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रविवारीय विशेष: प्रवीण कुमार की कहानी पवन जी का प्रेम और प्रेजेंट टेन्स

आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए प्रवीण कुमार की...
रविवारीय विशेष: प्रवीण कुमार की कहानी पवन जी का प्रेम और प्रेजेंट टेन्स

आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए प्रवीण कुमार की कहानी। यह कहानी मामूली प्रेम कहानी नहीं है बल्कि यह कहानी प्रेम के बहाने समाज की पड़ताल भी करती है और युवाओं की बदली सोच की ओर इशारा भी करती है। छोटे शहर के मिजाज को प्रेम के बहाने पकड़ती एक अलग तरह की कहानी।

कुछ लोगों के लिए यह मामूली बात होगी पर मेरे जैसे वेल्ले क़िस्सेबाज़ के लिए भी यह एक बड़ी परिघटना है। यह कोई क़िस्सा-कहानी नहीं है, जिसे मैं झटपट लिख दूं या सुना दूं। यह उनके लिए भी तो बिलकुल ही कोई क़िस्सा नहीं है, जो ख़ुद को समाजशास्त्री समझते हैं। बल्कि उनके लिए यह एक केश-सैंपल है। पवन जी एक हक़ीकत हैं। चलती-फिरती हक़ीकत। वे मेरे पड़ोसी हैं यह कहने का साहस नहीं है मुझमें। मेरे मोहल्ले के या मेरे शहर के हैं यह भी नहीं बता पाऊंगा। पर वे हैं और उनके होने से वह हुआ जो जिला तो छोड़िए पूरे प्रदेश में कहीं देखा सुना नहीं गया। पड़ोस के प्रदेशों तक में इस बात की चर्चा है और बहुत संभव है कि एक दिन पवन जी पर कोई फ़िल्म बन जाए। पर ध्यान रहे पवन जी सिनेमा नहीं हैं।

उनकी उम्र ही अभी क्या है? बस हाल ही में इक्कीस साल पार किया है। उनको प्रेम हो गया। यह कोई बड़ी बात नहीं। प्रेम अंतरजातीय हुआ। यह भी अब कोई बड़ी बात नहीं है। उन्होंने बी.ए करके एम.ए में एडमिशन नहीं लिया बल्कि बी.एस.सी करके प्रतियोगी परीक्षाओं के फॉर्म दनादन भरना शुरू कर दिया। आई.ए.एस से लेकर बैंक पी.ओ तक साला जो पोस्ट मिल जाए ले लेना है। पर ठहरिएगा जरा। मैंने अभी-अभी 'दनादन' शब्द का प्रयोग किया, यही बड़ी बात है। अजी यही तो चाबी है।

पवन जी 'दनादन' शब्द से परिचित ही नहीं थे। पवन जी क्या छोटे शहरों में काईयां लालाओं और ब्लैकियों को छोड़ कर इस शब्द से कोई परिचित नहीं होता। छोटे शहरों की एक अपनी चाल होती है। जिन्हें वह चाल सुस्त लगती है वे मूर्ख हैं ससुरे। अरे आप चलती ट्रेन से बाहर देखते हो तो दुनिया भागती हुई दिखती है। पर दुनिया भागती है भला? आप भाग रहे होते हैं !

