आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए राकेश बिहारी की कहानी। राकेश बिहारी अपनी कहानियों में अपने पात्रों के जरिए कथा के कई तंतुओं को एक साथ पकड़ते हैं। कहानीकार होने के साथ-साथ वह सुपरिचित आलोचक भी हैं। पेशे से कास्ट अकाउंटेंट राकेश बिहारी फिलवक्त एनटीपीसी, मुजफ्फरपुर में कार्यरत हैं।
एक-एक शब्द वह इस तन्मयता से लिखती है, जैसे कहानी नहीं शब्द ही रच रही हो। पिछले दो घंटे के इस अबाध क्रम को तोड़ते हुए उसने आठ इंच स्क्रीन वाले अपने मोबाइल फोन के मैसेज बॉक्स में टाइप किया था, "सत्यम!" उसकी आखों के सुरमई डोरे जैसे गाढ़े कत्थई हो गए थे। तनिक ठिठकने के बाद उसने आगे लिखा था, "मतलब... सत्यम को लिख रही हूं। अपनी कहानी में उसे विस्तार दे रही हूं।" पल भर को उसे लगा जैसे वह खुद को ही कोई सफाई दे रही है। वह कुछ और सोचती इससे पहले ही उसका यह छोटा-सा मैसेज उसके आउट बॉक्स से चंदन के इन बॉक्स तक का सफर तय कर चुका था।
मैसेज पढ़ते ही चंदन को उसकी कल की बातें याद हो आई थीं, "सी एम! अपनी नई कहानी में मैंने एक और पात्र डाला है, सत्यम! एक आलोचक। उसे रचते हुए लगता है जैसे, मैं तुम्हारे ही साथ हूं।"
यह उनकी तीसरी बातचीत ही थी। वह लड़की के इस अनायास संबोधन से चौंका था, "सी एम!"
"हां, सी एम! यानी चंदन मेरे..."
"तुम चंदन ही कहा करो। मुझे अपना नाम बहुत प्रिय है।"
"ऐसा है सी एम! मेरी जिंदगी में जो भी आता है उसे मैं अपना बनाकर अपने पास रखना चाहती हूं..." उसकी आवाज किसी सम्मोहक जादू से लबरेज थी।
"सत्यम!..." चंदन के मोबाइल स्क्रीन पर अब भी वह मैसेज चमक रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या जवाब दे। उसने अनमने भाव से लेकिन तत्परता से जवाब दिया था, "क्या कहूं...?"
"कुछ मत कहो। मैं अपने पात्रों को पसंद करती हूं। लिखते हुए जैसे जीती रहती हूं उन्हें। वे मेरे जीवन का हिस्सा हो जाते हैं... सत्यम को लिखते हुए उसे पुकारने का मन किया, बस..."
उसे अब भी ठीक-ठीक समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या जवाब दे पर उसका अंगूठा अपने आप ही जवाब टाइप करने लगा था, "क्या कहूं इसे, सच्चा झूठ या झूठा सच?"
"जो चाहे कह लो। पर यह मत सोच लेना कि कि सत्यम तुम ही हो।" लड़की ने सेन्ड बटन दबाने के पहले अपने शब्दों के आगे एक स्माइली बनाई थी।
चंदन ने फ्लर्ट करना चाहा, "तुम बहुत अच्छा मुस्कुराती हो।" लेकिन अगले ही पल उसे उसकी वह बात याद आई, ‘सारे मर्द एक-से होते हैं’ और उसने इस मैसेज को डिलीट कर दोबारा लिखा, "मैंने ऐसा कब कहा?"
मोबाइल की आवाज से दफ्तर के दूसरे सहकर्मी बाधित न हों या फिर कहीं उन्हें यह न पता चल जाए कि वह किसी के साथ चैट पर लगा है, यह सोचकर वह अपनी मोबाइल को साइलेंट मोड पर डालना ही चाहता था कि मैसेज अलर्ट टोन फिर से बज उठा, "मैं अपने पात्रों में इस तरह गुम हो जाती हूं कि मुझे पता ही नहीं चलता कि मैं कब अपने पात्रों में बदल गई और कब मेरे पात्र मुझमें... मैं अपने पात्रों को प्यार करने लगती हूं और मेरे पात्र मुझे..."
