शनिवार यानी 8 जून से ट्विटर पर हैशटैग #ReleasePrashantKanojia ट्रेंड कर रहा है। यह कई सार्वजनिक प्रतिक्रियाओं में से एक है, जो प्रशांत कनौजिया की गिरफ्तारी से शुरू हुई जो कि एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और पहले 'द वायर हिंदी' के साथ जुड़े रहे हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बारे में अपने सोशल मीडिया पोस्ट के लिए यूपी पुलिस ने उन्हें दिल्ली में उनके घर से गिरफ्तार कर लिया।
प्रधानमंत्री के रूप में दूसरे कार्यकाल में लौटने पर नरेंद्र मोदी ने ‘सबका साथ, सबका विकास’ के 5 साल पुराने नारे में ‘सबका विश्वास’ जोड़ा। हालांकि लगता नहीं कि प्रेस को यह ‘विश्वास’ वाली बात पर भरोसा दिलाने की दिशा में कोई प्रगति हुई है।
क्या यह यूपी पुलिस का यूं ही किया गया काम है? या यूपी के मुख्यमंत्री की तस्दीक के साथ कनौजिया की गिरफ्तारी का इरादा पत्रकारों में डर पैदा करना है? क्या यह भी संदेश है कि ऐसे मामलों में यूपी के अधिकारियों का अधिकार राज्य से भी बाहर है, जिसमें राष्ट्रीय राजधानी में रहने और काम करने वाले लोग भी शामिल हैं?
कनौजिया को भारतीय दंड संहिता की धारा 500 (मानहानि) और 505 (अफवाहें और सार्वजनिक कुप्रचार) और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 67 के तहत गिरफ्तार किया गया था। उन्होंने हाल ही में ट्विटर और फेसबुक पर एक वीडियो साझा किया था, जिसमें एक महिला योगी आदित्यनाथ से शादी करने की इच्छा टीवी चैनलों से जता रही थी। उसने दावा किया कि वह लंबे समय से मुख्यमंत्री के साथ वीडियो के जरिए बात कर रही है और जानना चाहती है कि क्या वह (योगी) उसके साथ अपना जीवन व्यतीत करेंगे। कनौजिया ने यह वीडियो अपनी टिप्पणी के साथ पोस्ट किया।
उनकी गिरफ्तारी का तरीका, विशेष रूप से वीकेंड की शुरुआत में जिसकी वजह से सोमवार तक वह अदालत में नहीं पेश हो सकते, यह चौंकाने वाली बात है और इसे सत्ता में बैठे लोगों का मजाक उड़ाने वाले पत्रकारों पर कठोर नियंत्रण की तरह देखा जा सकता है। कनौजिया की पत्नी ने कहा कि उन्हें गिरफ्तारी वारंट भी नहीं दिखाया गया था।
पत्रकारों, कलाकारों और लेखकों को डराने और आतंकित करने और बोलने की स्वतंत्रता को दबाने के उद्देश्य से इस तरह की पुलिसिया कार्रवाई किसी एक पार्टी या राज्य तक सीमित नहीं है।
पिछले नवंबर में, मणिपुर चैनल ISTV के एक एंकर-संपादक, किशोरचंद्र वांगखेम को भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार और मुख्यमंत्री बीरेन सिंह की आलोचना करने वाले एक वीडियो पोस्ट के लिए गिरफ्तार किया गया था। दिसंबर में एक अदालत ने उन्हें छोड़ दिया। फिर से उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत हिरासत में लिया गया। हालांकि वांगखेम का वीडियो भड़काऊ माना जा सकता था लेकिन इसमें ऐसा कुछ भी नहीं था जो राष्ट्रीय सुरक्षा या सार्वजनिक व्यवस्था को खतरे में डालता हो और जिससे उन्हें दमनकारी एनएसए के तहत गिरफ्तार करने का औचित्य साबित किया जा सके।
ऐसा नहीं है कि बीजेपी की जमीन से बाहर के पत्रकार सुरक्षित हैं। यहां तक कि अगर उनके मन में भाजपा को लेकर नरम रुख है, तो भी उन्हें पुलिस की कार्रवाई और राजनीतिक उत्पीड़न का खतरा रहता है। अभिजीत अय्यर-मित्रा ने 23 अक्टूबर को कोणार्क सूर्य मंदिर और पुरी के जगन्नाथ मंदिर के खिलाफ "आपत्तिजनक टिप्पणी" को लेकर गिरफ्तारी के बाद 43 दिन जेल में बिताए। उन्होंने ताना मारते हुए रसगुल्ले को ओड़िया नहीं बल्कि बंगाली मूल का बताया था। बीजद द्वारा मित्रा के पीछे पड़ जाने से पता चलता है कि मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, चार कार्यकालों के बाद भी, शायद अभी भी असुरक्षित हैं और इसलिए उन पत्रकारों को लेकर असहिष्णु हैं जिन्हें अपने पक्ष में नहीं लाया जा सकता।
ऐसे कई मामले हैं। उदाहरण के लिए, तेलुगु लेखक और कवि वरवर राव का उत्पीड़न, जिन्हें अब "शहरी नक्सली" (इसका जो भी मतलब हो) कहकर टारगेट किया जाता है।
राज्य की एजेंसियों द्वारा इस तरह की दमनकारी कार्रवाईयों से पता चलता है कि शासक वर्ग के लिए बड़े मीडिया, प्रिंट और विशेष रूप से टीवी पर लगाम लगाना आसान हो सकता है लेकिन स्वतंत्र रूप से काम करने वाले पत्रकार, ब्लॉगर, लेखक, कवि और सोशल मीडिया पर सक्रिय लोग सत्ता के अभिजात वर्ग के लिए एक गंभीर चुनौती हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया राज्यों और देशों के लाखों लोगों तक विचारों को पहुंचाने का माध्यम हैं। यहां रिपोर्टर और पत्रकार केवल उसकी अभिव्यक्ति और प्रभावकारिता तक सीमित हैं। इसे राज्य नियंत्रित नहीं कर सकता जब तक उन्हें शारीरिक तौर पर गिरफ्तार न किया जाए।
इसमें यह संदेश निहित है: सत्ता के सामने झुके रहने वाले मीडिया संसार के मालिकों से ज्यादा स्वतंत्र दिमाग वाले पत्रकारों के पास डरने की वजहें हैं।