दिल्ली चुनाव के नतीजे की तसवीर तो 11 फरवरी को दोपहर तक साफ होनी थी। लेकिन आम आदमी पार्टी के मुख्यालय पर अरविंद केजरीवाल की बड़ी-सी तस्वीर के साथ लगा पोस्टर अलग ही कहानी कह रहा था। पोस्टर पर लिखा था, “राष्ट्र निर्माण के लिए आम आदमी पार्टी से जुड़े।” साफ है कि आम आदमी पार्टी अब दिल्ली से बाहर एक बार फिर अपना दायरा बढ़ाने की तैयारी में है। इस बार उसका एजेंडा केवल मोदी विरोध नहीं है, जैसा रवैया, 2013-14 में अरविंद केजरीवाल ने अपनाया था। केजरीवाल इस वक्त कुछ ऐसा ही करने की कोशिश कर रहे हैं, जैसा कि भारतीय जनता पार्टी मतदाताओं को लुभाने के लिए करती है। नतीजों की तस्वीर साफ होने के बाद, केजरीवाल ने अपने पहले संबोधन की शुरुआत “भारत माता की जय” और “वंदे मातरम” के राष्ट्रवादी नारे से की। वे यहीं नहीं रुके, उन्होंने यह भी कहा “आज हनुमान जी का जन्मदिन है, उनकी कृपा बरस रही है।” केजरीवाल की रणनीति साफ है, वह भाजपा को उसकी ही पिच पर चुनौती दे रहे हैं। यानी अगर भाजपा ‘जय श्रीराम’ के भरोसे है तो आप ने हनुमान जी पर भरोसा कर लिया है। राष्ट्रवाद केवल भाजपा का तुरुप का इक्का नहीं होगा। केजरीवाल भी उस पर दावा ठोकेंगे। लेकिन यह रास्ता अपनाकर आसानी से आप, भाजपा जैसी मजबूत पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती दे पाएगी?
इस सवाल का जवाब अरविंद केजरीवाल के इंडिया अगेंस्ट करप्शन अभियान के समय और बाद में पार्टी में भी उनके सहयोगी रह चुके एक साथी कहते हैं, “देखिए, केजरीवाल तो अपनी किताब स्वराज में यह भी कहते हैं कि वे कभी मंत्री तक नहीं बनेंगे, लेकिन आज वे मुख्यमंत्री हैं। वे 2013-14 में प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे थे लेकिन पंजाब और गोवा के नतीजों ने उनकी सीमाएं बता दीं। अब वे दोबारा चुनाव जीत कर आए हैं। ऐसे में, वे फिर अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने की कोशिश करेंगे। लेकिन ऐसा करना आसान नहीं है। उसकी दो वजहें हैं, पहले तो वे दूसरे किसी नेता को उभरने का मौका नहीं देते हैं, दूसरी बात यह कि पार्टी संगठनात्मक रूप से दिल्ली के बाहर बहुत कमजोर है। एक अहम बात और है कि केजरीवाल की तरह प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखने वाले विपक्षी खेमे में कई लोकप्रिय नेता हैं। उनके लिए केजरीवाल को आगे करना आसान नहीं होगा।” पार्टी की नई रणनीति पर आम आदमी पार्टी के दिल्ली के संयोजक गोपाल राय का कहना है, “हम सकारात्मक राष्ट्रवाद की बात कर रहे हैं। देश की जनता भाजपा की घृणा वाली राजनीति को समझ चुकी है। सबसे पहले हमारा फोकस देश के दूसरे क्षेत्रों में संगठन को मजबूत करना है। देश भर के पदाधिकारियों की बैठक में तय हुआ है कि पार्टी राष्ट्र निर्माण अभियान 23 फरवरी से 23 मार्च तक चलाएगी। इससे एक करोड़ लोगों को जोड़ने की तैयारी है। उनका कहना है कि पार्टी शुरू में दिल्ली के बाहर म्युनिसिपल चुनावों पर फोकस करेगी। इसके अलावा कुछ राज्यों में पूरी तरह फोकस करेंगे। ‘आप’ ने स्वास्थ्य, शिक्षा, लोगों के बेहतर जीवन पर फोकस किया है। वही अब पूरा देश चाहता है।”
