अगर आपको ब्लड प्रेशर की समस्या है और डॉक्टर बिना जांच पड़ताल के मधुमेह का इलाज करने लगे, तो उसे आप क्या कहेंगे? जाहिर है, आप नाराज होंगे और यही कहेंगे, डॉक्टर तो मेरी सेहत बिगाड़ देगा। अब सोचिए, ऐसा ही कुछ आपके खाने के साथ हो। यानी आप जो रोटी, चावल, नमक, दूध, तेल-घी आदि खा रहे हैं, उसमें बिना आपकी जरूरत समझे हुए विटामिन और मिनरल्स मिला दिए जाएं, तो आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी। ऐसी पहल हमारे देश में फोर्टिफाइड फूड के नाम पर शुरू हो गई। सरकार का कहना है कि देश में कुपोषण की समस्या से निपटने के लिए यह जरूरी है, जबकि ढेरों विशेषज्ञ सवाल उठा रहे हैं कि विविध तरह की भोजन संस्कृतियों वाले हमारे देश में सिंथेटिक विटामिन और मिनरल मिलाने का क्या तुक है। विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि इससे फायदे के बदले नुकसान ही ज्यादा होने वाला है।
कुछ धुर आलोचकों का तो यहां तक कहना है कि यह विटामिन और मिनरल्स बनाने वाली बड़ी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के व्यावसायिक हितों को ध्यान में रखकर सार्वजनिक स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने जैसा है। लेकिन सरकार का दावा है कि विभिन्न सर्वेक्षणों के मुताबिक देश के 70 फीसदी लोगों में जरूरी पौष्टिक आहारों की कमी है, इसलिए फूड फोर्टिफिकेशन या खाद्य पदार्थों में सिंथेटिक विटामिनों और मिनरलों की अतिरिक्त खुराक जरूरी है। इस दिशा में भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआइ) ने पहल भी शुरू कर दी है। लेकिन, क्या किसी ठोस परीक्षण के बिना देश के हर नागरिक को फोर्टिफाइड फूड दिया जाना चाहिए, जबकि अभी तक सरकार के पास देश के हर नागरिक में पोषकता की स्थिति के बारे में कोई ठोस अध्ययन नहीं है? इस पर वैज्ञानिकों, डॉक्टरों और संबंधित पक्षों में तीखी बहस छिड़ गई है। आइए देखते हैं ये बहसें क्या हैं? लेकिन पहले जानते हैं यह मुद्दा है क्या और क्यों सरकार का इस पर इतना जोर है?
क्या है फूड फोर्टिफिकेशन
असल में शरीर में प्राकृतिक रूप से भोजन के साथ पहुंचने वाले विटामिन और मिनरल की जरूरत होती है। लेकिन आज के दौर में बदलते खाने के तौर-तरीकों से इनकी कमी बढ़ गई है। इसे दूर करने के लिए कंपनियों के बनाए विटामिन और मिनरल को खाद्य पदार्थों में प्रोसेसिंग के समय मिलाया जाता है। यानी अलग से विटामिन और मिनरल आपके खाने में पहुंच जाते हैं। इस प्रक्रिया को ही फूड फोर्टिफिकेशन कहा जाता है। इसी कवायद में अगस्त 2018 में एफएसएसएआइ ने फूड फोर्टिफिकेशन के लिए नियम जारी किए जिसमें कंपनियों को गेहूं के आटे, चावल, दूध, नमक और खाने के तेल में फूड फोर्टिफिकेशन के निर्देश दिए गए हैं। कंपनियों को इसके तहत खाने के तेल और दूध में सिंथेटिक विटामिन ए और डी मिलाना होगा। गेहूं के आटे और चावल में सिंथेटिक बी-12, फोलिक एसिड मिलाना होगा। नमक में सिंथेटिक आयोडीन के साथ-साथ आयरन तय मानकों के अनुसार मिलाना होगा। हालांकि अभी ये निर्देश स्वैच्छिक हैं। यानी कंपनियां चाहें तो ऐसा कर सकती हैं। लेकिन निर्देश आने के बाद से कंपनियों ने इस दिशा में बड़ी तेजी से काम करना शुरू कर दिया है।
