आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए पंकज सुबीर की कहानी। मनुष्य की भलाई के लिए किया गया हर काम मनुष्य का भला कर पाएगा इसमें संदेह रहता है। विस्थापन की पीड़ा कहती ये कहानी बताती है कि जमीन डूब जाए तो मिल मुआवजा मिल सकता है, लेकिन जमीन छूटने का कोई मुआवजा नहीं होता।
अरुणा बस से उतर कर घर की ओर चली, तो रास्ते में खेत की मेड़ पर लगे आम के पेड़ ने उसे रोक लिया। सूटकेस को वहीं पेड़ की छांव में टिका कर वह आम के पेड़ की ओर देखने लगी। आम का पेड़ उसी तरह बांहे फैलाए खड़ा था, मानो कह रहा हो, ‘‘आ जाओ, मैं आज भी तुम्हारा बोझ उठाने में समर्थ हूं।’’
उसे याद आया कभी इस आम के पेड़ पर बंधे झूले पर धमा-चौकड़ी करने में ही पूरा दिन गुजर जाया करता था। यूं लगा, अभी थोड़ी देर में ही, लक्ष्मी, विनीता, राधा और राकेश सहित पूरी मंडली आ जाएगी और फिर शुरू हो जाएगा धींगा-मस्ती का सिलसिला, जो शाम को तब तक चलता रहेगा, जब तक बाबूजी मवेशियों को घेरते हुए इस तरफ नहीं आ जाएंगे। बाबूजी का आना, मतलब घर चलने का संकेत और फिर पूरी टोली मवेशियों के साथ-साथ घर की ओर लौट जाएगी।
लेकिन यहां तो ऐसा कुछ भी नहीं है, आम की छांव से दूर तक देखा, तो केवल वीरानगी ही नजर आ रही है, हर दिशा भांय-भांय कर रही है। खेत पर बना कच्चा मकान भी पूरी तरह उजड़ा हुआ है, केवल दीवारें ही नजर आ रही हैं, शेष सब कुछ मानों किसी चित्र पर गिरे पानी के कारण धुंधला गया है।
पानी? हां पानी ही तो है, जो इस चित्र पर गिरने वाला है। यहां केवल एक ही रंग बचने वाला है, पानी का रंग और पानी का तो कोई रंग होता भी नहीं; इसका मतलब यहां कोई भी रंग नहीं बचेगा, सब कुछ बदरंग हो जाएगा।
बचपन में उसने स्कूल में पढ़ा था कि पृथ्वी पर तीन चौथाई पानी है और केवल एक चौथाई ही जमीन है, ऐसे में उस केवल एक चौथाई को भी पानी में डुबो देने का क्या औचित्य है; जबकि आबादी जिस तरह बढ़ रही है, उसको देखते हुए तो समुद्र को सुखाकर जमीन बनाना चाहिए। आज नहीं तो कल ऐसा तो होगा ही कि लोगों के रहने के लिए जमीन कम पड़ जाएगी, तब क्या इन बड़े बांधों को पुनः तोड़ा जाएगा?