पवन जी भागमभाग नहीं जानते थे। वे और वह लड़की दोनों साथ साथ ट्यूशन पढ़ते थे। पर आठवीं तक ही। तब वह चीज अंकुरित नहीं हुई थी। बस यही उनका आरंभिक परिचय हुआ था। लड़की के पिता इसी जिले के थे लेकिन बैंक पी.ओ होने के नाते पूरे प्रदेश में ट्रांसफ़र के बहाने चक्कर लगाते रहते थे। जब वे बैंक मैनेजर हुए और रिटायरमेंट के तीन साल बचे तो गृह जिले में आ गए। बल्कि इसी मोहल्ले में आ गए। मोहल्ले में कोई दो सौ गज की उनकी जमीन थी पर बेटी के शादी के लिए बचा रखी थी। जमीन बेटी के ही नाम थी। उसी के सामने वाले मकान में किरायदार हो गए। यह मकान पवन जी के मकान की तरफ एक मकान छोड़कर था। मकान मालिक को लड़की के पिता ने दो बार लोन दिलवाया था तो उसने वाज़िब किराए पर लड़की के पिता को तीसरी मंजिल देकर ख़ुद को अनुग्रहित किया। लड़की फर्स्ट इयर में थी और पवन जी थर्ड इयर में। दोनों साइंस नहीं पढ़ते थे। लड़की दो बार बाप के ट्रांसफ़र की वजह से फेल हुई थी नहीं तो वह भी थर्ड इयर में रहती। रहन-सहन के हिसाब से लड़की साइंस की लगती थी और पवन जी आर्ट्स के। फिर भी वह चीज पैदा नहीं हुई थी जिस पर करोड़ों इंसानों  ने अब तक अरबों कविताएं लिखीं हैं। पवन जी मेहनती थे, शरीफ़ थे और चुप्पे से केवल खैनी खाते थे। इसमें पवन जी का कोई कुसूर नहीं था। इस लत की वजह उनके दादा जी थे। दादा जी पेशे से इंजिनियर थे और 'अग्रसोची सदा सुखी' में यकीन करते थे। वे खैनी तक को मलकर अपनी पीतल की डिबिया में अगले दिन के लिए रख लेते थे ताकि तलब लगने पर चूने के साथ उसे रगड़ने के झंझट से बचा जा सके। वे पवन जी को साइंस और मैथ्स में पक्का कर चुके थे। दादा जी पढ़ाते वक़्त पहले खैनी का लेते थे और जब शौच का दबाव परेशान करता तो दो मिनट के निपटान के लिए चले जाते थे। ठीक उसी वक़्त पवन जी को लगता कि साइंस या मैथ्स का फलां फ़ॉर्मूला दादा जी को समझ में आता है और मुझे नहीं, इसके मूल में ज़रूर इस डिबिया का चूर्ण ही है, सो वे भी एक दिन उस डिबिया के छुपे सेवक बन गए। हाल ही में दादा जी मृत्यु गई हुई थी और पवन जी उनको याद कर ख़ूब रोते थे। पवन जी अक्सर अकेले में रोते थे और खैनी खाते थे। बाकी हर लिहाज से वे नशा-मुक्त थे। पवन जी शहर की परिचित गति से पढ़ते रहते थे पर अब भी उनके यहां 'दनादन' शब्द ने एंट्री नहीं मारी थी।

यह दनादन शब्द पहली बार बारीश की बूंदों से बना होगा या पता नहीं कब बना पर उस दिन जो बरसात हुई न दनादन, पहले पहल वह शब्द पवन जी के जीवन में उतर आया। हुआ यह कि जुलाई की अट्ठारह तारीख बीत गई थी। मौसम विज्ञानियों की भविष्यवाणी एक बार फिर असफल हुई। पर इंतजार सभी कर रहे थे मानव-दानव, पशु-पखेरू सब। उस शाम ठंडी हवा चली, ऐन बरसात के पहले वाली हवा। पवन जी अपने दो माले छत पर आ गए। वहां एक ही कमरा था जिसमें वे अक्सर साधनारत पाए जाते थे। गर्मियों में नीचे चले जाते थे, दादा जी वाले कमरे में। छत पर आते ही जेठ की झुलसी हुई देह को हवाओं ने वह ठंडक दी कि पवन जी के रोयें खिल गए। तभी उन्होंने देखा कि वह लड़की अपने छत पर टहल रही है। टहल क्या रही थी अपने कान में इयर फोन लगा कर किसी से हंस-हंसकर गप्पे मार रही है। तभी दनादन बरसात शरू हो गई। पवन जी पहले तो भागे कमरे में ताकि भीगे न पर उन्होंने देखा कि वह लड़की फोन पर बतिया छोड़कर झूम झूम कर घूम रही है और मजे से भीग रही है। देखना, इसको पक्कावाला जुकाम होगा पवन जी ने मन में यह सोचा और कुर्सी पर बैठ गए। पवन जी ने जब जुकाम वाली बात सोची, तभी बरसात दनादन से हौले होते हुई अचानक रुक गई।