मसलन, आइटीसी ने आशीर्वाद आटे में, मदर डेयरी और सुधा डेयरी ने अपने दूध में, टाटा और पतंजलि ने नमक में, अडाणी विलमर ने फॉरच्यून और कार्गिल ने खाने के तेल में फोर्टिफिकेशन की शुरुआत कर दी है। एफएसएसएआइ के अनुसार संगठित क्षेत्र में देश में मिलने वाला खाने का तेल 50 फीसदी और पैकेज्ड दूध में 35 फीसदी उत्पाद फोर्टिफाइड हो चुके हैं। लेकिन देश की सबसे बड़ी कोऑपरेटिव कंपनी अमूल ने एफएसएसएआइ के निर्देशों को मानने से इनकार कर दिया है। हाल ही में अमूल के मैनेजिंग डायरेक्टर आर.एस. सोढ़ी ने कहा, “हम केमिकल का इस्तेमाल नहीं करना चाहते। इसके लिए नेचुरल फोर्टिफिकेशन की पहल करनी चाहिए। उनके अनुसार सिंथेटिक फोर्टिफिकेशन वाले खाद्य पदार्थ दवा की तरह होते हैं। शरीर में इनकी मात्रा ज्यादा होना नुकसानदायक हो सकता है। इसीलिए पश्चिमी देशों में भी नेचुरल फोर्टिफिकेशन का चलन बढ़ रहा है।”
खतरे हैं कई
अमूल के एमडी जिस खतरे का इशारा कर रहे हैं, उसे फूड फोर्टिफिकेशन की वकालत करने वाला विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) भी मान रहा है। उसकी रिपोर्ट के अनुसार विटामिन ए की अधिक मात्रा लेने से लीवर को नकुसान पहुंच सकता है। इसी तरह हड्डियों में असामान्यता आ सकती है। चर्म रोग भी हो सकता है। वहीं फॉलिक एसिड और बी-12 की अधिकता से वरिष्ठ नागरिकों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है।
इस खतरे पर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), दिल्ली के ह्यूमन न्यूट्रीशन डिपार्टमेंट के पूर्व प्रोफेसर डॉ. उमेश कपिल कहते हैं, “दुनिया में अभी तक केवल आयोडीन और फोलिक एसिड का फूड फोर्टिफिकेशन के जरिए इस्तेमाल सफल हुआ है। विटामिन ए , डी और आयरन सहित दूसरे मिनरल को फोर्टिफिकेशन के जरिए मानव शरीर को देने पर उसका क्या असर होगा, इसके परिणाम आना बाकी हैं। सरकार की रणनीति माइक्रोन्यूट्रिएंट की इनटेक (मात्रा) बढ़ाने की है। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि अगर गेहूं में ऑयरन को शामिल किया जाता है तो उससे शरीर में हीमोग्लोबिन का स्तर बढ़ेगा या नहीं, इस पर जोर नहीं है। जोर इस बात पर है कि शरीर में ऑयरन का स्तर बढ़ जाए।” सफदरजंग अस्पताल के एक सीनियर प्रोफेसर का कहना है, “विटामिन ए और डी का गुण होता है कि वह शरीर से निकलता नहीं है। ऐसे में अगर उसकी मात्रा अधिक हो जाती है तो वह शरीर में रहेगा। उसके क्या परिणाम होंगे यह किसी को पता नहीं है। ऐसी स्थिति हानिकारक हो सकती है।”
कंपनी हित साधने के आरोप
एफएसएसएआइ की इस कवायद को स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह-संयोजक अश्विनी महाजन दूसरी नजर से देखते हैं। वे कहते हैं, “एफएसएसएआइ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में काम कर रहा है।” उनकी दलील है, “जब किसी व्यक्ति के शरीर में विटामिन ए और डी या मिनरल आदि की कमी होती है, तो उसे डॉक्टरों की निगरानी में दिया जाता है। ऐसे में हर किसी को देने के लिए अनिवार्य करना, कहां तक सही है? ऐसा करके हम लोगों को खतरे में डालेंगे। असल में दुनिया की तीन-चार कंपनियां हैं, जो इस तरह के कदम उठाने के लिए लामबंदी कर रही हैं। यह उसी का परिणाम है। इन कंपनियों का खतरनाक गठजोड़ है, जो रेग्युलेटर पर ऐसा करने का दबाव बनाती हैं। हम इस खतरनाक गठजोड़ के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक बात पहुंचाएंगे।”
मुनाफे का अर्थशास्त्र
