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जनादेश ’24 /उत्तर प्रदेश: संविधान बना मुद्दा

यूपी में वोटर भाजपा समर्थक और विरोधी में बंटा, पार्टी की वफादारी के बजाय लोगों पर जाति का दबाव सिर...
जनादेश ’24 /उत्तर प्रदेश: संविधान बना मुद्दा

यूपी में वोटर भाजपा समर्थक और विरोधी में बंटा, पार्टी की वफादारी के बजाय लोगों पर जाति का दबाव सिर चढ़कर बोल रहा, बाकी सभी मुद्दे वोटरों की दिलचस्पी से गायब दिख रहे

मई के पहले हफ्ते की बात है। एक दिन तड़के लखनऊ के एक पुराने पत्रकार के पास पूर्वांचल से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के एक विधायक का फोन आया। विधायक इस बात से हैरान थे कि मुफ्त अनाज पाने वाले लोग अब पलट रहे हैं। पत्रकार ने जिज्ञासावश पूछ लिया, ‘मतलब?’ विधायक ने बताया कि पर्चा लीक के चलते भाजपा का ‘लाभार्थी’ वाला वोट अब आरक्षण के चक्कर में आ गया है और इस चुनाव में भाजपा को वोट नहीं देगा। सुनने में तो मुफ्त राशन, पर्चा लीक और आरक्षण तीन अलहदा बातें जान पड़ती हैं, लेकिन लोग उन्हें जोड़ कर अपने मायने निकाल रहे हैं। महानगरों में बैठ कर इसे समझना मुश्किल है क्योंकि ऐसी बातें केवल गांवों-कस्बों में चल रही हैं, वह भी दलितों और पिछड़ों के बीच। पिछले लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का औपचारिक गठबंधन भी दलितों और पिछड़ों के बीच चुनावी एकता कायम नहीं कर सका था, लेकिन इस बार स्थिति बिलकुल अलग है। दलित-पिछड़ा ‘केमिस्ट्री’ पर समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ राज्यसभा सांसद रामजीलाल सुमन कहते हैं, ‘‘पिछली बार क्या हुआ भूल जाइए। उसके अलग कारण हैं। इस बार ‘केमिस्ट्री’ सवाल ही नहीं है। सवाल है कि संविधान को कैसे बचाया जाए। यह दलितों और पिछड़ों का साझा सवाल है। मुसलमान तो इसमें शामिल हैं ही।’’

 

आगरा में सांसद के आवास पर 2 मई की सुबह-सुबह जब हम यह संवाद कर रहे थे, वहां जुटे मजमे में बसपा के दो प्रधान सपा-कांग्रेस गठबंधन के प्रति अपनी वफादारी जताने आए थे। उनका स्पष्ट कहना था कि इस बार भाजपा को हराने के लिए गठबंधन को जिताना जरूरी है, बहनजी को बाद में देखेंगे।

 

शासन का संदेशः लखनऊ से बाहर निकलने वाले हर हाइवे पर लगा है यह होर्डिंग

 

शासन का संदेशः लखनऊ से बाहर निकलने वाले हर हाइवे पर लगा है यह होर्डिंग

 

लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार उत्कर्ष सिन्हा इस गुत्‍थी को खोलकर समझाते हैं। वे कहते हैं, ‘‘2022 में भाजपा को यूपी में जिताने के पीछे जिस ‘लाभार्थी’ फैक्टर का हाथ रहा, वह अब टूट चुका है। मुफ्त राशन पाने वाला लाभार्थी परिवार, खासकर उसका दलित और पिछड़ा नौजवान, परचा लीक की घटनाओं को इस तरह देख रहा है कि सरकार जान-बूझ कर ऐसा करवा रही है ताकि उसे आरक्षण न देना पड़े और ये लोग जिंदगी भर सरकारी भीख के भरोसे रह जाएं। आरक्षण संविधान-प्रदत्त है, तो सारा मामला अबकी संविधान को बचाने पर आकर टिक गया है।’’     

 

गढ़ में दरार

 

संविधान को बचाने के नाम पर दलित, पिछड़ा और मुसलमान का गठजोड़ क्या इस लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की कहानी लिखेगा? क्या‍ वाकई यह गठजोड़ बन चुका है या इसमें कुछ पेच हैं? क्या पिछड़ों और दलितों में जातिगत बंटवारा बनते हुए खेल को बिगाड़ सकता है? ये कुछ ऐसे सवाल थे जिनकी जमीनी पड़ताल करने के लिए आउटलुक ने यूपी की दर्जन भर से ज्यादा लोकसभा सीटों का दौरा किया। ये मुख्यत: चौथे और पांचवें चरण की सीटें हैं। यह खबर लिखे जाने तक छठवें और सातवें चरण की सीटों में कुछेक पर प्रत्याशी बदले जा रहे ‌थे और स्‍थानीय समीकरण बन-बिगड़ रहे थे।