पवन जी कमरे से बाहर आए और अनमयस्क ही ऊपर तीसरे माले की उस लड़की की देखा। वह अधभीगी आसमान को घूर रही थी। शायद कुछ नाराज भी थी बादलों से। तब भी पवन जी के मन में कुछ नहीं हुआ। सद्यःस्नाता ने कोई असर नहीं डाला। तभी बादलों और किरणों ने मिलकर एक साजिश को अंजाम दिया। आसमान के काले-काले बादलों में दो जगह सुराख़ हुए। एक सुराख़ से किरणें लड़की की छत पर गिरीं तो दूसरी पवन जी की देह पर। कोई तीसरा होता और घोर आस्तिक होता तो बता देता कि यह नियति का कोई संदेश था दोनों के लिए। खैर, पवन जी ने भी इस चीज को नोटिस में लिया। इधर अल्हड़ लड़की की निग़ाह पवन जी पर पड़ी और उसके क़दम थम गए। उसने छत की बाउंड्री पर अपनी दोनों केहुनी रख दी और पवन जी को घूरने लगी। पवन की सिट्टी-पिट्टी गुम। ये ऐसे क्यों देख रही है? तभी लड़की मुस्कुराई और पहचानने की मुद्रा में हाथ हिलाकर आवाज दी, “पवन जी? हाय पवन!”

ओ! तो यह अब भी मुझे पहचानती है? ये प्रेजेंट टेंस फ्यूचर इनडेफिनिट!! आठवीं की कोई बात थी, ट्यूशन की कोई ग्रामर वाली, पवन जी को वह बात याद आ गई और वे मुस्कुरा उठे। लड़की को लगा पवन उसको देख कर मुस्कुराए। वह और तेजी से हाथ हिलाने लगी, चार साल राजधानी में रह कर आई थी, उसमें कोई गवारूं संकोच नहीं था। निर्दोष पवन उसके निश्छल व्यवहार पर मुदित हुए और अभिवादन में अपना हाथ हिला दिया। लड़की को बल मिला, “हाऊ आर यू पवन जी।”

“आई एम गुड। ऐंड यू?”

“आई एम डूइंग वेल। पर तुम पानी से अब भी डरते हो?”

“क्या मतलब?”

“क्या मतलब क्या? अब भी तुम पानी से डरते हो। बरसात हुई नहीं कि भाग कर छुप गए।”

कहकर लड़की खिलखिलाकर हंसी। पर पवन जी इन सब से परे याद करने की कोशिश करने में लीन थे कि बचपन में ऐसी कौन सी घटना घटी थी जो उस लड़की को अब भी याद है और पवन जी को नहीं।

उन्होंने पूछा, “अब भी डरते हो से क्या मतलब है तुम्हारा?”

बादल घुमड़ रहे थे, आवाज साफ़ नहीं सुन पाई वह लड़की। “क्या? क्या पूछ रहे हो?”

पवन जी भी साफ़ नहीं सुन पाए और उधर फिर 'दनादन' शुरू हो गई। पलक झपकते ही पानी मोटी-मोटी बूंदों में बदल गया। इधर पवन जी भाग कर फिर कमरे में। लड़की ज़ोर से चीखी, “डरपोक जी” और हंसने लगी। लड़की की खिलखिलाहट उस तेज बरसात में भी साफ़ सुनी जा सकती थी। वो कुछ झूमते हुए फिर टहलने लगी। वह दिल खोलकर भीग रही थी और मोहल्ले की दरों-दीवारें और छत सब, सांस रोके कुछ देख-सुन रहे थे।   

यह कोई क़िस्साबाज़ी नहीं है कि मैं झूठमुठ का बताता रहूं कि इसके बाद क्या क्या हुआ। क्यों हुआ और कहां-कहां हुआ। मेरी कल्पनाशक्ति तो यहां काम ही नहीं कर रही है। या कहूं कि, मेरी निगाह उस परिघटना पर है, जिसे इन जोड़ों ने जन्म दिया है। न तो ये मरे, न घर छोड़कर भागे, न आत्महत्या की, न किसी ने हत्या की या हत्या करने की धमकी ही दी। वे दूर-दराज के दबंग रिश्तेदारों से भी बेखौफ़ हैं। और इधर शहर ही नहीं समाज भी और समाज ही क्या हर एक व्यक्ति समझना चाह रहा है कि इस परिघटना का अगला पड़ाव क्या होना चाहिए। प्रतिक्रियावादी तक हैरान हैं कि साला कुछ हो क्यों नहीं रहा है?