आम आदमी पार्टी की रणनीति पर सेंटर फॉर द डेवलपिंग सोसायटी (सीएसडीएस) के डायरेक्टर संजय कुमार का कहना है, “जितना आसान केजरीवाल और उनकी टीम सोच रही होगी, रास्ते उससे ज्यादा कठिन हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि केजरीवाल दिल्ली में काफी लोकप्रिय हैं, लेकिन यह भी समझना होगा कि केजरीवाल अभी भी वोट जुटाने के मामले में क्षेत्रीय स्तर के नेता हैं। उनकी जैसी लोकप्रियता ममता बनर्जी, के.चंद्रशेखर राव, नवीन पटनायक जैसे नेताओं की अपने राज्यों में है। दूसरी बात, दिल्ली की तुलना में दूसरे क्षत्रपों के पास संख्या के आधार पर जनाधार ज्यादा है। वे केजरीवाल की तुलना में लोकसभा सीटों की संख्या के आधार पर कहीं मजबूत हैं। इन कारणों से स्पष्ट है कि केजरीवाल का मोदी के मुकाबले राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरना आसान नहीं है।”
आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली के बाद सबसे उम्मीदों वाला राज्य पंजाब है। जहां पर कार्यकर्ताओं के बीच चल रहे नारे “दिल्ली जीता है तो पंजाब जीत ही लेंगे” से समझा जा सकता है। पार्टी की उम्मीद की वजह वहां पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी को मिला 24 फीसदी वोट है, जिसके दम पर पार्टी ने 20 सीटें जीती थी। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों में पार्टी को 2014 के चार सीटों के मुकाबले 7.38 फीसदी वोट के जरिए केवल एक सीट मिली। पार्टी को विधानसभा में अपने विधायकों के विद्रोह का भी सामना करना पड़ा। परिणाम यह हुआ कि विधायकों की संख्या 20 से गिरकर 11 पर आ गई है। इस झटके की वजह भी केजरीवाल की राजनीति करने के तरीके में है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में शामिल रह चुके आनंद कुमार का कहना है, “किसी भी राजनैतिक पहल को राष्ट्रीय आकार लेने के लिए उसमें “नई बात” होना जरूरी है। जब आम आदमी पार्टी खड़ी हुई थी उस समय सुशासन की मांग थी। उन परिस्थितियों में हमने एक वैकल्पिक राजनीति की राह दिखाने की कोशिश की। लेकिन केजरीवाल ने पिछले छह साल में वैकल्पिक राजनीति के बजाय “वैकल्पिक व्यक्तित्व” को औजार बनाया है, जिसमें ‘न खाता न बही जो केजरीवाल कहें वही सही।’ इस सोच का दिल्ली में तो फायदा मिला, लेकिन भारत इतना बड़ा देश है कि कोई व्यक्तिवादी राजनीति देना चाहेगा तो उसकी सीमाएं उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल में मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, ममता बनर्जी के रूप में सामने हैं। ऐसी राजनीति से आप क्षेत्रीय स्तर पर तो सफल हो सकते हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा करना संभव नही है।” इन आरोपों पर गोपाल राय का कहना है, “आम आदमी पार्टी को तो लोग यह भी कहते थे कि पार्टी ही खत्म हो गई। जहां तक नेताओं की कमी की बात है तो जहां लोगों को बदलाव की जरूरत होगी वहां नेता खड़े हो जाएंगे। दिल्ली में आप ने सरकार की लड़ाई के साथ वैचारिक लड़ाई में भी भाजपा को हराया है।”
