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राजनीति: प्रतिपक्ष है चुनौती

“विपक्षी एकता की कोशिश से ज्यादा मोर्चा इससे तय होगा कि किसके पास वैकल्पिक एजेंडा” हर बदलाव के लिए...
राजनीति: प्रतिपक्ष है चुनौती

“विपक्षी एकता की कोशिश से ज्यादा मोर्चा इससे तय होगा कि किसके पास वैकल्पिक एजेंडा”

हर बदलाव के लिए प्रतिपक्ष जरूरी है। प्रतिपक्ष यानी राजकाज और राज्य-सत्ता का वैकल्पिक नजरिया, उसकी वैक‌ल्पिक रूपरेखा। सत्ता के विरोध या विपक्ष का गठजोड़ भी शायद तभी कारगर होता है। सत्ता में कायम रहने के लिए भी विपक्ष के बरक्स मजबूत प्रतिपक्ष की दरकार होती है। आजाद भारत में जब-जब सत्ता-परिवर्तन हुआ है, प्रतिपक्ष के बेहतर एजेंडे के साथ तमाम छोटी-बड़ी राजनैतिक-सामाजिक ताकतों के गठजोड़ से ही संभव हुआ है। जिसका जितना बड़ा गठजोड़, मोटे तौर पर उसकी जीत होती रही है। आज के राजनैतिक घटनाक्रमों पर गौर करें तो सब कुछ इसी राजनैतिक एहसास के इर्द-गिर्द घुमड़ रहा है।

चाहे पटना में जनता दल (यूनाइटेड) या जदयू के नेता, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राष्ट्रीय जनता दल या राजद के नेता, उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव की अगुआई में विपक्षी पार्टियों के नेताओं की बैठक हो; या फिर केंद्रीय सत्ता में मौजूद भारतीय जनता पार्टी या भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार के, बकौल विपक्ष, गैर-भाजपा सरकारों के लिए मुश्किल खड़ा करने के तौर-तरीके और विपक्ष की लगभग सभी पार्टियों के नेताओं पर ईडी-सीबीआइ का फंदा डालना हो; या छोटी-छोटी पार्टियों-समूहों को फिर से अपने पाले में वापस ले आने की कोशिश हो- ये सब उसी प्रतिपक्ष के एजेंडे और गठजोड़ को तैयार करने की रणनीतियां हैं जिनके सहारे सत्ता में कायम रहना या उसे हासिल करना मुमकिन है।

मणिपुर के नेताओं के साथ जयराम

मणिपुर के नेताओं के साथ जयराम रमेश

दरअसल मौजूदा केंद्रीय सत्ता अपने मूल में उस राज्य-व्यवस्‍था का बुनियादी विपक्ष है, जो 1947 में आजाद भारत की स्‍थापना के वक्त रखी गई थी। लेकिन उसे अब या इसके पहले एनडीए-1 के दौर में भी सत्ता इसी एवज में हासिल हुई जब उसने यह भरोसा दिलाया कि उसके पास रोजगार, सुरक्षा, लोगों की उम्मीदों-आकांक्षाओं का बेहतर वैकल्पिक एजेंडा है, जिससे अच्छे दिन भी आएंगे और राज्य-व्यवस्‍था भी बेहतर होगी। याद करें, 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान तब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी बार-बार कह रहे थे, मेरी आस्‍था तो एक ही किताब संविधान में है, उससे इतर कुछ नहीं। जाहिर है, एनडीए दोनों बार सत्ता में आजाद भारत की राज्य-व्यवस्‍था के विपक्ष की हैसियत से सत्ता में नहीं पहुंची। वह तो सत्ता में पहुंचने के बाद उसने अपने मूल एजेंडे पर काम शुरू किया, लेकिन इसके लिए भी उसे चरम केंद्रीकरण और तमाम संवैधानिक संस्‍थाओं पर काबिज होने के तरीके तलाशने पड़े हैं। यही नहीं, अब भी उसके लिए खुद को पक्ष बताने के लिए बाकी सब को भ्रष्ट साबित करना जरूरी है। शायद विपक्षी पार्टियों और नेताओं पर ईडी-सीबीआइ के छापे का रहस्य भी यही है।