आम के पेड़ के नीचे बैठी अरुणा सोच में डूबी हुई थी। कभी इसी आम के पेड़ के नीचे से जिधर भी नजर दौड़ाओ, उधर लहलहाते हुए खेत नजर आते थे, लेकिन आज चारों तरफ केवल भूतहा खामोशी है।
कभी यहां जीवन ही जीवन हुआ करता था, आज केवल मृत्यु की प्रतीक्षा चल रही है। बचपन की स्मृतियों में शायद सबसे पुरानी स्मृति खेत की और उस पूरे माहौल की ही है, जिसने उसके मनो-मस्तिष्क पर ऐसा प्रभाव छोड़ा कि आज भी वह लौट-लौट कर यहां चली आती है। यहां की मिट्टी में दबे स्मृतियों के अवशेषों को कुरेद-कुरेद कर तलाशने, और फिर जब लौटती है, तो अपनी साड़ी के पल्लू में बांध कर ले जाती है, उन अवशेषों को। बचपन में अपने होश में जब पहली बार आई थी बाबूजी के साथ खेत पर, तब पूरा परिवार और नीम वाली चाची के घर के लोग भी यहां आए थे। यहीं पर भोजन बना था, महिलाओं ने खेत पर ही लगी ताजा सब्जियां तोड़कर पकाई थीं और पुरुषों ने मोटे-मोटे रोट या तिक्कड़ सेंके थे। नीम वाली चाची के लड़के राकेश और लड़की राधा के साथ वो खेतों के चक्कर लगाती रही। जब वे लोग इस आम के पेड़ के नीचे खेल रहे थे, तब बाबूजी ने हाली से कह कर आम की एक शाख पर झूला बंधवा दिया था। राकेश और राधा से उस दिन ही पक्की दोस्ती हो गई थी उसकी। खाना बनते ही बाबूजी ने आवाज लगाई थी, ‘‘चलो बच्चों ट्यूबवेल पे नहा लो।’’ बाप रे कितना हुड़दंग किया था उन तीनों ने मिलकर, ट्यूबवेल पर एक-दूसरे को खींच कर पानी की मोटी धार के सामने लाना, गिराना...। खेत का वह दिन आज भी स्मृतियों में उसी प्रकार सुरक्षित है।
मित्रता का दायरा भी उसी रोज से बढ़ाना शुरू हुआ था, जो बाद में गांव छूटने तक बढ़ता ही रहा। राधा, लक्ष्मी, विनीता और राकेश और भी न जाने कितने साथी, जो बनते रहे और छूटते रहे।
नीम वाली चाची के घर तक मां का संदेश ले जाना या कुछ समान ले जाना, उसका पसंदीदा काम था, पसंदीदा इसलिए क्योंकि औसारे में खटिया डालकर बैठी राकेश की दादी से सुपारी के अंदर का सफेद मुलायम गिरा खाने को मिलता और राधा, राकेश के साथ खेलने को मिल जाता। कभी-कभी तो घर लौटते-लौटते रात ही हो जाती, वहीं से खाना खा-पी के लौटती, तो मां चिमनी जलाए आंगन में मिल जातीं, खूब चिल्लातीं, ‘‘इतनी देर में लौट रही है, मैंने कुछ काम के लिए भेजा था, याद भी है कि नहीं।’’ और वो सर नीचा किए घर में घुस जाती, अंदर चिमनी के मद्धम प्रकाश में बाबूजी बिस्तर पर बैठे कुछ पढ़ते मिलते, चुपचाप से उनके पास जाकर दुबक जाती और जब नींद खुलती, तो पता चलता सुबह हो गई है।
और फिर घर में छोटे का आगमन हुआ था, उसका छोटा भाई राघव, जो उसके लिए केवल छोटा ही रहा। छोटे के आने पर उसमें थोड़ा बड़ापन आ गया था, बड़ी बहन जो हो गई थी। हालांकि खाना वगैरह बनाने का काम तो नीम वाली चाची ने संभाल लिया था; लेकिन फिर भी घर का ऊपर का बहुत सारा काम उसी को करना पड़ा था, जब तक मां ने फिर से चौका-चूल्हा नहीं संभाल लिया था।
अपने घर की रसोई निबटा कर नीम वाली चाची उसके यहां आ जातीं, राधा और राकेश के साथ। नीम वाली चाची उधर खाना बनाने में लगतीं, इधर वो तीनों चुपचाप से खेत पे भाग लेते, ट्यूबवेल पर नहाकर, धमा चौकड़ी करते रहते, जब तक बाबूजी का खेत से घर वापस लौटने का समय नहीं हो जाता।