दिल्ली में 53.6 फीसदी वोटों के साथ 70 में से 62 सीट जीत कर उत्साहित आम आदमी पार्टी जिन म्युनिसिपल चुनावों के जरिए अपना आधार बनाने की तैयारी में है। उसमें मेट्रो शहरों पर उसकी खास नजर है। बेंगलूरू म्युनिसिपल चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करना उसकी प्रमुख रणनीति में शामिल है। ऐसा नहीं है कि पार्टी पहली बार दक्षिण भारत में किस्मत आजमाने की तैयारी में है। वह 2017 में गोवा विधानसभा चुनाव में मैदान में उतरी थी, लेकिन वहां उसका खाता नहीं खुला। इस रणनीति पर आनंद कुमार कहते हैं, “भले ही केजरीवाल ने दिल्ली में अपार बहुमत के साथ जीत हासिल की है, लेकिन पार्टी का जनाधार पिछले पांच साल में दूसरे राज्यों में कमजोर हुआ है। उनके पास संगठन भी नहीं है। पार्टी को छोड़कर जाने वालों की संख्या ज्यादा है। कोई भी पार्टी संगठन के बल पर ही आगे बढ़ती है। राष्ट्रीय विकल्प बनने के लिए आप को देश की समस्याओं पर अपना रुख स्पष्ट करना होगा। मसलन, दिल्ली में तो उन्होंने बिजली-पानी से परेशान लोगों को उसका समाधान दे दिया। लेकिन देश में बेरोजगारी, कृषि समस्या, आरक्षण, सांप्रदायिकता की राजनीति का समाधान रखना होगा। ”
राष्ट्रीय मुद्दों पर आम आदमी पार्टी का रुख काफी कन्फ्यूजन भरा रहा है। एक समय वह सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल खड़े कर रही थी। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों के नतीजों के बाद पार्टी ने संभल कर चलने की रणनीति अपना ली। इसी के मद्देनजर पार्टी ने धारा 370 के जरिए जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किए जाने के फैसले का समर्थन किया। शाहीन बाग के मुद्दे पर पार्टी ने अपने आप को बड़ी चालाकी से दूर रखा। लेकिन अब इन मुद्दों पर पार्टी को रुख साफ करना होगा। इस पर आनंद कुमार कहते हैं, “केजरीवाल की आर्थिक नीति को देखा जाए, तो वह वामपंथी विचारधारा के नजदीक है। लेकिन सामाजिक नीति में वे दक्षिणपंथी विचाराधारा के करीब हैं। मसलन, आरक्षण का मामला ले लीजिए, उनकी पार्टी में आरक्षण का समर्थन करने वालों की संख्या बेहद कम है। जहां तक शाहीन बाग और धारा 370 पर उनके रुख की बात है, तो उसे परिस्थितियों के आधार पर तय की गई रणनीति के रूप में देखा जाना चाहिए।”
अरविंद केजरीवाल पर भाजपा यह आरोप भी लगाती रहती है कि वह तानाशाही प्रवृति के हैं। इस पर आनंद कुमार का कहना है, “अरविंद केजरीवाल को योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण जैसे लोगों के साथ काम करने का अवसर मिला, लेकिन उन्होंने साबित किया कि वे असुविधा होने पर फंस जाते हैं। भारत में चुनाव लड़ने के लिए कम से कम 29 में से आधे राज्यों में आपके पास मुख्यमंत्री का चेहरा होना चाहिए। 