यही वजह है कि विपक्षी पार्टियां यह बताने की कोशिश कर रही हैं कि मोदी सरकार की सारी कार्रवाई राज्य-व्यवस्था का मूल चरित्र बदलने की है। ‌अगर ओडिशा में नवीन पटनायक के बीजू जनता दल, आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी की वाइएसआरसीपी को छोड़ दें तो तमाम विपक्षी पार्टियां यही कहती लग रही हैं। संविधान बदलने, इतिहास बदलने, संवैधानिक संस्‍थाओं को नष्ट करना, लोकतंत्र का गला घोंटना, कुछेक पूंजीपतियों को शह देकर याराना पूंजीवाद को बढ़ावा देना, सार्वजनिक संपत्तियों और उपक्रमों का निजीकरण, सीमा पर चीन की घुसपैठ, धर्म-जाति के नाम पर कटुता फैलाने, संघवाद पर चोट ऐसे मुद्दे हैं जो यही साबित करने की कोशिश करते हैं कि मौजूदा सत्ता देश की राज्य-सत्ता को कमजोर कर रही है और लोकतांत्रिक व्यवस्‍था पर चोट कर रही है। उनके अनुसार सभी विपक्षी पार्टियों का वजूद खत्म करने, महंगाई तथा बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ने के मुद्दे भी यह बताते हैं कि मौजूदा सत्ता देश को बर्बाद कर रही है।

ईडी हिरासत में द्रमुक नेता

ईडी की हिरासत में द्रमुक नेता सेंथिल बालाजी

ये मुद्दे कांग्रेस नेता राहुल गांधी सबसे तीखे अंदाज में उठाते हैं क्योंकि केंद्र की सत्ता की आज सबसे बड़ी दावेदारी कांग्रेस के पास है। उसकी मौजूदगी आज भी पूरे देश में है। एक वक्त जरूर समाजवादी पक्ष के जनता दल और वामपंथी पार्टियों की मौजूदगी भी पूरे देश में हुआ करती थी तो उनकी अगुआई में भी केंद्र में जनता पार्टी या संयुक्त मोर्चे की सरकारें बनी थीं, लेकिन अब जनता दल अनेक टुकड़ों में बंटा और वामपंथी दल सिकुड़ कर सिर्फ केरल में ही प्रभावी रह गए हैं।

दरअसल नीतीश की विपक्षी एकता की कोशिश के दो तत्व साफ दिख सकते हैं। एक, कांग्रेस की अहमियत को अस्वीकार न किया जाए और दूसरे, समाजवादी तथा वामपंथी विचारों या सामाजिक न्याय पर जोर देने वाली पार्टियों को एक मंच पर लाकर मौजूदा व्यवस्‍था को चुनौती दी जाए। दिक्कत यही नहीं है कि इन तमाम दलों की, खासकर कांग्रेस के साथ क्षेत्रीय तथा राजनैतिक आकांक्षाएं टकराती हैं, बल्कि यह भी है कि सबके पास कोई मिलाजुला वैकल्पिक एजेंडा नहीं है। मसलन, क्या याराना पूंजीवाद को रोकने का कोई आर्थिक एजेंडा है किसी के पास? वजह यह है कि मोदी सरकार उसी एजेंडे की एक मायने में बुलंदी है जो नब्बे के दशक में उदारीकरण के दौर में शुरू हुआ। उसी से शिक्षा, स्वास्‍थ्य, रोजगार सबको मुनाफे का साधन बना देना और बड़ी तथा आवारा पूंजी को शह देने की राह पर देश को ले जाया गया। राहुल गांधी यह तो कहते हैं कि नब्बे के दशक में शुरू की गईं नीतियां 2010 तक तो कारगर रहीं, लेकिन उसके बाद उनके दुष्परिणाम खुलकर सामने आ गए। तो, क्या कोई वैकल्पिक सोच है?