रिसर्च फर्म मार्केट्स ऐंड मार्केट्स के अनुसार 2017 तक अकेले विटामिन और मिनरल को प्रीमिक्स करने का दुनिया में करीब 50 हजार करोड़ रुपये का बाजार खड़ा हो चुका है, जिसके अगले तीन साल में 60 हजार करोड़ रुपये तक पहुंचने की उम्मीद है। इस तरह के विटामिन और मिनरल बनाने वाली दुनिया में 8-10 बड़ी कंपनियां हैं, जो 120 देशों में फूड फोर्टिफिकेशन का बिजनेस कर रही हैं। अगर भारत में फूड फोर्टिफिकेशन अनिवार्य हो जाता है, तो उन्हें बैठे-बिठाए 130 करोड़ आबादी का बाजार मिल जाएगा। इस समय आयरलैंड की ग्लेनबिया, नीदरलैंड की डीएसएम और कॉर्बियॉन, अमेरिका की राइट एनरिचमेंट, वाटसन और जर्मनी की स्टर्नविटामिन जैसी कंपनियां इस बिजनेस की बड़ी खिलाड़ी हैं।
एफएसएसएआइ क्यों जल्दी में
जब फूड फोर्टिफिकेशन पर स्थिति अभी स्पष्ट नहीं है और देश के प्रमुख न्यूट्रिशियन से लेकर अमूल जैसी कोऑपरेटिव सवाल उठा रही है तो फिर एफएसएसएआइ को इसे लागू करने की क्या जल्दी है। इस सवाल पर अथॉरिटी की चेयरपर्सन रीता तेवतिया कहती हैं, “विभिन्न सर्वेक्षणों के जरिए यह पाया गया है कि देश में 70 फीसदी लोगों में पोषक तत्वों की कमी है। ऐसे में प्राधिकरण ने विशेषज्ञों के साथ लंबी चर्चा के बाद यह फैसला किया है। अगर हमें स्वस्थ भारत बनाना है तो देश से कुपोषण को खत्म करना होगा। इसको खत्म करने का एक तरीका है कि लोग अपने खाने के तरीके में बदलाव करें, जो इतना आसान नहीं है। ऐसे में दूसरा तरीका फूड फोर्टिफिकेशन का है, जो दुनिया के 120 देशों में अपनाया जा रहा है। हमने इसीलिए केवल पांच मूल खाद्य पदार्थों में इसके इस्तेमाल की बात कही है। उसमें भी हमने वैश्विक मानकों की तुलना में फोर्टिफिकेशन की लिमिट काफी सुरक्षित स्तर पर रखी है ताकि इससे किसी तरह का नुकसान नहीं हो। फूड फोर्टिफिकेशन का सबसे ज्यादा फायदा गरीब तबके को मिलेगा, जहां कुपोषण की समस्या कहीं ज्यादा है। इसके लिए सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मिड डे मील (मध्यान्ह भोजन योजना), समेकित बाल विकास कार्यक्रम के लाभार्थियों को जोड़ेगी। जहां तक बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव की बात है, तो इसमें कोई दम नहीं है। वैसे भी अगर भारत जैसे बड़े बाजार में कंपनियों को बिजनेस करना है तो हर हाल में उन्हें यहां पर मैन्युफैक्चरिंग करनी होगी। इससे तो मेक इऩ इंडिया को ही बढ़ावा मिलेगा।”
लेकिन न सर्वेक्षण, न ठोस आंकड़े
असल में देश के नागरिकों में पोषक तत्वों की क्या स्थिति है, इस पर अभी कोई ठोस आकंड़ा नहीं है और न ही इसके लिए कोई सर्वेक्षण किया गया है। इसके लिए सरकार विभिन्न एजेंसियों के सर्वेक्षण के आधार पर यह मानकर चल रही है कि देश के करीब 70 फीसदी लोगों में पोषक तत्वों की कमी है। राष्ट्रीय पोषण संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार देश के 40 फीसदी घरों में बच्चों को मिलने वाला भोजन असंतुलित है। पांच साल से कम उम्र के 55 फीसदी बच्चों का वजन सामान्य से कम है। वहीं, 52 फीसदी बच्चों की लंबाई सामान्य से कम है। इसी तरह पांच साल की उम्र तक के बच्चों में विटामिन ए की मात्रा सामान्य से कम है। वहीं, 35 फीसदी पुरुष और महिलाएं ऊर्जा की कमी का सामना कर रही हैं। इसके अलावा लोगों को भोजन में प्रोटीन, आयरन, कैल्शियम, थियामीन की मात्रा लगातार घटती जा रही है। इन आंकड़ों से यह बात तो समझ में आती है कि समस्या गंभीर है लेकिन तुरंत ही दूसरा सवाल जेहन में आता है कि अगर मेरा शरीर स्वस्थ है तो मुझे क्यों अलग से विटामिन या मिनरल लेने की जरूरत है? अगर सरकार हमें बिना जांच-परख के खिलाएगी, तो उसका ज्यादा सेवन शरीर को नुकसान भी पहुंचा सकता है।