यह बताने की ज़रूरत नहीं कि छत से लौटने के बाद पवन जी के मन में बचे हुए बरसाती बादल घुमड़ने शुरू हो चुके थे। यह भी कहने की ज़रूरत नहीं कि पवन जी डेस्पेरटली अपने बचपन की एक-एक घटना याद करने लगे जो उस लड़की के साथ बिता चुके थे। वैसे पवन जी को आठवीं कक्षा की अंतिम दिनों में घटी वह घटना तो याद ही थी कि जब एक दिन लड़की ट्यूशन की क्लास में कुछ देरी से आई तो टीचर ने देरी का कारण जानना चाहा। लड़की ने उदास स्वर में बताया कि आज मम्मी-पापा की सुबह से ही लड़ाई चल रही है। मोहल्ले की टीचर-आंटी ने जानना चाहा कि अब क्या हालात हैं तो लड़की ने भौंहें चढ़ाकर मासूमियत से कहा, “टीचर आंटी जी, प्रेजेंट टेंस फ्यूचर इनडेफिनिट।”

लोग इस बात को भी क़िस्सा मानने लगेंगे कि उस बरसात के अगले दिन मैनेजराईन (लड़की की मां) पवन जी के घर आई और बोली, “बेटा, छुटकी को कल रात से ही बुखार हो गया है। लाख मना करने पर भी कल शाम छत पर भीग गई। कोई है नहीं घर पर, उसीने कहा है कि तुम घर पर होगे और तुम बाज़ार जाकर दवा ला सकते हो।” पवन जी को ख़ुशी हुई कि उनकी भविष्यवाणी सच हुई और लड़की को पक्कावाला नजला-जुकाम हो गया। बड़ी आई मुझे डरपोक कहने वाली! ये बातें लोगों को क़िस्सा लगेंगी इसलिए नहीं बता रहा कि पवन जी दवा लेकर लड़की के घर गए और फोन नंबर के आदान-प्रदान के बाद वे अक्सर साथ साथ कॉफ़ी पीने लगे। कभी घर में तो कभी घर के बाहर। पर यह बताना ज़रूर चाहूंगा कि पवन जी 'दनादन' हो गए। लोगो ने नोटिस करना शुरू किया कि जो पवन जी धीरे-धीरे चलते-फिरते और टहलते थे उनमें बिजली सी रफ़्तार आ गई। ये वही पवन जी थे जो कभी अपने घर की छत पर भी गर्भवती महिला की तरह चढ़ते थे और आज अर्श और फ़र्श तो छोड़िए मोहल्ला क्या शहर, मिनटों में धांग देते हैं। उसी हिसाब से उनका पढ़ना भी तेज़ हो गया और वे ग्रेजुएट होते-होते दुनियाभर में निकलने वाली तमाम नौकरियों के फॉर्म दनादन भरने लगे। लड़की के आने के बाद क्या अच्छा हो रहा है और क्या बुरा इस पर वे नहीं सोचते। बस दनादन रहते हैं। उन्हें दनादन हुए दो साल हो गए थे।

इस दनादन की एक और हालिया वजह थी, अग्रसोची सदा सुखी वाले फ़ॉर्मूले के तहत पवन जी के दादा जी ने मरने से पहले जो वसीयत तैयार की थी उसमे वे सैंतीस लाख रुपये पवन जी के नाम कर गए थे। वसीयत में साफ़ लिखा था कि इक्कीस साल के होते ही पवन जी के अलावा इस पर किसी का हक़ नहीं होगा और पवन जी जैसे चाहें इस पैसे का इस्तेमाल कर सकते हैं। पवन जी के निकम्मे पिता को वसीयत में केवल घर ही हाथ लगा था। हाल ही में जब बैंक का काग़ज पवन जी के नाम आया तो उन्हें पता चला। उसी बैंक में लड़की के पिता भी मैनेजर हैं। यह बात वे भी जान गए। पूरे मोहल्ले को पता चल गया कि ये वही पवन शुकुल हैं जो अब सैंतीस लाख रुपये के मालिक हैं और जो बैंक मैनेजर वर्मा जी की लड़की से शादी करना चाहते हैं। उधर वर्मा जी की लड़की भी दो सौ ग़ज की कीमती जमीन की मालकिन थी। यह बात मोहल्ला बहुत पहले से जानता था। जब तक वर्मा जी को लड़की के प्यार और शादी के लिए इकरार का पता चलता तब तक देर हो चुकी थी। दो साल तक दोनों घरों के अंदर लड़का-लड़की चुपचाप मार खाते रहे और चुप्पा प्लान बनाते रहे। मोहल्ला भी चुप्पी मारे सुनता रहा और जब समय थोड़ा गुजरा तो अब वह लड़की जमीन के कागजात पर पालथी मारे  बैठ गई थी और लड़का सैंतीस लाख पर।