अरविंद केजरीवाल

अरविंद केजरीवाल

अदाणी को लेकर राहुल और दूसरे विपक्षी नेता मोदी सरकार पर सबसे ज्यादा हमलावर तो रहते हैं लेकिन फौरन यह भी कहते हैं कि वे कॉरपोरेट के विरोधी नहीं हैं। ऐसे में कॉरपोरेट के लिए क्या नई नीतियां होंगी, इस पर कोई स्पष्टता नहीं है। संकट यही है कि अब भी किसी के पास कोई वैकल्पिक एजेंडा नहीं है। संभव है 2024 के लोकसभा चुनावों के दौरान विपक्ष में कोई तालमेल बन जाए क्योंकि सबको यह एहसास है कि अगर अगली बार भाजपा सत्ता में आ गई तो उसके तेवर और कड़े होंगे, जैसे 2019 में दोबारा सत्ता में लौटने के बाद मोदी सरकार ज्यादा कड़े फैसले लेने से नहीं हिचकी और लगभग तमाम संस्‍थाओं पर काबिज हो गई। उसके पहले सीबीआइ से लेकर चुनाव आयोग तक में विरोध के स्वर उभरे थे।

गौर से देखें तो कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद उससे बिदकने वाले कई नेताओं के तेवर बदले हैं। उन्हें लगने लगा है कि भाजपा को हराना संभव है। ममता बनर्जी, के. चंद्रशेखर राव, अरविंद केजरीवाल सबके तेवर बदल गए हैं। जैसे-जैसे मोदी सरकार विपक्षी सरकारों के प्रति अधिक हमलावर होती जा रही है, वैसे-वैसे विपक्षी एकजुटता की मजबूरियां बढ़ती जा रही हैं।

ममता बैनर्जी

ममता बैनर्जी

दिल्ली में निर्वाचित सरकार के अधिकारों पर अंकुश लगाने वाले अध्यादेश के बाद आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस की ओर हाथ बढ़ाया, लेकिन कांग्रेस अपने पत्ते भी संभाल रही है। आम आदमी पार्टी के सौरभ भारद्वाज ने दिल्ली, पंजाब में दावा छोड़ने की शर्त पर राजस्‍थान, मध्य प्रदेश वगैरह में दावा न करने की शर्त रखी, तो  कर्नाटक को केंद्र से भारतीय खाद्य निगम का चावल देने से इनकार का नोटिस मुख्यमंत्री सिद्धरमैया और पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान की बातचीत का सबब बना। मान फौरन चावल मुहैया कराने को राजी हो गए। ममता बनर्जी ने कहा कि राज्य में कांग्रेस अगर वामपंथियों के साथ गठजोड़ करेगी तो उससे तालमेल मुश्किल है। उधर चंद्रशेखर राव अचानक मौन हो गए हैं। उन्हें लोकसभा के पहले अपने विधानसभा चुनाव की चिंता है। ये सभी शायद लोकसभा चुनावों में तालमेल के पहले मोलतोल में अपना पक्ष मजबूत करने की कोशिशें हैं। भाजपा भी विपक्षी पार्टियों पर दबाव बढ़ाकर और बिहार में उपेंद्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी आदि को अपने पाले में लाने की रणनीति पर चल रही है।

देखा जाए कौन बड़ा प्रतिपक्ष का एजेंडा और गठजोड़ कायम करने में कामयाब होता है, जो अंततः लोकसभा के नतीजों को तय करेगा।

रणनीतियां अपनी-अपनी

भाजपा

विपक्ष के नेताओं पर केंद्रीय एजेंसियों का शिकंजा कसा

विपक्षी सरकारों को कल्याणकारी योजनाओं के अमल में परेशानी पैदा करो

ज्यादा से ज्यादा छोटे दलों और समूहों को वापस साथ लाने की कोशिश करो

ध्रुवीकरण के मुद्दों को शह दो, जैसे, समान नागरिक संहिता पर नए सिरे से बहस

विपक्ष

कांग्रेस के साथ सीटों के तालमेल पर बात बढ़े

संविधान, लोकतंत्र पर आघात के मुद्दे उठाओ

महंगाई, बेरोजगारी, याराना पूंजीवाद के मुद्दे उठाओ

मोदी सरकार की गलतियों और अनियमितताओं को उठाओ

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