इंटेंसिविस्ट डॉ. प्रशांत राज गुप्ता का कहना है, “देखिए पोषक तत्वों की कमी है इसलिए उसे संतुलित आहार के जरिए पूरा करना बेहद जरूरी है। लेकिन उसे पूरा करने के लिए जो तरीका अपनाया जा रहा है, वह पूरी तरह से गलत है। कुछ वर्षों पहले दुनिया में यह माना गया था कि आयरन को फोर्टिफाइड तरीके से देने से दिल की बीमारियों का जोखिम कम हो जाएगा। लेकिन इसका उल्टा हो गया। असल में यह सोच सही नहीं है कि विटामिन या मिनरल अलग से मिला देने से पोषक तत्वों की कमी पूरी हो जाती है। प्राकृतिक रूप से जो विटामिन और मिनरल हमें मिलते हैं, उसके साथ कई दूसरे तत्व भी शामिल होते हैं। इनकी वजह से विटामिन और मिनरल शरीर के लिए फायदेमंद होते हैं। फोर्टिफिकेशन में इस अहम बात की उपेक्षा कर दी गई है, जो कहीं से सही नहीं है।”
डॉ. कपिल गरीबों को फायदा पहुंचने के दावे पर सवाल उठाते हैं। उनका कहना है, “गरीब तबका तो गेहूं का ऑटा, दूध, चावल, तेल जैसे मूल खाद्य पदार्थों को असंगठित क्षेत्र से ही खरीदता है। ऐसे में फोर्टिफिकेशन का फायदा कैसे उसे मिलेगा क्योंकि फोर्टिफाइड उत्पाद तो ज्यादातर पैकेज्ड रूप में ही मिलते हैं। दूसरे फोर्टिफिकेशन की अपनी लागत है। ऐसे में अगर मूल खाद्य पदार्थों को फोर्टिफाइड कर दिया गया तो वे 20-25 फीसदी तक महंगे हो सकते हैं।”
दाम बढ़ेंगे
असल में फूड फोर्टिफिकेशन की प्रक्रिया को प्रोसेसिंग के स्तर पर शामिल किया जाता है। यानी गेहूं में सीधे तौर पर नहीं बल्कि उसके आटे के साथ विटामिन और मिनरल को मिश्रित किया जा रहा है। इसी तरह तेल और दूध में इसे मिश्रित किया जाएगा। वहीं, चावल में फोर्टिफाइड चावल के टुकड़े मिलाकर मिश्रित किया जाता है। पूरी प्रक्रिया में लागत पर क्या असर होता है, इस पर टाटा ट्रस्ट के वरिष्ठ सलाहकार डॉ.आर. शंकर का कहना है, “खाने के तेल में प्रति लीटर 10 पैसे की लागत बढ़ती है, इसी तरह दूध में लागत दो से तीन पैसे बढ़ जाती है। शंकर के अनुसार टाटा ट्रस्ट देश की 25 राज्यों की दुग्ध कोऑपरेटिव सोसायटी के साथ मिलकर फोर्टिफिकेशन का काम कर रहा है। लेकिन किसी ने अभी तक फोर्टिफिकेशन की वजह से दूध के दाम नहीं बढ़ाए हैं। ऐसे में यह कहना कि फोर्टिफिकेशन से कीमतें बढ़ जाएंगी, सही नहीं है।”
हालांकि, डॉ. कपिल का कहना है, “दो पैसे या 10 पैसे के दावे सही नहीं हैं। हमें यह समझना होगा कि जब आप फोर्टिफाइड फूड की बात करते हैं तो उसके लिए पूरा इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करना होता है, जिसमें मशीनरी लागत से लेकर वितरण, मार्केटिंग आदि सब आती हैं। असल में इसके पीछे कंपनियों का बड़ा खेल है। जो फोर्टिफाइड फूड के लिए लामबंदी कर रही हैं।” अश्विनी महाजन कहते हैं कि कंपनियां कैसे दबाव बनाती हैं, इसे आयोडीन को नमक में फोर्टिफाइड करने से समझा जा सकता है। उनके अनुसार नमक में आयोडीन मिलाने की जरूरत इसी तरह लामबंदी करने वालों ने बताई थी, जिसे लागू भी किया गया। लेकिन हकीकत इंडियन न्यूट्रिशन इंस्टीट्यूट के सर्वेक्षण से सामने आई, जिसमें यह पाया गया कि देश के केवल दो प्रतिशत जिले हैं, जहां यह समस्या थी। ऐसे में सभी को आयोडीनयुक्त नमक देने की क्या जरूरत थी। महाजन का कहना है कि हमें अंदेशा था कि कंपनियां अब नमक में डबल फोर्टिफिकेशन के लिए लामबंदी करेंगी। आज एफएसएसएआइ के निर्देश से ऐसा होने जा रहा है।
