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चुनाव नतीजे: उत्तर प्रदेश और बंगाल पर सबकी नजर, क्या ये राज्य दिला पाएंगे दिल्ली की गद्दी

उत्तर प्रदेश और बंगाल मिलकर सरकार बनाएंगे...” 17वीं लोकसभा के चुनाव में मतदान के आखिरी चरण में तृणमूल...
चुनाव नतीजे: उत्तर प्रदेश और बंगाल पर सबकी नजर, क्या ये राज्य दिला पाएंगे दिल्ली की गद्दी

उत्तर प्रदेश और बंगाल मिलकर सरकार बनाएंगे...” 17वीं लोकसभा के चुनाव में मतदान के आखिरी चरण में तृणमूल कांग्रेस की नेता, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का यह बयान उस नई सियासत के सूत्र खोलता है जिसके संकेत चुनाव की आखिरी बेला में क्षितिज पर उभरते इंद्रधनुषी रंगों से मिलने लगे हैं। बेशक, ममता कुछ थमकर फौरन इसमें “तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र, तेलंगाना, ओडिशा” को भी जोड़ देती हैं। यह राष्ट्र की सियासत की मानो नई व्याख्या है। इसे 2014 के चुनावी नतीजों के बरक्स देखें तो इसके मायने ज्यादा स्पष्ट होंगे, जब यह सवाल शिद्दत से किया जाने लगा था कि क्या क्षेत्रीय दलों के दिन लद गए? लेकिन पांच साल बाद राष्ट्रीय परिदृश्य पर क्षेत्रीय दल ऐसे नमूदार होते दिख रहे हैं, मानो पांच साल पहले के सवाल को खारिज करने के लिए धमाकेदार वापसी कर रहे हों। इसकी गूंज कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी में भी जोरदार ढंग से सुनाई देती है। उन्होंने आउटलुक से बातचीत में क्षेत्रीय दलों जैसी व्याख्या को नामंजूर कर दिया और कहा, “उनमें देश की धड़कन सुनाई देती है, उनके बिना भारत अधूरा है।” हालांकि आउटलुक से ही बातचीत में भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, “ये कयास सही नहीं हैं, हम बहुमत के करीब पहुंच रहे हैं।”

वैसे, चुनाव नतीजों की भविष्यवाणी करना बड़बोलेपन से कम नहीं होता। सामान्य, सहज चुनावों में भी बड़े से बड़े राजनैतिक पंडित मुंह की खा जाते हैं। फिर अब तक न देखे गए ध्रुवीकरण और गोलबंदी वाले घमासान चुनाव में तो नतीजों के कयास में काफी जोखिम है। फिर भी ज्यादातर चुनावी विश्लेषकों और जानकारों का यही मानना है कि किसी पार्टी को छोड़िए, किसी गठबंधन को भी स्पष्ट बहुमत मिलने की गुंजाइश कम दिखती है। देश का चुनावी इतिहास गवाह है कि जब-जब ऐसी स्थितियां बनती हैं तब-तब खास इलाके तक सीमित क्षेत्रीय दलों और खास समुदाय के पहचान वाली छोटी पार्टियों की अहमियत बढ़ जाती है। इसके सबसे करीब की मिसाल 1996-97 की है जब संयुक्त मोर्चा की एच.डी. देवेगौड़ा और बाद में इंद्र कुमार गुजराल की सरकारें कांग्रेस के बाहरी समर्थन से बनी थीं।

