आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए मधु कांकरिया की कहानी। समाज के चेहरे का एक और रंग दिखाती यह कहानी बताती है कि नाउम्मीदी में हमेशा खुद से वंचित को देखो। क्योंकि वही व्यक्ति होगा, जो तमाम परेशानियों में उम्मीद की लौ जला कर हौसला देगा।
उम्मीद और नाउम्मीदी की बूंदाबांदी के बीच खड़ी मैं। कभी नाउम्मीदी अपने डैने फैलाती तो कभी उम्मीद। तीन महीने बाद मुझे नौकरी से निकाला तो नहीं गया पर चेतावनी के साथ फिर अगले तीन महीने की मोहलत दे दी गई। मैं जी जान से प्रोग्रामिंग कोड और लॉजिक सीखने में लगी थी। उन्हीं दिनों मैंने कहीं पढ़ा था की मैडम क्यूरी ने अस्तबल की सुविधाहीन लैब में रेडियम का आविष्कार किया था, बस यही दृष्टांत मेरी प्रेरणा बन गया। ऑफिस की असुविधाओं और अपमान की कील–कसकों पर ध्यान अब कम जाता। कई बार रात को नींद उचट जाती तो मैं कैलकुलेटर लेकर बैठ जाती और अपनी प्रोग्रामिंग चेक करती। ऐसी ही एक रात मैं प्रोग्राम लिखने में मशगूल थी कि भोर के सन्नाटे में छन्न सी बजी घंटी, मैं थोड़ी चौंकी, कौआ बोलने के पहले ही यह कौन बोल गया। घडी पर नजर गई चार बज रहे थे। इतनी सुबह कौन हो सकता है? दरवाजा खोला तो किसी भटकती हुई आत्मा की तरह सामने चौड़े चकले सा चेहरा लिए गठीले बदन का ठिगना सा लालबहादुर। सोया-सोया, जगा सा। जमाने भर के अभिशाप से डसा दागदार चेहरा। आंख में बाहर तक निकला कीचड़ और खरपतवार की तरह बिखरे सर के खिचड़ी बाल।
क्या है?
अपने खाकी रंग के हाफ पैंट को ऊपर खींचते, चांदी ठुके काले पीले-दांत निपोरते हुए अपनी पहाड़ी भिंडी सी मोटी-मोटी अंगुलियों वाली हथेली को आगे बढ़ाते हुए उसने कहा, माचिस!
गैस लाइटर के युग में माचिस मिले भी, तो कहां। एकाएक ध्यान आया, अम्मा के मंदिर में मिल जाएगी। अम्मा माचिस से ही दीपक जलाती है।
मैं माचिस खोजने अम्मा के मंदिर की और बढ़ने लगी कि सामने से मिचमिचाती आंखे लिए अम्मा थीं, कौन है, कौन है, इतनी रात?
लालबहादुर है, उसे माचिस चाहिए।
अम्मा बड़बड़ाने लगी, नंगा बूचा सबसे ऊंचा! हरामजादे को कितनी बार मना किया है, सुबह-सुबह न आया करे। लेकिन उसको किसकी क्या परवाह! जब भी सुबह सुबह मुंह देख लेती हूं उसका, सारा दिन मनहूस बीतता है।
ध्यान से देखती हूं उसके चेहरे की ओर, वो क्या है जो इसे बनाता है मनहूस। पलस्तर उखड़ी दीवार सी एक भोली दयनीय आकृति! एक श्रमदेवता! सुबह चार बजे से देर रात तक अनवरत काम करता हुआ, जैसे उसका जन्म ही काम और सिर्फ काम करने के लिए हुआ हो। जिसकी मनहूसियत की कहानी चालीस साल पहले शुरू हुई थी। वह नेपाल के किसी बहुत ही छोटे पहाड़ी अंचल का था। करीब चालीस साल पहले जानलेवा भुखमरी और गरीबी से बचने के लिए उसके पिता ने अपने सबसे बड़े पुत्र, सोलह वर्षीय लालबहादुर को अपने गांव के किसी परिचित रामश्रेष्ठ के साथ कोलकाता में नौकरी के लिए भेजा था। अंगूठा