छोटा घुटने चलने लगा था जब उसने स्कूल जाना शुरू किया था, स्कूल भी गांव में नहीं था, पास के गांव में था। पूरा दो किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था। स्कूल में पढ़ने वाले सभी बच्चे एक साथ जाते और एक साथ लौटते थे। जाते समय तो खैर स्कूल पहुंचने की जल्दी रहती थी। पर लौटते में दो किलोमीटर का रास्ता पूरे एक घंटे में तय होता था। पता चलता, सारे बच्चे बस्ता रखकर मैदान में विष-अमृत खेल रहे हैं या फिर करौदों की झाड़ियों में काले-काले करौंदे तलाश रहे हैं।
आज उन सारी स्मृतियों के बस अवशेष ही बचे हैं, दूर तक ऐसा लग रहा है, मानो समय, सृष्टि, प्रकृति सभी एक साथ ठहर कर किसी प्रलय की प्रतीक्षा कर रहे हैं, एक ऐसे प्रलय की प्रतीक्षा जिसके आगमन की पूर्व सूचना मिल चुकी है, सचमुच कितना पीड़ादायी होता है, अपने पैरों को अपने ही अंदर समेट कर मृत्यु की प्रतीक्षा करना।
उन दिनों तो जीवन अपने पूरे पंख फैला कर मयूर की तरह नाचता था यहां पर, एक-एक रंग खिला-खिला, धुला-धुला-सा। जैसे-जैसे वह बड़ी होने लगी थी रिश्तों को कुछ बेहतर ढंग से समझने लगी थी। उसकी दुनिया लड़कों और लड़कियों से केवल लड़कियों तक सीमित होने लगी थी। हां एक राकेश ऐसा था, जो उसकी इस दुनिया में लड़का होने के बाद भी शामिल था।
अरुणा ने धीरे से सूटकेस उठाया और घर की ओर चल दी, यहां तो जब तक खड़ी रहेगी, तब तक स्मृतियां हाथ पकड़ कर रोकती रहेंगी।
रास्ता उसी तरह बिछा हुआ था, जिस तरह पहले बिछा रहता था। वो बेचारा उठकर कहां जाए, उसे तो इसी तरह बिछे रहना है, चाहे जो भी हो। जब तक रहेगा, तब तक लोगों को अपने अपने घरों को पहुंचाता रहेगा।
इंटर पास करने के पास जब उसने आगे पढ़ना चाहा, तो ही समस्या सामने आ गई थी, अकेली लड़की को पढ़ने बाहर कहां भेजा जाए। इस समस्या का हल निकाला था मौसाजी ने, उसने चुपचाप से मौसाजी को चिट्ठी लिखी थी, आगे पढ़ने के लिए, और जवाब में मौसाजी की चिट्ठी आई थी बाबूजी के नाम, ‘‘अरु को लेने आ रहा हूं, आगे की पढ़ाई वह मेरे यहां रह कर करेगी।’’
मौसाजी बाबूजी से बड़े थे, सो पिताजी उनका काफी सम्मान करते थे, इसलिए कहीं कोई विरोध नहीं हो पाया।
जब वो पढ़ने के लिए जा रही थी, तभी इस तरह की कुछ सुगबुगाहट सुनने मिल जाती थी कि गांव डूबने वाला है, पर तब वह यही सोचती थी, कि भला सरकार खुद अपने हाथ से भरे-पूरे, हरे-भरे गांव को क्यों डुबाएगी?
शहर चले जाने के बाद भी कुछ दिनों तक तो गांव की याद सताती रही, न वहां राधा थी, न राकेश, न वह खेत, ना झूला, लेकिन कुछ दिनों में ही उसने अपने आपको शहर के हिसाब से ढाल लिया था।
बीच-बीच में गांव जाती तो फिर गांव की तरह हो जाती, गर्मियों में परीक्षा खत्म होने के बाद गांव लौटती, तो समय को मानों पंख लग जाते। उन्हीं दिनों यह लगभग तय हो गया था कि उसका गांव नदी पर बन रहे बांध के पानी में डूब रहा है, सभी गांव वालों को नई जगह विस्थापित किया जाएगा, इसके लिए फार्म वगैरह भरवाने का काम भी शुरू हो गया था। लेकिन तब भी उसका मन यही कहता था कि ऐसा कुछ नहीं होगा, आखिरी वक्त पर यह सब कुछ टल जाएगा, और उसका गांव अंततः विसर्जित नहीं होगा।
