कई सवालों में एक बड़ा सवाल यह है कि क्या अप्रत्याशित नतीजों के बाद शिव सेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे भाजपा की राज्य सरकार से समर्थन वापस लेने का माद्धा दिखाने की स्थिति में हैं। चुनाव प्रचार के दौरान उद्धव सरकार से अलग होने की धौंस लगातार दिखाते रहे।
ताजा चुनावों के बाद भाजपा के बढ़े रुतबे ने शिवसेना के किले की चूलें बुरी तरह हिला ही दी हैं। 2014 के चुनावों के बाद अब नगर निकायों के चुनावों के नतीजों ने भी यह तय कर दिया है कि राज्य में भाजपा का जुनियर पार्टनर रहना ही अब सेना की नियति है। इसे सहज ही स्वीकार कर लेना और भाजपा के पल्लू से बंधे रहने की स्थिति शिवसेना नेतृत्व को आसानी से हजम नहीं होने वाली है। आक्रामकता ही शिवसेना की थाती रही है। जनता के बीच उसकी साख औंधे मुंह न गिरे, इसके लिए शिव सेना सुप्रीमो राज्य की भाजपा सरकार से अलग भी हो जाए को आश्चर्य की बात नहीं होगी।
अलग होने की उद्धव की धमकी के जबाव में देवेंद्र फडनवीस भी यह बोलते रहे हैं कि भाजपा के हाथ खींच लेने से भी उनकी सरकार पर आंच नहीं आएगी। जाहिर है उन्होंने एनसीपी के संभावित समर्थन के बूते ऐसा कहा होगा लेकिन एनसीपी पहले ही ऐसी सूरत में किसी का भी साथ नहीं देने की मुनादी कर चुकी है। इसलिए शिव सेना एक बेहद जटिल स्थिति के रू ब रू है।
288 सीटों वाली महाराष्ट्र विधान सभा में भाजपा को 122 सीटें हैं। शिवसेना के पास 63 सीटें हैं, कांग्रेस के पास 42 और एनसीपी के पास 42 सीटें हैं। शिव सेना अगर खुद सरकार बनाने के लिए मंसूबे बांधे तो कांग्रेस से तत्काल समर्थन मिल जाएगा। लेकिन शरद पवार की एनसीपी से समर्थन मिलने को लेकर संशय जरूर है।