छाप लालबहादुर को रामश्रेष्ठ हमारे पड़ोसी यानी सेठ जमनालाल जी के यहां घर का काम करने के लिए निश्चित पगार पर रखवा गया था। उस समय लालबहादुर की मसें भी नहीं भीगी थीं। सेठ जमनालाल जी की पत्नी हर दूसरे साल एक पुत्र रत्न को जन्म दे रही थीं। अब जब खुद भगवान आगे बढ़कर पुत्र रत्न की बारिश करें तो उसे कोई रोके कैसे। देखते-देखते वे चार पुत्रों के पिता बन गए और लालबहादुर उनकी मां बन उनके जीवन का शकुन बन गया। उन्हें बच्चों की चिल्लपों से मुक्ति मिल गई।
साल डेढ़ साल तक रामश्रेष्ठ सेठ जमनालाल जी के पास हर महीने आता और उनसे उसकी पगार ले लालबहादुर के घर भेज देता था। फिर एकाएक उसका आना बंद हो गया। कोई कहता रात पहाड़ से नीचे उतर आए भेड़िए ने सोते हुए उस पर हमला कर उसे मार डाला। कोई कहता सोते हुए उसके कान में जंगली कीड़ा घुस गया जो जानलेवा हो गया। बहरहाल महीने दो महीने… छह महीने...साल ...दो साल। शुरू-शुरू में तो जमनालाल जी खुश हुए कि महंगाई के जमाने में बुद्धू लालबहादुर को अब उनके यहां से कोई नहीं हटा सकेगा लेकिन जब देखते-देखते अढ़ाई तीन-साल गुजर गए और लालबहादुर को कई बार उदास, कई बार रोते और कई बार अनमना देखा तब जाकर उनकी ऊंघ उड़ी। इधर-उधर थोडा बहुत पता लगाया, तो रामश्रेष्ठ की मौत की कई कहानियां सामने आईं। रामश्रेष्ठ का पता कहीं भी लिखा हुआ नहीं था। लालबहादुर को रामश्रेष्ठ अपने गांव से लाया था इसलिए सुविधापूर्वक मन को समझा लिया जमनालाल जी ने कि जिम्मेदारी उनकी नहीं रामश्रेष्ठ की बनती थी। लालबहादुर से पूछा, क्या है तेरे गांव का नाम, तो सिवाय सर खुजलाने के वह भी कुछ नहीं कर पाया।
तब से उदास धुन की तरह जिंदगी के बहुमूल्य वर्ष इसी परिवार की सेवा-चाकरी में निकल गए लालबहादुर के। जमनालाल जी की पत्नी हर दूसरे तीसरे साल नई संतान को जन्म देती और पुरानी को लालबहादुर के हवाले कर देती। गू-मूत से लेकर कंधे पर बैठाकर हर शाम उसे घुमाना और फिर नहला धुलाकर राजा बाबा बनाना... सब कुछ इतनी तल्लीनता से करता लालबहादुर कि बच्चे उसे छोड़ न जमनालाल जी के पास फटकते न उनकी पत्नी के पास। जाने कितने पहाड़ी करतब थे उसके पास बच्चों को बहलाने के। कभी गिलहरी की तरह आंगन के बाहर बने नीम के पेड़ पर चढ़ जाता तो कभी कपड़े का चूहा बनाकर, कभी मुंह से विचित्र-विचित्र आवाज निकाल बच्चों का दिल बहलाता तो कभी जिंदा चूहा और तिलचट्टा पकड़ कर उन्हें डरा देता।
बच्चे बड़े होते गए तो उसका काम भी बड़ा होता गया। पठार से आया लालबहादुर पूरा पठार था। गजब का मेहनती। एक काम खत्म नहीं होता कि दूसरा सर पर सवार हो जाता। घर के बर्तन–भांडे धोना, कपडे फींचना, झाड़ू–पोंछा लगाना, 15-15 किलो गेंहू पीपे में भरकर ले जाना और पिसवा कर लाना, सिलबट्टे पर चटनी बाटना...। सारे भारी भरकम काम उसके जिम्मे। मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन!