मोहल्ले के कुछ लोगों ने सुना कि जोड़ा कह रहा है, “अरे पैसे-प्रॉपर्टी के ही दम पर ही न आज तक गार्जियन लोग अपना लड़का-लड़की को बंधक बना कर रखे हुए थे जी? आज हमारे नाम पर पैसा-प्रॉपर्टी है, तो हम काहे न करें फ़ैसला? जो पूंजी कई जनरेशन को बंधक बनाए रखी और हम एक पुरानी पीढ़ी को मजबूर कर रहे हैं तो का गलत कर दिए? अरे मां-बाप को मार तो नहीं रहे हैं, सड़क पर छोड़ नहीं रहे! सेवा करने से भाग नहीं रहे। मनचाहा विआह पूरा दुनिया में हो रहा है तो हम काहे न करें?” पर यह गप्प भी हो सकता है। इस परिघटना को क़िस्सा बनाने से रोकना होगा। किसी को इस बात में दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए कि शहर के डिस्ट्रिक जज, डी.एम और कप्तान से ये जोड़े गुपचुप मिलकर अपनी राम कहानी को एक लिखित बयान में तब्दील कर आए हैं जिसकी रिसीविंग लिए आए दिन दारोगा जी मोहल्ले में गश्त मारते हैं। पर छोड़िए इन बातों को।

अब रह गई उस परिघटना वाली बात।

तो एक सांझ पवन जी के बेरोजगार पिता और उस लड़की के पिता लड़की के घर पर ही मंत्रणा कर रहे थे। दोनों यह निष्कर्ष निकाल कर बैठ गए थे कि अंतरजातीय विवाह एक धत्कर्म तो है ही, एक ही मोहल्ले में विवाह करना तो महापाप है। समाज थू-थू करके छोड़ देगा। पर निदान क्या निकालें? दोनों घरों की ये अकेली संतानें मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ गईं हैं। बस वे इसी में उलझे थे तभी वहां पवन जी प्रवेश करते हैं। फिर लड़की भी पीछे से आ गई और हौले से पवन जी का हाथ पकड़ कर अडिग खड़ी हो गई। कोई अपनी जगह से टस से मस नहीं हो रहा है। सबकी धड़कनें बहुत ज्यादा बढ़ी हुई हैं और सारा वातावरण निशब्द है। यह मामला केवल शुकुल जी और वर्मा जी के घर का नहीं रह गया था अब। कोई है जो मानव व्यवहार या समाज व्यवहार की भविष्यवाणी कर सकता है? यदि हां तो फिर कर लीजिए या सांस रोककर सुनने का इंतजार कीजिए कि किसके मुंह से यहां से कौन सी बात निकलेगी। सांस सबकी रुकी हुई है, घरों की, मोहल्लों की, शहर क्या पूरे प्रदेश की। चिड़िया-चुरुंग, पेड़-पौधे तक चुप्पी मार कर सुनना चाहते हैं कि हो क्या रहा है। इस इंतजार में प्रेजेंट इतना टेंस हो गया है कि लगता है कि पृथ्वी ही अपने अक्ष पर थम गई है। घूर्णनहीन।

प्रवीण कुमार  

कहानी लेखन में नई कथा भाषा और नई प्रविधियों के प्रयोग के लिए जाने जाते हैं। पहला कहानी संग्रह छबीला रंगबाज़ का शहरबेस्ट सेलर रहा। 2018 में डॉ विजयमोहन सिंह स्मृति युवा कथा पुरस्कार। इसी साल अमर उजाला समूह का प्रथम थाप शब्द सम्मान।दूसरा कहानी संग्रह वास्को डी गामा की साइकिलभी बहुत चर्चित और प्रशंसित। फिलहाल वे दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में सहायक प्रोफेसर हैं।

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