पिछले वर्ष जब राधा की शादी में गांव आई थी, तब सारी संभावनाएं समाप्त हो गई थीं गांव के बचे रहने की। विदा के समय उसके गले से लिपट कर रोती हुई बोली थी राधा, ‘‘अरु, अब कहां लौटूंगी बता? गांव तो डूब ही जाएगा, मेरा तो सब कुछ खत्म होने वाला है।’’ क्या जवाब देती वो राधा को, उसका भी तो सब कुछ खत्म हो रहा था। खत्म तो सभी का सब कुछ हो रहा था, लेकिन मानव मन भी दो प्रकार के होते हैं, एक तो उन पौधों की तरह होते हैं, जिनकी जड़ें गहरी नहीं होती, चाहे जहां से उखाड़ कर चाहे जहां लगा दो। दूसरे उन पौधों की तरह होते हैं, जिन्हें एक जगह से उखाड़ कर दूसरी जगह लगाओ, तो या तो लग ही नहीं पाते या बड़ी मुश्किल से लगते हैं, क्योंकि भावनाओं की जड़ें गहरी धंसी होती हैं, उखाड़ने में टूट जाती हैं। शायद उसका मन भी ऐसा ही है।
उसके बाद फिर गांव आना नहीं हुआ, समाचार बराबर मिलते रहे थे गांव के कि अब क्या स्थिति है, विस्थापन कब से चालू होने वाला है। यह भी पता चला था, कि राकेश ने जो नई जमीन सरकार से मिली है, उस पर घर भी बनवा लिया है और वहीं पर अपना एक पोल्ट्री फार्म डाल रहा है। अभी नीम वाली चाची का पूरा परिवार वहां नहीं गया है, लेकिन जल्दी ही वो लोग वहां पर चले जाएंगे। एक कस्बे से थोड़ी दूर मिली है उन लोगों को जमीन। बाबूजी ने चिट्ठी में लिखा था, ‘‘बेटी जमीन अपन लोगों को भी मिल गई है, पर उसके मुकाबले कुछ नहीं है, जो यहां छूट रही है, पर क्या करें, लेना पड़ेगी। राघव का भी इस साल से कॉलेज शुरू हो जाएगा, कस्बे में तो बहुत से कॉलेज है। जहां जमीन मिली है, वहां से आधे घंटे का रास्ता है कस्बे का। राकेश को तो नीम वालों ने सारी जमा-पूंजी लगवा कर नई जगह पर मुर्गीखाना खुलवा दिया है।’’
और अब जब वह गांव लौटी है, तो लगभग सब कुछ खत्म हो गया है, आधे लोग जा चुके हैं और जो बचे हैं वे लोग भी बस जाने की तैयारी में हैं।
गांव में घुसते ही लगा मानो किसी प्रागैतिहासिक खंडहर में आ गई है, चारों तरफ केवल वीरानी ही वीरानी नजर आ रही है, मकानों की दीवारें खड़ी हैं बस, बाकी सब कुछ लोग साथ ले गए हैं। गांव में भूतहा खामोशी पसरी हुई है, कहीं कोई घूमता-फिरता नजर नहीं आ रहा है। नीम वाली चाची के घर के पास पहुंची, तो देखा राकेश बाहर ही खड़ा है। उसे देखा, तो दौड़ता हुआ आया, हाथ से अटैची लेते हुए बोला -‘‘मुझे पता था तुम आ रही हो, काका ने बताया था, चलो घर छोड़ दूं, यहां तो कोई नहीं है, सब जा चुके हैं, वहां तुम्हारे यहां भी जाने की तैयारियां ही चल रही हैं।’’
अरुणा ने मकान की दीवार के पास खड़े नीम के पेड़ को देखा, लगा जैसे पेड़ पूछ रहा है, ‘‘तुम लोग तो सब जा रहे हो, मुझे क्यों छोड़ कर जा रहे हो, मुझे साथ क्यों नहीं ले जा रहे?’’ अरुणा से और देखते नहीं बना, उसने सर झुका लिया।
राकेश के साथ सर झुकाए चल रही अरुणा सोच में डूब गई, हर व्यक्ति का एक अपना भूतकाल होता है, जहां उसका बचपन होता है, उस बचपन से जुड़े हुए स्थान होते हैं। आदमी भले ही सात समंदर पार चला जाए पर फिर भी उसके मन में उस जगह की ललक होती है, जहां वो पला, बढ़ा। वह किसी भी उम्र में उस जगह पर लौटे लेकिन वहां लौटते ही वह बच्चा बन जाता है।
