भारत में पिछले कुछ समय से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) विभाग का नाम सुर्खियों में अक्सर बना रहता है। संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत कार्यरत भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की स्थापना वर्ष 1861 में हुई थी। यह देश की सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण एवं पुरातात्विक शोध के क्षेत्र में एक प्रमुख संगठन है। भारत में ऐसी तमाम घटनाएं हुईं जब पुरातत्व विभाग के हस्तक्षेप की जरूरत पड़ी।
हालिया उदाहरण लेते हैं। जैन मुनियों का एक समूह राजस्थान के अजमेर जिले में स्थित ‘अढाई दिन का झोपड़ा’ मस्जिद का निरीक्षण करने पहुंची थी। निरीक्षण के बाद जैन मुनि सुनील सागर जी महाराज ने उसे जैन मस्जिद करार दिया। इसके बाद से ही पुरातत्व विभाग के अंतर्गत आने वाला ‘अढाई दिन का झोपड़ा’ मस्जिद को लेकर बहस तेज हो गई। एएसआई की वेबसाइट पर, स्मारक को 1199 ई. में दिल्ली सल्तनत के पहले सुल्तान कुतुब-उद-दीन-ऐबक द्वारा निर्मित एक मस्जिद के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। मालूम हो कि इससे पहले भी ‘अढाई दिन का झोपड़ा’ को लेकर अलग-अलग दावे किये जा चुके हैं।
बीजेपी सांसद रामचरण बोहरा ने मस्जिद पर दावा करते हुए कहा कि ‘अढाई दिन के झोपड़ा’ को बनाने के लिए वहां मौजूद संस्कृत विद्यालय को तोड़ा गया था। अजमेर के हालिया मामले के इतर, आइये कुछ ऐसे मामलों पर एक नजर डालते हैं जिसमें आरोप लगे थे कि किसी खास परिसर के नीचे मंदिर है।
बाबरी मस्जिद, उत्तर प्रदेश
बाबरी मस्जिद का वाक्या इस फेहरिश्त में सबसे ऊपर है। 6 दिसंबर, 1992 को हिंदू समूदाय की भारी भीड़ ने 1600वीं शताब्दी में बने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया। बाद में दंगे की शक्ल ले चुके इस लड़ाई के कारण तकरीबन 2000 लोगों ने अपनी जान गंवा दी थी। बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि को लेकर 2003 में एएसआई की रिपोर्ट आई थी। रिपोर्ट में मुताबिक एएसआई को ऐसे साक्ष्य मिले जो यह इशारा करते थे कि पहले से मौजूद मंदिर को तोड़ कर मस्जिद बनाया गया था।
जैसा कि आउटलुक ने पहले भी रिपोर्ट किया है, एएसआई ने 12 अगस्त को सर्वेक्षण पूरा होने के केवल 10 दिनों के भीतर खुदाई स्थल पर मंदिर के खंडहरों की कथित खोज के विवरण के साथ 574 पेज की रिपोर्ट तैयार की थी। अयोध्या स्वामित्व विवाद मामले में एक पक्ष, सुन्नी वक्फ बोर्ड ने तब कहा था कि एएसआई की रिपोर्ट "अस्पष्ट और आत्म-विरोधाभासी" है।
एएसआई सर्वेक्षण के सोलह साल बाद, 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर पूर्ण विराम लगाते हुए यह राम मंदिर के निर्माण का आदेश दिया साथ ही अपने फैसले में 2003 एएसआई रिपोर्ट का व्यापक रूप से उल्लेख भी किया। इससे इतर कोर्ट ने सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद के लिए अयोध्या में पांच एकड़ की जमीन भी दी।
कोर्ट के फैसले के बाद दूसरा पक्ष यानी सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील, जफरयाब जिलानी ने कहा कि बोर्ड फैसले की इज्जत करती है लेकिन वो उससे खुश नहीं है। जिलानी ने आगे कहा, “इसमें बहुत सारे विरोधाभास हैं, हम समीक्षा की मांग करेंगे क्योंकि हम फैसले से संतुष्ट नहीं हैं।” लेकिन कुछ दिन बाद उत्तर प्रदेश के सुन्नी वक्फ बोर्ड के चेयरमैन जुफर फारूकी ने फैसले की समीक्षा करने की बात को वापस ले लिया।
ज्ञानवापी-काशी विश्वनाथ मंदिर, उत्तर प्रदेश
एएसआई के उत्तर प्रदेश के वाराणसी में स्थित ग्यानवापी मस्जिद के सर्वेक्षण को लेकर भी काफी बवाल हुआ था। दरअसल, एएसआई ने वाराणसी अदालत के आदेश पर ज्ञानवापी मस्जिद परिसर का सर्वेक्षण किया ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या मस्जिद का निर्माण "एक हिंदू मंदिर की पहले से मौजूद संरचना पर की गई है"।
आपको बता दें यह विवाद 1991 से चला आ रहा है। 1991 में तीन स्थानीय हिंदुओं ने तीन हिंदू देवताओं- शिव, श्रृंगार गौरी और गणेश की ओर से वाराणसी उच्च न्यायालय के समक्ष एक याचिका दायर की थी। याचिका में ज्ञानवापी भूमि को काशी विश्वनाथ मंदिर को बहाल करने की बात कही गई थी। इसके अलावा मुसलमानों को परिसर से हटाने और मस्जिद का विध्वंस करने की भी मांग थी।