ज्यों-ज्यों जीवन की संध्या नजदीक आती जा रही है, लाल बहादुर के प्रति सहृदय होते जा रहे हैं जमनालाल जी। ईश्वरीय डर और गहन अपराधबोध के अलावा जब-जब दमे की बीमारी बढ़ जाती, इंद्रिया काम करने से जबाब दे देतीं, कुत्ते की तरह हांफने लगते, सहायता के लिए आवाज देने पर भी हांफते-डोलते लालबहादुर के सिवाय किसी को भी अपने सामने नहीं पाते तब अपने जवानी के दिनों की स्मृतियां चित्त में ठिठक जातीं, भीतर से आह निकलती इसी नाशुक्रे परिवार के लिए किया इतना अपराध! जिन बेटों के सुख के लिए किया इतना अधर्म आज उन्हें ही मेरे लिए फुर्सत नहीं और जिसे हमेशा दुत्कारा वह आज भी मेरे साथ है। हे देवा! काश यह अहसास समय रहते, ताकत रहते हो जाता। पर अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत! ऊफ, अंजुली के जल सा यौवन बह गया और रह गया जान लेवा पछतावा।
इन दिनों अक्सर अपने आप में ही बडबडाने लगते हैं, जाने किस जन्म का कर्ज उतार रहा है बेचारा। अपना घर बार छोड़ पड़ा है यहां। सिर्फ दो मुट्ठी अन्न के बदले सारे घर की चाकरी कर रहा है, फिर भी लोग इससे दुर्व्यवहार करने से बाज नहीं आते। कम से कम खाना तो उसे आदमियों सा दिया करें। अरे ऊपरवाले से तो डरें।
जब-जब लालबहादुर पर बेइंतहा जुल्म होते देखते, दो दुखी मन उलझ कर एक हो जाते। एक बार लालबहादुर को अपनी निक्कमी बहुएं के अन्तःवस्त्र धोते देखा तो गुस्से में चाय उठा कर पटक दी। एक बार अपने जवान बेटों को उससे तेल मालिश करवाते देखा तो बड़बड़ाने लगे, किसकी होनी चाहिए मालिश और किसकी हो रही है। बेटे सुनते और मुंह दबा कर हंस पड़ते, कानाफूसी करते, बाबूजी सठिया गए हैं। एक बार सुबह ही सुबह देखा, लाल बहादुर को फूट-फूट कर रोते हुए, जंगली कैंडे सा लालबहादुर कभी नहीं रोया था। फिर क्या हुआ? उनके पोते ने बताया, पापा के शर्ट पर दाग रह गए थे, इस कारण पापा ने उसे थप्पड़ लगा दिया था। जार-जार रोते लाल बहादुर को देख उस दिन कलेजे में वो हूक उठी कि प्रतिवाद में पूरे दिन खाना भी नहीं खाया। बेटा मनाने आया तो सिर्फ इतना ही कहा, तुम्हारा सारा बचपन लालबहादुर के कंधों पर बीता है, किसी जमाने में बेचारा सारी-सारी शाम तुम्हें और तुम्हारे छोटे भाइयों को कंधे पर बैठाकर दुर्गापूजा, कालीपूजा दिखाया करता था। आज उसके साथ यह सलूक? उसी को तुमने थप्पड़ लगा दिया? अरे उस बेचारे का तो अपना न दुख था, न सुख। वह तो परिवार के सुख–दुख के साथ ही बंधा हुआ था। बाप सामान उम्र के आदमी को जिसने तुम्हारी बेटे की तरह देखभाल की उसे ही थप्पड़! तुम्हारा खाना पाप है। उफ गलती मेरी ही थी मैंने ही कभी दिल से नहीं चाहा कि वह हमारी चाकरी छोड़ अपने घर जाए। ओह! इस बेचारे को इसके परिवार और पत्नी (रामश्रेष्ठ ने ही बताया था कि उसकी पत्नी भी थी जिससे उसकी शादी बचपन में ही हो गई थी) से दूर रखा। मैंने जो अक्षम्य अपराध किया है, जाने कितने जन्मों तक चुकाना पड़ेगा मुझे इसका कर्ज। काश यह अहसास समय रहते, ताकत रहते हो जाता। बोलते-बोलते वे तेज हवा में हिलते पत्ते से कांप उठे।