सूत्रधारः राकांपा के दिग्गज शरद पवार

अगर ऐसा हुआ तो ये चुनाव यह भी तय करने जा रहे हैं कि महज दो राष्ट्रीय पार्टियों के इर्द-गिर्द ही देश की सत्ता की बुनावट नहीं बुनी जाती रहेगी। हालांकि अब तक का इतिहास तो यही रहा है कि देश के अलग-अलग राज्यों में काबिज पार्टियां किसी एक धुरी के अभाव में अपने राजनैतिक हितों और अहंकार के दबाव में बिखर जाती हैं और फिर देश कांग्रेस और भाजपा की ओर मुड़ जाता है। लेकिन इस लंबी बहस के इतर फिलहाल तो ये क्षत्रप दिल्ली की गद्दी पर मजबूत दावेदारी पेश करते दिख रहे हैं। लेकिन यह दावेदारी तभी रंग लाएगी जब 23 मई को नतीजे वाकई ऐसे आते हैं जिससे क्षेत्रीय दलों के हाथ लगाम आ जाए। ऐसा तभी संभव होगा जब भाजपा नीत एनडीए की सीटें 2014 के 336 से करीब 100 से 150 तक घट जाएं। यह तो तय है कि कांग्रेस की सीटें 2014 के 44 के मुकाबले इतनी नहीं बढ़ सकतीं कि वह बड़े मोलतोल की धुरी बन जाएं। संभव है कांग्रेस के साथ राजद, राकांपा, द्रमुक, झामुमो वगैरह मिलकर इतनी सीटें हासिल कर लें कि यूपीए मजबूत स्थिति में आ जाए। तो, आइए नतीजों के आने के बाद विभिन्न परिदृश्यों का एक मोटा आकलन किया जाए।

परिदृश्य एकः एनडीए की वापसी

भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कट्टर समर्थक भी यह नहीं कह रहे हैं कि एनडीए की 2014 जैसी वापसी हो सकती है। इसकी मोटी वजह तो यही है कि भाजपा अकेले दम पर पिछली बार 282 सीटें जिन राज्यों से लेकर आई थी, उनमें लगभग समूची या अधिकांश सीटें उसे मिल गई थीं। मोदी भले यह दावा करें कि “पहली बार देश में प्रो-इंकंबेंसी लहर चल रही है” लेकिन भाजपा और मोदी को उन सभी राज्यों में तगड़ी चुनौती मिल रही है जहां से उन्हें 2014 में एकमुश्त सीटें मिल गई थीं। फिर उसे बंगाल और ओडिशा से शायद ही इतनी सीटें मिलें जिससे इसकी भरपाई हो जाए। इसलिए ज्यादा संभावना यही है कि भाजपा और उसके सहयोगी दलों शिवसेना, जद-यू, लोक जनशक्ति पार्टी की सीटें घटेंगी। भाजपा के तमिलनाडु में नए सहयोगियों अन्नाद्रमुक और कुछ छोटे दलों को भी इतनी सीटें मिलने का अनुमान कोई नहीं लगा रहा है, बल्कि इसके बदले वहां द्रमुक और कांग्रेस की संभावनाएं बेहतर लग रही हैं। ऐसे में अच्छे अनुमानों के हिसाब से भी 200 के आसपास एनडीए की सीटें आती हैं तब भी उसे कम से कम 72-73 सांसदों की दरकार होगी। इतनी सीटें उसे संभावित सहयोगियों से जुगाड़ करनी पड़ सकती हैं।

यह तभी संभव है जब एनडीए को बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति, जगनमोहन रेड्डी के साथ-साथ द्रमुक और बसपा या सपा वगैरह का नई सरकार को भीतर या बाहर से समर्थन हासिल हो जाए। या फिर तृणमूल कांग्रेस का समर्थन हासिल हो जाए। लेकिन मौजूदा हालात में तृणमूल से समर्थन तो सपने जैसा है, द्रमुक और सपा-बसपा से भी इसकी उम्मीद शायद ही की जा सकती है। हालांकि, तमिलनाडु भाजपा अध्यक्ष ने हाल ही में यह दावा किया कि द्रमुक अध्यक्ष स्टालिन से उनकी बातचीत चल रही है, लेकिन फौरन स्टालिन की ओर से इसका खंडन भी आ गया। वैसे, ओडिशा में फणी चक्रवात ने प्रधानमंत्री को मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से रिश्तों में कुछ नरमी लाने का मौका जरूर दे दिया। प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्री के साथ प्रभावित इलाकों का दौरा किया, फौरन 1,000 करोड़ रुपये की केंद्रीय मदद का ऐलान किया और लगे हाथ चक्रवात से पहले लोगों को सुरक्षित स्‍थान पर पहुंचाने के लिए नवीन बाबू की प्रशंसा की। हालांकि इसके पहले भाजपा ओडिशा में नवीन बाबू की पार्टी को चुनौती देने के लिए हर औजार आजमा चुकी है। वैसे, नवीन बाबू के लिए भाजपा सरकार को समर्थन देना राज्य में जोखिम भरा है। लेकिन यह मान भी लिया जाए तो नरेंद्र मोदी के लिए दोबारा सत्ता हासिल करना आसान नहीं दिखता है।

