सीताराम येचूरी ने भी इस दुविधा का इजहार किया है। उनका कहना है कि सांसद बने रहने पर संसद के कामकाज पर भी ध्यान देना होगा और महासचिव के तौर पर उन्हें पूरा ध्यान पार्टी को देना होगा। वैसे भी उनके पास ऐसे समय पार्टी की कमान आई है, जब उसका आधार बुरी तरह खिसक चुका है और वैकल्पिक राजनीति के विमर्श के केंद्र से भी वाम दल बाहर है।
ऐसे में सीताराम येचूरी के पक्ष में यह तर्क जरूर दिया जा रहा है कि माकपा के वह लोकप्रिय नेता हैं। एक ऐसे नेता जिनकी पूछ वाम दायरे से बाहर प्रगतिशील-जनवादी और एक हद तक मध्यम वर्ग में है। ऐसे में माकपा हिंदी भाषा-भाषी क्षेत्र में अपनी उपस्थिति बढ़ाने की जो लंबे समय से ख्वाहिश पाने हुई है, उसे मुखर करने के लिए सीताराम येचूरी के रूप में नेता उसे मिला है। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टियों के इतिहास में बिना कैडर के किसी भी दल का विकास करना असंभव रहा है। यानी सीताराम येचूरी के पास सबसे बड़ी चुनौती अपनी बची हुई जमीन को बचाए रखा और उसमें नया इजाफा करना है।
माकपा में इस बार उत्तर भारत के कई नेताओं का केंद्रीय समिति और पॉलित ब्यूरो में प्रवेश हुआ है। इससे यह आभास मिलता है कि इस क्षेत्र को सही प्रतिनिधित्व देने और यहां से पार्टी का आभार विकसित करने के बारे में माकपा ने रणनीतिक फैसला किया है। केंद्रीय समिति में 17 नए सदस्यों में एक दलित नेता रामचंद्र डोम और तीन महिलाओं को जगह मिली हैं, जिनमें मिनोती घोष, अंजु कार और जगमति सांगवान। इसी तरह से कानपुर से सुभाषनी अली को पॉलित ब्यूरो में शामिल करके भी जेंडर बैलेंस करने की कोशिश की गई है। इससे पहले सिर्फ वृंदा कारात ही इसमें अकेली महिला प्रतिनिधि थी। पॉलित ब्यूरो में शामिल किए गए चार लोगों में सुभाषनी अली के अलावा हनन मोल्ला, मोहम्द सलीम और जी. रामाकृष्णन का नाम है।