"ग्रेट! यह तो ठीक है कि तुम अपने पात्रों से प्यार करने लगती हो। पर यह कैसे कह सकती हो कि वे भी..." चंदन ने जानबूझ कर मैसेज को अधूरा छोड़ दिया था।
"दरअसल मैं अपने पात्रों के साथ इस कदर एकमेव हो जाती हूं कि हमारे बीच की दूरी खत्म हो जाती है। मैं ‘मैं’ नहीं रह जाती और मेरे पात्र, पात्र नहीं रह जाते... मैं सत्यम को भी उसी तरह सिरजना चाहती हूं... सिरज रही हूं।"
"गजब! आपके चरण कहां हैं लेखिके...!"
दो मिनट के अंतराल के बाद जवाब आया था, "क्यों?"
"चरण! छूने के लिए... और क्यों!" वह लिखना चाहता था, कहो तो सहला भी सकता हूं, लेकिन लिख नहीं सका।
"धत!’ लड़की का लज्जानुरक्त चेहरा उसके शब्दों में झलक उठा था, जैसे उसने वह भी पढ़ लिया हो जो लिखने से रह गया था।
"क्यों? तुम्हें क्या लगा था?" उसने किसी तरह अपनी शरारत पर नियंत्रण कर रखा था।
"कुछ नहीं!"
"सच! तो फिर ‘धत’ क्यों कहा?"
"यूं हीं।"
"यूं हीं! कसम से!"
जवाब में फिर से एक स्माइली और उसके आगे यह सूचना, "अभी बाय... मेरी दोस्त मनीषा मुझसे मिलने आ गई है।"
"ओके... बाय… पर उससे नजरें मत मिलाना। यदि वह तुम्हारी सच्ची दोस्त हुई तो तुम्हारी आंखों में सत्यम को पढ़ लेगी।" सेंड का बटन दबाते हुए मैसेज के अंत में झिलमिलाती शरारती मुस्कुराहट जैसे चंदन के होठों पर भी तैर आई थी।
मोबाइल को फिर से साइलेंट मोड में डालकर चंदन दफ्तर के काम में लग गया था...
लड़की लगभग आधे घंटे के बाद फिर हाजिर थी, "वह गई... मगर ऐसा कुछ नहीं है।"
"यानी अब तक तुम झूठ कह रही थी। तुम सत्यम को सिर्फ लिख रही हो। जी नहीं रही..."
"ऐसा नहीं है। जब तक लिखती रहती हूं, मेरे पात्र मेरे नस-नस में दौड़ते रहते हैं... लेकिन अलग होते ही भूल जाती हूं उन्हें... कहानी खत्म होने के बाद तो जैसे हमेशा-हमेशा के लिए..."
चंदन को मजाक सूझा था, "तुम तो बड़ी बेवफा निकली यार..! बेचारा सत्यम!"
जवाब में एक बार फिर लड़की ने सिर्फ स्माइली भेजी थी। चंदन एक मुंह चिढ़ाता स्माइली भेजना ही चाहता था कि उसका मैसेज आया, "अब चली मैं अपने सत्यम के पास। यानी कहानी लिखने..." लड़की ने फिर से अपने मैसेज के उत्तरार्ध में एक सफाई टांक दी थी।
"जाओ भाड़ में। यानी अपने सत्यम के पास।" लड़की बुरा न मान जाए, सोचकर चंदन ने मैसेज के आखिर में एक स्माइली जड़ दी थी।
"हां, तुम भी भाड़ में जाओ... मैं खुश हूं अपने सत्यम के साथ, बहुत खुश।"
"बिल्कुल ठीक... तुमसे बेहतर जगह भाड़ ही है मेरे लिए... पर हां, अपने सत्यम को मेरा शुक्रिया कहना... उसके कारण एक भले आदमी की जान बच गई..." लिखना चाहता था, इज्जत भी, पर रह गया।
"जान बच गई ! वह कैसे?"
