पांच विधानसभा चुनावों के परिणामों की अलग-अलग ढंग से व्याख्या हो रही है। अगर इसकी गहन विवेचना धार्मिक और जाति समूहों की दावेदारी और क्षेत्रीय क्षत्रपों की बढ़ती भूमिका के आधार पर देखा जाए तो कई संकत साफ दिखाई देते हैं—
1) मतदाता अब केंद्र या राज्य में मिली जुली सरकार के पक्ष में नहीं दिखाई देते। बड़े पैमाने पर एक के दल या दूसरे के विपक्ष में वोटिंग का ट्रेंड बढ़ रहा है। केंद्र में 2014 में जहां कांग्रेस के विरोध में भाजपा को वोट मिला, वैसे ही इन पांचों चुनावों में स्थिति दिखाई देती है। असम में भाजपा, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, तमिलनाडु में जयललिता और केरल में वाम मोर्चा।
2) जिन राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां और उनके नेता मजबूत हैं वहां भाजपा और कांग्रेस के लिए पैर जमाना मुश्किल होता है। आने वाले सालों में इनका श्रेत्रीय दलों औ उनके नेताओं की केंद्रीय राजनीति में निर्णायक भूमिका होगी।
3) चुनावी राजनीति में भ्रष्टाचार, हिंसा, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण धीरे-धीरे नकारात्मक तत्व के तौर पर नहीं देखे जाने लगे हैं। असम में जिस तरह से हिंदु ध्रुवीकरण हुआ, बांगलादेशी-गैर-बांगलादेशी कार्ड भाजपा ने खेला उससे उसे जबर्दस्त फायदा मिला। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के तमाम घोटालों में नाम उछलने से कोई नुकसान नहीं होता दिखा। तमिलनाडु में जयाललिता सरकार द्वारा बाढ में भयानक कोताही बरतना आदि कोई अहम मुद्दा नहीं बना। तमिलनाडु में बड़े पैमाने पर पैसे का पकड़ा जाना भी बड़ा चुनावी मुद्दा नहीं रहा। उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले चुनावों से पहले यह चर्चा चालू है कि राज्य में में सांप्रदायिक हिंसा की वारदातें बढ़ेने से किसे कितना फासदा होगा।
4) यह भी साफ हुआ है कांग्रेस नेतृत्व में जोखिम उठाने की लेशमात्र ताकत नहीं बची है, कम से कम असम और केरल में उसके प्रदर्शन से यह साफ जाहिर हुआ। असम में लंबे समय से कांग्रेस नेतृत्व में बदलाव की मांग हो रही थी। केरल में मुख्यमंत्री को हटाने तक का जोखिम नहीं उठाया। इसके बाद बारी कर्नाटक की है।
5) भाजपा का जातिगत और धार्मिक समूहों को साथ लेकर चलने की रणनीति अभी आने वाले सालों तक चलने वाली है। केरल में एडवा जाति को लुभाने के लिए भाजपा ने जो किया वह जगजाहिर है। इसे भाजपा बड़े तात्कालिक फायदे के बजाय दीर्घकालीन लाभ का लक्ष्य बना कर चल रही है।
6) तमाम दलों की तुलना में ममता बनर्जी ज्यादा मजबूत नेतृत्व के रूप में उभरी हैं। उन्होंने तमाम तरफ से घिरे हुए होने के बावजूद अकेले लड़ने का जोखिम उठाया। नीतीश की तरह अभी तक राष्ट्रीय राजनीति में बहुत महत्वाकांक्षा नहीं दिखायी देती।
7) वाम दलों के लिए अकेले अपने एडेंजे पर चुनाव लड़ना चाहिए। कांग्रेस के मोह से मुक्त होने की जरूरत।
8) मतदादातओं ने गठबंधन की राजनीति को नकारा है। सीधे किसी एक के पक्ष में या फिर विरोध मेंवोटिंग होती है।
9) भाजपा को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वर्षों पुराने जमीनी काम का राजनीतिक लाभ मिलना असम से लेकर केरल तक शुरू हो गया है।
10) द्रमुक आंदोलन का पराभव शुरू। तमिनाडु में करुणानिधि का दौर समाप्त हुआ। स्टालिन को उत्तराधिकार घोषित करने से बात बन सकती थी। तमिनायडू में इस पर सघन चर्चा होनी चाहिए थी।