जमनालाल जी के प्रतिवाद स्वरूप कुछ दिन कोई कुछ नहीं कहता लालबहादुर को, पर थोड़े दिन बीतते न बीतते फिर वही घोड़ी वही मैदान! सारे अपमान, उपेक्षा, अवहेलना, कटु वचन। सब फिर जिंदा हो जाते।
एक बार जमनालाल जी ने उसे भारी-भरकम चद्दर फींचते हुए कुत्ते की तरह हांफते देखा, तो आत्मा कलप उठी उनकी। कांपती–थर्राती आवाज में बिफर पड़े वे, देखो कैसे हांफ रहा है, कुछ तो शर्म करो, सारी जिंदगी मुफ्त में चाकरी की है इसने इस परिवार की। अब इसका शरीर लाल बत्ती दिखा रहा है, अब इसे दो गर्म रोटी बिना मेहनत-मजूरी के खाने दो। प्रतिवाद में उन्होंने भी खाना छोड़ दिया और तभी खाया जब मंदिर में ले जाकर पत्नी और बच्चों को शपथ दिलाई कि वे लालबहादुर से कोई काम नहीं लेंगे।
दो दिन तक घरवालों ने उसे कोई भी काम नहीं करने दिया। वह कुछ करता तो भी घरवाले उसके हाथ से काम छीन लेते। वह कपड़े धोने जाता तो उसके हाथ से साबुन छीन लेते, पोंछा लगाने जाता तो बहू उसके हाथ से साफी छीन लेती, झाडू छिपा देती और कहती, तुम आराम करो।
तीसरे दिन टहनी की तरह टूट गया लाल बहादुर और अवसाद के मानसिक रोगियों की तरह फूट-फूट कर रोने लगा। जाने कैसा तो असुरक्षा बोध भरा हुआ था उसके भीतर कि कर्म उसकी स्वेच्छा नहीं वरन उसके अस्तित्व का आधार ही बन गया था। उसे उदासी में डूबा देख तीसरे दिन सिर्फ आजमाने के लिए जमनालाल जी ने ही उसे बर्तन धोने के लिए कहा तो वो रोना-धोना छोड़ फुर्ती से अपनी स्वभाविक लय-ताल में बर्तन धोने लगा।
माथे पर हाथ दे मारा जमनालाल जी ने। जिसने एक मिनट के लिए भी नहीं जाना कि नौकर न रहकर जीना कैसा होता है, वह चाकरी किए बगैर रोएगा नहीं तो क्या करेगा। ऊफ काम करा-कराकर मैंने इसे आदमी रहने ही कहां दिया जो आदमी की तरह आराम करने की सोचे वह। मैंने जिंदा तो रखा इसे पर जिंदगी से बाहर कर डाला। बैल बना डाला इसे। अब यही हो गई इसकी किस्मत! बैल जब तक घास खाएगा, हल में जोता जाएगा।
फिर बजी घंटी! माचिस! वह फिर गिडगिडाया।
अपने भीतर से बाहर आई मैं। उफ! माचिस खोजते-खोजते कहां पंहुच गई मैं भी। मैंने माचिस उसे पकड़ाई। उसके चेहरे का तनाव ढीला पड़ा। मिचमिची आंखें चमकी। चांदी ठुके काले-पीले दांतों की बत्तीसी दिखाते हुए माचिस को झपट वह फिर यह जा वह जा।
मधु कांकरिया
प्रतिष्ठित लेखिका, कथाकार तथा उपन्यासकार। वे अपनी रचनाओं में विचार और संवेदना का बहुत सुंदर संतुलन साधती हैं। हमेशा नए विषयों पर लिखती हैं। चिड़िया ऐसे मरती है। उनके कहानी संग्रहों में काली चील, फाइल, उसे बुद्ध ने काटा, अंतहीन मरुस्थल, और अंत में यीशु, बीतते हुए, भरी दोपहरी के अंधेरे आदि शामिल हैं। उपन्यास में खुले गगन के लाल सितारे, सूखते चिनार, सलाम आखिरी. पत्ता खोर, सेज पर संस्कृत, हम यहां थे शामिल हैं। उन्होंने कई यात्रा वृतान्त भी लिखे हैं।
सम्मान
कथाक्रम सम्मान (आनंद सागर स्मृति सम्मान)
हेमचंद्र आचार्य साहित्य सम्मान
अखिल भारतीय मारवाड़ी युवा मंच द्वारा मारवाड़ी समाज गौरव सम्मान
विजय वर्मा कण सम्मान
शिवकुमार मिश्र स्मृति कथा सम्मान
रत्नीदेवी गोयनका वाग्देवी सम्मान