"अरे बाबा! ऐसे कि तुमने मेरी जान छोड़ दी।"
"मैं अपने सत्यम पर एक अलग से कहानी लिखना चाहती हूं। लेकिन उसे अभी ठीक से नहीं जानती।" लड़की का संवाद अचानक से संजीदा हो आया था।
चंदन ने भी उसके अंदाज को इज्जत बख्शी, "अफसोस! मैं भी तो उसे नहीं जानता।"
"मैं जान पाऊंगी। अगर ईश्वर ने मौक दिया।" लड़की के शब्द भावुक-से हो गए थे। और उसकी आंखों में जैसे एक प्रार्थना-सी कौंधी थी।
"चलो, जब जान जाओ तो मुझे भी मिलवाना अपने सत्यम से। देखूं तो कौन तीसमार हैं साहब?" चंदन के मजाकिया लहजे ने इस संजीदगी को पिघलाने की एक हल्की-सी कोशिश की थी।
"हाहाहा..." हल्की सी हंसी के बाद लड़की ने जैसे फिर से गंभीरता ओढ़ ली थी, "जब सत्यम को नायक की तरह रचूंगी तो एक तरह से अपने आप को ही लिखूंगी। वह बिल्कुल मेरे जैसा है। बहुत ही अजीब।"
"अच्छ है कि तुम अपने सत्यम के साथ ही खुश रहो। वैसे भी मुझे सजीव लोग ही भाते हैं, अजीब नहीं।"
चंदन की नजर सामने की दीवार पर गई। घड़ी एक के कांटे को दस मिनट फलांग चुकी थी। उसने गौर किया लोग लंच के लिए निकल चुके थे। उसने बिना लड़की के जवाब का इंतजार किए मैसेज टाइप किया, "मैं खाने चला। देखो तुम्हारा सत्यम कहीं भूखा न रह जाए। तुम्हारी कहानी के चक्कर में।"
इस बार बिना किसी देरी के जवाब आया था, "मैं भी जा रही हूं खाना खाने। अपने सत्यम के साथ।"
बाहर बहुत गर्मी थी, हल्की बारिश के कारण ऊमस भी। चंदन ने कार का शीशा चढ़ाया और एसी ऑन कर दी। वह तब से तो मेरे साथ लगी थी। इससे पहले कहा कि कहानी लिख रही थी। बीच में उसकी दोस्त भी आई। फिर उसने खाना कब बना लिया? पता नहीं खुद खाना बनाती भी है या नौकर चाकर। उसने खुद को झटका। कल की कही उसकी बात फिर से उसके कानों में गूंज रही थी। उसे रचते हुए लगता है, जैसे मैं तुम्हारे ही साथ हूं। तभी किसी ने तेज रफ्तार से उसे ओवरटेक किया। तेज भागती गाड़ी के इंडीकेटर में भक से उसका मैसेज चमका था, यह मत सोच लेना कि यह सत्यम तुम ही हो। उसके भीतर उस कहानी को पढ़ने की इच्छा तीव्र होती जा रही थी। लेकिन, उसने मन ही मन दोहराया, मैं इस कहानी को कभी नहीं पढ़ूंगा। कहीं भीतर से आवाज आई, यदि उसने कहा तब भी? वह समझ नहीं पा रहा था कि हां कहे या ना।
जन्म : 11 अक्टूबर 1973, शिवहर (बिहार)
शिक्षा : ए. सी. एम. ए. (कॉस्ट अकाउंटेंसी), एमबीए (फाइनेंस)
प्रकाशन : प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में कहानियां एवं लेख प्रकाशित
वह सपने बेचता था (कहानी-संग्रह), केन्द्र में कहानी (आलोचना)
संपादन: स्वप्न में वसंत (स्त्री यौनिकता की कहानियां)
संपर्क: [email protected]