आठ बार एक्सटेंशन देने के बाद, एएसआई ने 18 दिसंबर को अपनी 1000 पन्नों की रिपोर्ट अदालत को सौंपी, जिसमें उसने घोषणा की कि मौजूदा संरचना (मस्जिद) और उसके कुछ हिस्सों के निर्माण से पहले वहां एक "बड़ा हिंदू मंदिर" मौजूद था।
आजतक की रिपोर्ट की माने तो, काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद का विवाद काफी हद तक अय़ोध्या जैसा ही है। अयोध्या के मामले में मस्जिद बनाई गई थी जबकि इस मामले में मंदिर-मस्जिद, दोनों ही बने हुए हैं। काशी विवाद में हिंदू पक्ष का कहना है कि 1669 में मुगल शासक औरंगजेब ने यहां काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़कर ज्ञानवापी मस्जिद बनाई थी, लेकिन मुस्लिम पक्ष का अलग मानना है। मुस्लिम पक्ष कहता है कि यहां कभी मंदिर था ही नहीं, बल्कि शुरूआत से ही मस्जिद बनी थी। इस मामले को लेकर भी कई राजनीतिक दांवपेंच खेले जा रहे हैं।
भोजशाला-कमल मौला, मध्यप्रदेश
मध्य प्रदेश के धार जिले में स्थित भोजशाला का विवाद 2000 के दशक की शुरुआत से ही है। भोजशाला, एएसआई द्वारा संरक्षित स्थल जिसको लेकर हिंदू दावा करते हैं कि यह देवी सरस्वती का मंदिर है जिसे सन् 1034 में राजा भोज ने संस्कृत की पढ़ाई के ले बनवाया था लेकिन बाद में मुगल आक्रांताओं ने उसे तोड़ दिया, जबकि मुस्लिम समाज का कहना है कि वो सालों से यहां नमाज पढ़ते आ रहे हैं। वो इसे भोजशाला-कमल मौला मस्जिद मानते हैं। पिछले कुछ वर्षों में यह स्थान हिंसक घटनाओं के केंद्र में रहा है।
विवाद की जड़ 2003 की एएसआई अधिसूचना में निहित है, जिसमें हिंदुओं को बसंत पंचमी के लिए भोजशाला-कमल मौला मस्जिद में सुबह से दोपहर तक और फिर 3।30 बजे से शाम तक प्रार्थना करने की अनुमति दी गई थी, जिसमें दोपहर 1 से 3 बजे के बीच का समय मुसलमानों के लिए शुक्रवार की नमाज के मद्देनजर छोड़ दिया गया था। गौरतलब है कि, 2003, 2013 और 2016 में बसंत पंचमी शुक्रवार को पड़ी- ये वो दिन थे जब धार शहर में हिंसक घटनाओं में काफी बढ़त देखी गई और हिंदुत्व कार्यकर्ताओं ने परिसर खाली करने से इनकार कर दिया था।
हिंदुओं पर प्रतिदिन भोजशाला में पूजा करने पर प्रतिबंध लगाए जाने के एएसआई के आदेश को एक संगठन द्वारा चुनौती दी गई। हिंदू फ्रंट फॉर जस्टिस संगठन ने एक पाआईएल दायरॉ की थी जिसके जवाब में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि एएसआई को परिसर का "वैज्ञानिक सर्वेक्षण" करना चाहिए। आदेश के बाद सर्वेक्षण इस साल 22 मार्च को शुरू हुआ, एएसआई ने एक महीने बाद एक आवेदन दायर किया जिसमें कहा गया कि विवादित परिसर में संरचनाओं के उजागर हिस्सों की प्रकृति को समझने के लिए सर्वेक्षण के लिए और समय चाहिए।
कृष्ण जन्मभूमि, उत्तर प्रदेश
कृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह विवाद की शुरूआत भी एक याचिका से ही हुई है। दरअसल लखनऊ में रहने वाली वकील रंजना अग्निहोत्री और छह अन्य ने मूल रूप से कटरा केशव देव मंदिर के परिसर में 17वीं शताब्दी की शाही ईदगाह मस्जिद को हटाने के लिए मथुरा की निचली अदालत में याचिका दायर की थी। याचिका में कहा गया कि उस स्थान को जहां ईदगाह मस्जिद स्थित है, उसे 'कृष्ण जन्मभूमि' के नाम से जाना जाता है।
उन्होंने याचिका में दावा किया था कि शाही ईदगाह मस्जिद का निर्माण श्री कृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट की 13।37 एकड़ भूमि के एक हिस्से पर किया गया है और उन्होंने मस्जिद को हटाने और जमीन, ट्रस्ट को वापस करने की मांग की थी।
आपको बता दें कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पिछले साल अदालत की निगरानी में अधिवक्ता आयुक्तों की तीन सदस्यीय टीम द्वारा ईदगाह परिसर के प्राथमिक सर्वेक्षण की अनुमति दी थी लेकिन शीर्ष अदालत ने 16 जनवरी को इस आदेश के कार्यान्वयन पर रोक लगा दी थी जो अभी तक बनी हुई है। हिंदू पक्ष का कहना है कि यह संपत्ति एक हजार साल से अधिक समय से भगवान कटरा केशव देव की है, जिसे बाद में ध्वस्त करके ईदगाह के तौर पर एक चबूतरे का निर्माण करा दिया गया।