- सिंथेटिक विटामिन ए और डी से फायदा होगा, इसकी कोई स्टडी नही है। ऐसे में इसका इस्तेमाल खतरनाक भी हो सकता है
डॉ उमेश कपिल, पूर्व प्रोफेसर ह्यूमन न्यूट्रिशन डिपार्टमेंट, एम्स
- सिंथेटिक फोर्टिफिकेशन वाले खाद्य पदार्थ दवा की तरह होते हैं। शरीर में इनकी मात्रा ज्यादा होना नुकसानदायक हो सकता है
आर.एस. सोढ़ी, मैनेजिंग डायेक्टर, जीसीएमएमएफ (अमूल)
- लागत बढ़ने की बात गलत है, 25 दुग्ध कोऑपरेटिव सोसायटी फोर्टिफाइड दूध का उत्पादन कर रही हैं, किसी ने दाम नहीं बढ़ाएं हैं
डॉ. आर. शंकर, वरिष्ठ सलाहकार, टाटा ट्रस्ट
- नमक में आयोडीन मिलाने से ग्वाटर रोग से निजात मिली है, लेकिन डबल फोर्टिफिकेशन से स्वाद और खाने का रंग बदल जाएगा
प्रोफेसर चंद्रकांत एस. पांडव, पूर्व अध्यक्ष, सीसीएम, एम्स
नमक में डबल फोर्टिफिकेशन कितना कारगर है, इस पर भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), दिल्ली के सेंटर फॉर कम्युनिकेशन मेडिसिन के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर चंद्रकांत एस. पांडव का कहना है, “देखिए लोगों को पोषक तत्व मिले यह हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। जहां तक फोर्टिफाइड फूड की बात है तो नमक में आयोडीन को शामिल कर ग्वाटर रोग से देश के लोगों को निजात मिली है। यह पूरी दुनिया में सबसे सफल उदाहरण है। राष्ट्रीय ग्वाटर नियंत्रण कार्यक्रम को जब 1962 में शुरू किया गया था, उस वक्त भी ऐसे ही सवाल उठे थे। लेकिन आज परिणाम क्या है, कि देश ग्वाटर रोग से मुक्त हो चुका है। भारतीय ऑयोडीन सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार देश में आयोडीनयुक्त नमक का कवरेज 92.4 फीसदी तक पहुंच गया है। लेकिन जहां तक नमक में डबल फोर्टिफिकेशन की बात है तो उसमें कई तरह की चुनौतियां है। नमक में आयोडीन के साथ आयरन मिलाया जाएगा। लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह है कि जैसे ही ऑयरन मिलेगा, नमक में काले धब्बे जैसे स्पॉट दिखेंगे। इसके अलावा आयरन युक्त नमक का स्वाद भी अलग होगा। साथ ही डबल फोर्टिफाइड नमक में बने खाने का रंग भी अलग होगा। ऐसे में लोगों को नए नमक के इस्तेमाल के लिए तैयार करना आसान नहीं है।”
एक बात साफ है कि देश के नागरिकों को संतुलित भोजन मिलना एक बड़ी समस्या बन गई है। इसकी जद में साधन संपन्न वर्ग से लेकर वंचित वर्ग भी आ गए हैं। इस समस्या को दूर करने के लिए पारंपरिक तरीके की जगह कृत्रिम तरीका अपनाया जाना कितना कारगर है और उसके प्रतिकूल परिणाम क्या हो सकते हैं। उन सबकी पूरी तरह जांच-परख होनी चाहिए। साथ ही इसे सबके लिए अनिवार्य नहीं कर बल्कि जिन्हें जरूरत है, उन्हें देना चाहिए। वैसे भी प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ का कितना नुकसान होता है, इसका आभास हमें है। हम खाद्य पदार्थों में फोर्टिफिकेशन कर, एक तरह से “खुदा के धंधे में दखल कर चुके हैं।
डब्ल्यूएचओ की चिंता
. विटामिन ए की मात्रा अधिक होने से लीवर और हड्डियों पर प्रतिकूल असर
. फॉलिक एसिड और बी-12 की अधिकता से वरिष्ठ नागरिकों को नुकसान
. बदल सकती है लोगों की खान-पान की शैली
. विटामिन और मिनरल की ज्यादा मात्रा होने से बच्चों को भी नुकसान