भाजपा सबसे बड़ी पार्टी और एनडीए सबसे अधिक सीटों वाला गठबंधन बनकर आता है और मोदी के नाम पर सहयोगी दलों की सहमति न बने तो किसी और को मौका देने के कयास भी हैं, क्योंकि शिवसेना जैसे सहयोगी दल पिछले दिनों मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के प्रति नापसंदगी जाहिर कर चुके हैं। लेकिन भाजपा में बाकी नेताओं की जो स्थिति है, उसमें नेता पद पर मोदी-शाह की जोड़ी के अलावा किसी के उभरने की संभावना कम ही नजर आती है। यह संभावना भी बेहद थोड़ी है कि भाजपा किसी क्षेत्रीय दल के नेता को प्रधानमंत्री पद के लिए स्वीकार कर ले या तीसरे मोर्चे की किसी सरकार को बाहर से समर्थन दे। दोनों ही स्थितियां मोदी-शाह की जोड़ी के लिए माकूल नहीं ही बैठ सकतीं, भाजपा और संघ परिवार को भी शायद ही मंजूर हो। एक वजह यह भी है कि पिछले पांच साल में माहौल बेहद कटु बन गया है।

दूसरा परिदृश्यः कांग्रेस को सत्ता में शह

यह तभी संभव है जब कांग्रेस कम से कम इतनी सीटें ले आए कि वह सबसे बड़ी पार्टी या दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरे। इसके लिए पार्टी ने अपने आखिरी औजार प्रियंका गांधी को भी मैदान में उतारा है। कांग्रेस के एक बड़े नेता ने आउटलुक से कहा, “हमारी सीटें 120 के आंकड़े को पार कर सकती हैं।” लेकिन शर्त यह भी है कि उसके यूपीए के सहयोगियों की अच्छी संख्या में सीटें आएं। बेशक, महाराष्ट्र में यूपीए के घटक राकांपा की अच्छी सीटें आने की उम्मीद है। संभावना तो बिहार में राजद और उसके सहयोगियों की भी ठीक-ठाक बताई जा रही है और झारखंड में भी झामुमो कुछ सीटें ला सकती है। तमिलनाडु में द्रमुक की संभावनाएं जरूर अच्छी बताई जा रही हैं। इसके बावजूद यूपीए बहुमत के आंकड़े से बहुत पीछे रह सकती है। उसे सरकार बनाने के लिए तृणमूल, सपा-बसपा, वाम मोर्चे, तेलुगु देशम की दरकार पड़ सकती है। यूं तो कांग्रेस तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव और आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी के संपर्क में बताई जा रही है। जगनमोहन रेड्डी ने कांग्रेस के प्रति अपनी नाराजगी भुला देने के भी संकेत दिए हैं। लेकिन चंद्रशेखर राव की कोशिशें गैर-भाजपा गैर-कांग्रेस मोर्चे को शह देने की ज्यादा हैं।

हालांकि द्रमुक के स्टालिन पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि वे राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। कुछ-कुछ ऐसा ही बयान राकांपा के शरद पवार भी दे चुके हैं। इसी मकसद से वे तमाम भाजपा या कहिए मोदी-शाह विरोधी दलों और नेताओं को गोलबंद करने की कोशिश में भी लगे रहे हैं। कांग्रेस ने कर्नाटक चुनावों के बाद ही मोदी विरोधी मोर्चे की शुरुआत कर दी थी। वह पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा की पार्टी जद-एस के कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री पद देने को तैयार हो गई, तभी उसने अपना लचीलापन जाहिर कर दिया था। उस समय बेंगलूरू में तमाम विपक्षी नेताओं का जमावड़ा हुआ, जिसमें बसपा की मायावती भी पहुंची थीं। लेकिन मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्‍थान के विधानसभा चुनावों के समय मायावती के साथ सीटों के तालमेल की बात नहीं बनी। कांग्रेस को इसका खामियाजा उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन से अलग रहकर उठाना पड़ा। हालांकि सपा प्रमुख अखिलेश यादव का रुख कांग्रेस के प्रति जरूर लचीला है। अभी भी वे यही कहते हैं, “प्रधानमंत्री तो कोई उत्तर प्रदेश से ही बनेगा।”