543 सीटों वाली लोकसभा के लिए देश भर में मजबूत उम्मीदवार होना चाहिए। तभी आप कुछ कर सकते हैं। जहां तक पार्टी के अंदर लोकतंत्र की बात है, तो वहां समाजवादी पार्टी, जनता दल (यू) जितना भी लोकतंत्र नहीं है।” केजरीवाल की राष्ट्रीय महात्वाकांक्षा में एकला चलो की रणनीति कारगर होगी या फिर वह क्षत्रपों के साथ एक महागठबंधन के तहत आएंगे, यह तो वक्त बताएगा। लेकिन उनकी पहली परीक्षा इस साल बिहार विधानसभा चुनावों में होगी। उनके साथी रह चुके नेता कहते हैं, “अगर वह ‘वोटकटवा पार्टी’ बनकर रह जाएंगे तो उनके दरवाजे बंद हो जाएंगे। वह खुद को विकल्प के रूप में पेश करेंगे, तो राह आसान होगी। जहां तक विपक्षी नेताओं का साथ है तो बिहार, बंगाल या दूसरे राज्यों में उनकी ममता, नवीन पटनायक जैसों नेताओं को जरूरत नहीं है।”
उनकी आगे की रणनीति में इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमेटी के संस्थापक प्रशांत किशोर की भी अहम भूमिका होने वाली है। प्रशांत आम आदमी पार्टी के साथ विधानसभा चुनावों के लिए जुड़े थे। चुनावों में भारी सफलता ने उनकी और केजरीवाल की पार्टनरशिप को मजबूत किया है। जिसकी बानगी नतीजों के बाद अरविंद केजरीवाल और प्रशांत किशोर की पार्टी कार्यालय में खीची गई तसवीर में भी दिखती है। जैसा कि आनंद कुमार कहते हैं, हताशा के इस दौर में अरविंद केजरीवाल के पास एक अवसर है। देश को इस समय एक वैकल्पिक राजनीति और संस्कृति की जरूरत है। लेकिन उस जरूरत का विकल्प बनने के लिए अरविंद केजरीवाल को अपने दोषों को दूर करना होगा।
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लगातार हार से हलकान भाजपा
दिल्ली भाजपा प्रदेश कार्यालय में चुनाव नतीजे से पहले की रात लगा यह पोस्टर काफी चौंकाने वाला था कि “विजय से हम अहंकारी नहीं होते पराजय से हम निराश नहीं होते।” भारतीय जनता पार्टी जिस तरह से अपने चुनाव प्रबंधन के लिए जानी जाती है, ऐसे में यह पोस्टर कौतूहल जरूर खड़ा कर रहा था। लेकिन पार्टी के लिए ऐसा नहीं था। उसे चुनाव से पहले इस बात का अंदाजा लग गया था, कि दिल्ली की कुर्सी से उसकी 28 साल की दूरी अभी और खिंचने वाली है। लेकिन जिस तरह से एकतरफा नतीजे आए उससे पार्टी में परेशानी काफी बढ़ गई है। अब आलाकमान राज्य स्तर पर बड़ी सर्जरी करने की तैयारी में है।
भले ही दिल्ली विधानसभा चुनावों में लगातार छठी हार से परेशान आलाकमान कुछ बड़े बदलाव कर दे, लेकिन पार्टी के भीतर इस बात का एहसास है कि दिल्ली में उसके एंटी कांग्रेस मतदाताओं में आम आदमी पार्टी ने अच्छी खासी सेंध लगा दी है। चाहे अभी तक भाजपा के पाले में मजबूती से खड़े होने वाले पंजाबी और जाट मतदाता हों या फिर पूरबिया मतदाता, सभी में आम आदमी पार्टी ने अपनी पैठ मजबूत कर ली है। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, “हमारे लिए स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, इस बात का अंदेशा पार्टी को शुरुआती चरण में ही लग गया था। लेकिन हम सिंगल डिजिट में सिमट जाएंगे, ऐसी उम्मीद नहीं थी। अच्छी बात यही है कि हमारा वोट प्रतिशत बढ़ा है। 2015 के विधानसभा चुनावों में 32 फीसदी वोट मिले थे, जो अब 38 फीसदी है।”
