आँखें’, ‘इस गुब्बारे की छाया में’, ‘सतरंगे पंखोंवाली’, ‘मैं मिलिट्री का बूढा़ घोड़ा’ से आम जनता में चेतना फैलाने का कार्य किया। जनकवि होने के नाते वे अपनी कविताओं में आम लोगों का दर्द लिखते थे जो उनके साहित्य पर विमर्श का सारांश था। विचारक हॉब्सबाम ने उनकी सदी को अतिवादों की सदी कहते हुए कहा था कि ‘नागार्जुन का व्यक्तित्व बीसवीं शताब्दी की तमाम महत्वपूर्ण घटनाओं से निर्मित हुआ था। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से शोषणमुक्त और समतामूलक समाज के निर्माण के लिए प्रयासरत थे तथा अपनी विचारधारा से यथार्थ जीवन के अन्तर्विरोधों को समझने का प्रयास करते थे।’
‘नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल एवं फैज़’ सभी 1911 में पैदा हुए थे इसीलिए वो वर्ष महत्वपूर्ण माना गया। उनके संघर्षों, क्रियाकलापों और उपलब्धियों के कारण वो सदी महत्वपूर्ण साबित हुई। उन सभी ने जन्म देने वाली माँ, गरीबों और मज़दूरों के बारे में लिखा। उन्होंने लोकभाषा के विराट उत्सव में प्रवेश करके काव्य भाषा अर्जित की। उनकी कविताएं लोकभाषा के संपर्क में रहने के कारण दूसरे रचनाकारों से सर्वथा अलग हैं। सुप्रसिद्ध कवि आलोक धन्वा ने नागार्जुन की रचनाओं के संदर्भ में कहा है कि ‘नागार्जुन ने कविताओं के माध्यम से कई लड़ाइयां लड़ीं, इसीलिए उनकी कविताओं में स्वतंत्रता के संघर्ष की अंतर्वस्तु सम्मिलित है। नागार्जुन कवि के रूप में ही महत्वपूर्ण नहीं हैं अपितु नए भारत के निर्माता के रूप में भी दिखाई देते हैं।’ हिंदी काव्य-मंचों पर सत्यवादिता भरी और लाग-लपेट रहित कविताएं सुनाने के बाद 5 नवंबर, 1998 को बिहार के दरभंगा जिले के ख्वाजा सराय में फकीरी प्रवृत्ति के अद्भुत, विलक्षण, विद्रोही रचनाकार नागार्जुन ने इस नश्वर जगत से सदा के लिए विदा ले ली।