बहरहाल, कांग्रेस ने लचीला रुख अपना रखा है और उसे भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए तीसरे मोर्चे के किसी नेता को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार करने में शायद ही परहेज हो। राहुल गांधी भी यही कहते हैं, “जो जनता का फैसला होगा, उसे स्वीकार करेंगे, लेकिन मोदी सत्ता में नहीं लौटेंगे।”

तीसरा परिदृश्यः तीसरे मोर्चे की जय

मौजूदा परिस्थितियों में इसकी संभावना ज्यादा दिख रही है। वजह यह कि पिछले पांच साल में मोदी-शाह जोड़ी के राज से सबसे ज्यादा परेशान और कई मामलों में अपने राजनैतिक वजूद को बचाने की जद्दोजहद में लगे कथित क्षेत्रीय दल ही एक मायने में कांग्रेस से ज्यादा मौजूदा सत्ताधारियों को दिल्ली की गद्दी से दूर करना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा-रालोद ने अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए ही गठबंधन को आकार दिया। इससे पहली बार मायावती को भी प्रधानमंत्री बनने की संभावनाएं दिखने लगी हैं। उनकी पार्टी तो इसे प्रचारित भी कर रही है। हाल के दिनों में मायावती के मोदी पर तीखे हमले को भी इसी अंदाज में देखा जा सकता है। वे कांग्रेस पर भी लगातार हमलावर हैं और भाजपा तथा कांग्रेस को एक ही पलड़े में तौल रही हैं। इससे अखिलेश यादव की ओर भी लगातार यह सवाल उछाला जा रहा है कि वे मायावती को प्रधानमंत्री बनाने के हक में हैं या नहीं। वैसे, अखिलेश अभी भी इसी बयान पर टिके हैं कि प्रधानमंत्री तो उत्तर प्रदेश से ही होगा।

इसी तरह ममता बनर्जी की भी शायद दिल्ली की गद्दी पर नजर है। वे लगातार तमाम प्रदेशों के नेताओं से संपर्क में हैं। आंध्र के चंद्रबाबू नायडू भी यूं तो हाल तक बहुत सक्रिय रहे हैं लेकिन राज्य में जगनमोहन रेड्डी की बेहतर संभावनाओं के मद्देनजर शायद कुछ शांत हो गए हैं। वे दो साल पहले एनडीए से हटने के बाद से ही कांग्रेस की अगुआई में तमाम विपक्षी नेताओं से संपर्क में रहे हैं। हालांकि कांग्रेस का राज्य में उनकी पार्टी के साथ तालमेल नहीं हो पाया।

उधर, चंद्रशेखर राव अपनी तईं सक्रिय हैं और हाल में ही वे केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन और द्रमुक नेता स्टालिन से मिले। वे कुमारस्वामी और बाकी नेताओं से भी मिलकर तीसरे मोर्चे को आकार देने की कोशिश में हैं। यानी तीसरा मोर्चा या संयुक्त मोर्चा इन नेताओं की कोशिशों से आकार लेता है तो कांग्रेस को बाहर से समर्थन देने में शायद ही परहेज हो। इस मोर्चे से प्रधानमंत्री के दावेदारों में मायावती, ममता, देवेगौड़ा, शरद यादव के अलावा और भी कई नाम हैं। एक मुहिम यह भी चल रही है कि इस बार प्रधानमंत्री दक्षिण से होना चाहिए। हालांकि उसकी गुंजाइश इसलिए कम दिखती है कि देवेगौड़ा कह चुके हैं कि उन्हें राहुल की अगुआई में काम करने में खुशी होगी जबकि स्टालिन शायद ही तमिलनाडु की गद्दी छोड़कर बाहर आएं, क्योंकि वहां उन्हें अपनी विरासत की जमीन पक्की करनी है। चंद्रशेखर राव और चंद्रबाबू नायडु की इतनी सीटें आने की गुंजाइश कम है, जिससे वे अपनी अहमियत साबित करें।

बहरहाल, गोलबंदियों की बातचीत शुरू हो चुकी है और 21 मई को तमाम विपक्षी नेताओं की बैठक की भी बातें हैं। जो हो, राजनीति अनिश्चितताओं का खेल है इसलिए 23 मई को जनादेश जैसा सुनाई देगा, उसी पर सब कुछ निर्भर करेगा।

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