पार्टी के नेता भले ही कुछ कहें लेकिन हकीकत यह है कि चुनावों में वह केजरीवाल ब्रांड के सामने टिक नहीं पाई। इसलिए उनकी आक्रामक चुनावी रणनीति भी असफल हुई। खुद गृह मंत्री अमित शाह भी अब यह मान रहे हैं कि चुनावों में “भारत-पाकिस्तान और गोली मारो जैसे बयानों से पार्टी को नुकसान हुआ है।” हालांकि उन्होंने अपने शाहीन बाग को करंट लगने वाले बयान को हार का कारण खुले तौर पर नहीं माना है। लेकिन जिस तरह से पूरे चुनाव की कमान खुद अमित शाह ने संभाली हुई थी, और वे बार-बार कह रहे थे कि नतीजे चौंकाने वाले होंगे। उसके विपरीत नतीजों से उनकी “चाणक्य” छवि को भी झटका लगा है।
शाह ने दिल्ली चुनावों में करीब 36 जनसभाएं और पद यात्राएं की थीं। यही नहीं, उन्होंने दूर होते मतदाताओं को लुभाने के लिए बूथ लेवल पर मीटिंग की रणनीति अपनाई। चुनाव में पार्टी के 300 से ज्यादा सांसदों और सभी प्रमुख राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी झोंकने के बाद भी पार्टी सरकार बनाना तो दूर मजबूत विपक्ष के रूप में भी अपने को खड़ा नहीं कर पाई। असल में, चुनाव प्रचार के दौरान पार्टी को अपनी उस आंतरिक रिपोर्ट से झटका लगा, जिसमें भाजपा को महज 18 फीसदी वोट मिलने की बात कही गई थी। पार्टी सूत्रों के अनुसार, इसी के बाद अमित शाह ने पूरी कमान अपने हाथ में ले ली थी। आलाकमान को इस बात पर भरोसा नहीं हो रहा था कि जो पार्टी महज 10 महीने पहले लोकसभा चुनावों में करीब 57 फीसदी वोट लेकर आई थी। उसका वोट इतना घट सकता है। इसी रिपोर्ट के बाद पार्टी ने अपनी पूरी रणनीति बदल दी। उसका सारा फोकस शाहीन बाग और हिन्दू मतों के ध्रुवीकरण पर हो गया। अगर आंतरिक रिपोर्ट के आधार पर देखें, तो निश्चित तौर पर भाजपा को इसका फायदा मिला है। लेकिन वह इतना नहीं था कि केजरीवाल को कोई चुनौती मिल सके। दिल्ली भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार, पार्टी में गुटबाजी भी एक बड़ी समस्या पिछले कई चुनावों से बनी हुई है। एक समय दिल्ली में पंजाबी नेताओं का पार्टी पर कब्जा हुआ करता था। लेकिन जिस तरह से दिल्ली में लगातार पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के मतदाताओं की अहमियत चुनावों में बढ़ी, उससे पार्टी को इन मतदातओं को लुभाने के लिए मनोज तिवारी जैसे नेताओं को आगे करना पड़ा। इसकी वजह से पार्टी में गुटबाजी भी बढ़ी है।
इन चुनावों में पार्टी ने अपने सबसे हिट ब्रांड प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी इस्तेमाल ज्यादा नहीं किया है। सूत्रों के अनुसार पार्टी ने प्रधानमंत्री की 12 जनसभाएं कराने की मांग की थी। लेकिन नरेंद्र मोदी ने पूरे चुनाव में केवल दो रैलियां ही कीं। शायद पार्टी यह नहीं चाहती थी कि हार के बाद ब्रांड मोदी पर सवाल उठने लगें। लोकसभा चुनावों के बाद पार्टी एक-एक करके राज्य गंवाती जा रही है, उससे विपक्ष को अब यह भरोसा होता जा रहा है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी अजेय नहीं है। यही अब नए पार्टी अध्यक्ष जे.पी.नड्डा की चुनौती है।