लेकिन उसका तो सब कुछ पानी में डूब रहा है, नीम वाली चाची का मकान, नीम का पेड़, खेत और खेत पर लगा झूला, ये कच्चे रास्ते, वो करोंदे के पेड़, बंजड़ के किनारे लगा पीपल और उस पर के वो सभी काल्पनिक भूत-प्रेत, उसका घर, आंगन में मां के हाथ की बनी रंगोली, मांडने, दीवारों पर बने देवी देवता। सभी कुछ तो डूब जाएगा। क्या बचा रहेगा उसके पास? उसका बचपन, उसकी स्मृतियां सभी पानी के नीचे चली जाएंगी। इन कच्चे रास्तों पर जलीय वनस्पतियां उग आएंगी, फिर वो चाह कर भी अपने बचपन में नहीं लौट पाएगी।
ये गलियां, जिनमें वो रात के अंधेरे में भी दौड़ लगाते हुए नीम वाली चाची के घर चली जाती थी, आज दिन के उजाले में भी कितनी भयावह लग रही हैं। और लगें भी क्यों नहीं, कल तक वो एक जीवित गांव में घूमती थी पर आज वो जहां घूम रही है, वह गांव की लाश है, और लाश तो हमेशा भयावह होती ही है।
राकेश भी उसके साथ चुपचाप चल रहा है। गली का सिरा आ गया है, मुड़ते ही सामने उसका घर नजर आएगा, अरुणा को लगा वो अपने घर को भी ऐसी ही हालत में नहीं देख पाएगी, मोड़ पर ही गुप्ता काका की दुकान के ओटले पर बैठ गई। दुकान की जगह एक खाली खोह नजर आ रही है, कभी यहीं पर दौड़-दौड़ कर आती थी वो छोटा-छोटा सामान खरीदने। पर अब एक गुफा-सी दिख रही है, जो जल समाधि लेने के कष्टप्रद इंतजार में मौन अंधेरे में डूबी हुई है।
सब कुछ खत्म हो रहा है, कहां से क्या थामे कि कम से कम कुछ तो बचा रह जाए। कुछ तो ऐसा रह जाए जो उसे बचपन की याद दिलाता रहे। राकेश उसकी मनः स्थिति समझ कर बोला, ‘‘चलो अरु, घर चलो।’’
अरुणा ने सर उठाकर देखा, उसे लगा कि गांव पूरा पानी में डूब गया है, घर मकान खेत सब पानी में डूबे पड़े हैं। एक लड़का और लड़की पानी की सतह पर चल रहे हैं। किसी जादूगर की तरह। लड़की ने अपने दुपट्टे में कुछ टूटी चूड़ियों के टूकड़े, कुछ चिकने, चमकीले पत्थर, कुछ कौड़ियां, मोरपंख और एक-दो कपड़े की गुड़ियाएं बांधी हुई हैं। लड़के ने भी अपनी शर्ट को मोड़ कर झोली-सी बना रखी है, जिसमें सतोलिया के गोल पत्थर, कांच की गोलियां, और पक्के-कच्चे करोंदे भरे हैं। दोनों थके कदमों से पानी पर चलते हुए दूर जा रहे हैं, वहां, जहां शायद जमीन है।
पंकज सुबीर
उपन्यास- ये वो सहर तो नहीं, अकाल में उत्सव, जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ थाकहानी संग्रह- ईस्ट इंडिया कंपनी, महुआ घटवारिन, कसाब.गांधी एट यरवदा.इन, चौपड़े की चुड़ैलें, होली, प्रेम यायावर हैं, आवारा हैं, बंजारे हैं
सम्मान एवं पुरस्कार
राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान, अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान, ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार, स्व. जे. सी. जोशी शब्द साधक जन प्रिय सम्मान, वागीश्वरी पुरस्कार, वनमाली कथा सम्मान, अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान, शैलेश मटियानी चित्रा पुरस्कार, कमलेश्वर सम्मान, स्पंदन कृति सम्मान, आचर्य निरंजन नाथ सम्मान, डॉ. सिद्धनाथ कुमार स्मृति सम्मान।
कहानी 'दो एकांत' पर बनी फिल्म बियाबान की पटकथा, संवाद तथा गीत लेखन।