 

मध्य उत्तर प्रदेश और बुंदेलखंड की 25 सीटों पर क्रमशः 13 मई और 20 मई को मतदान होना है। यहां भाजपा का दस साल से तकरीबन एकछत्र राज रहा है। पिछले आम चुनाव में इस क्षेत्र की कुल 28 लोकसभा सीटों में से 26 पर भाजपा के सांसद बने थे। पश्चिम में चुनाव हो चुका है और पूर्वांचल में छठवें और सातवें चरण में है। भाजपा को चौथे और पांचवें चरण से बहुत उम्मीदें थीं कि पहले-दूसरे चरण में हुए कम मतदान और तीसरे में ‘यादवलैंड’ के संकट से उसे बुंदेलखंड और मध्य यूपी उबार ले जाएंगे, लेकिन सिन्हा के मुताबिक भाजपा का गढ़ चौतरफा दरक रहा है।

 

हक की बातः रायबरेली कलेक्ट्रेट के बाहर चिपका परचा

 

हक की बातः रायबरेली कलेक्‍ट्रेट के बाहर चिपका पर्चा

 

इसके पीछे जो कुछ मुख्य कारण गिनाए जा रहे हैं, उनमें पहला तो दलितों-पिछड़ों के बीच आरक्षण खत्म किए जाने का डर है। दूसरा, सवर्ण हिंदुओं में महंगाई और बेरोजगारी है। तीसरा, गैर-यादव पिछड़ी जातियों के उस तालमेल का टूटना है जिसे भाजपा ने बड़ी मेहनत से बीते बरसों में साधा था। और आखिरी कारण है भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के काडर में आई सुस्ती, हताशा और मोहभंग वाली स्थिति।

 

कुल मिलाकर हुआ यह है कि मतदाता अब राजनीतिक पार्टियों से वापस अपनी-अपनी बिरादरी पर लौट रहा है। इसकी पुष्टि हमीरपुर जिले में भाजपा के एक पूर्व जिलाध्यक्ष करते हैं। वे कहते हैं, ‘‘मोदीजी के राज में कम से कम इतना हुआ था कि लोग जाति से ऊपर उठ कर सोचने लगे थे, लेकिन इस बार मामला वापस जाति पर आ गया है।’’

 

ऐसा क्यों हुआ है, यह पूछने पर राठ में मिले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नगर कार्यवाह बताते हैं कि लोग अपने स्थानीय मुद्दों से ही बहुत ज्यादा परेशान हैं जबकि प्रशासन में उनकी सुनवाई नहीं हो रही है, ‘‘हम लोगों ने सपा के राज में भ्रष्टाचार के ‌खिलाफ आंदोलन कर के कितने ही सपाइयों को जेल में डलवाया। सपा के राज में सच के लिए लड़ना जितना आसान था, आज उतना ही मुश्किल हो गया है। डीएम कहता है कि आपकी ही सरकार है, विधायक भी आपका, सांसद भी। अब बोलिए, हम कहां जाएं?’’

 

इसलिए लोगों को अब लग रहा है कि अगर उनकी बिरादरी का जनप्रतिनिधि हो तो शायद कुछ बात बने, काम बने और उनकी सुनी जाए, भले ही वह किसी भी पार्टी का हो। ऐसा कहते हुए वे समझाते हैं कि जीएसटी, नोटबंदी और कोरोना से सबसे ज्यादा उत्पीड़न व्यापारी और मध्यवर्ग का हुआ। इस बार यह तबका घर से नहीं निकल रहा। यही भाजपा का वोटर है। इसे अपने सवाल उठाने वाले उम्मीदवार की तलाश है। ऐसा उम्मीदवार विपक्ष भी नहीं दे पा रहा।

 

 

 

केंवलपुर के लोग

 

केंवलपुर के लोग

 

बुंदेलखंड में धर्म जागरण संघ के एक पदा‌‌धिकारी कहते हैं, ‘‘हम लोग विकल्पहीन हो चुके हैं, लेकिन दिक्कत ये है कि विपक्ष का प्रत्याशी भी वैसा ही है। अगर सपा के प्रत्याशी ने हमारे यहां अवैध खनन और लकड़ी कटान का मुद्दा उठा लिया होता तो यकीन मानिए हम भाजपा प्रत्याशी के पसीने छुड़ा देते।’’  

 

बुंदेलखंड की बांदा-चित्रकूट, हमीरपुर-महोबा, जालौन और झांसी-ललितपुर चार लोकसभा सीटें हैं। चारों पर पिछली बार भाजपा जीती थी। इस बार लड़ाई उतनी एकतरफा नहीं है क्योंकि भाजपा और संघ का संगठन तो सुस्त है ही, चारों सीटों पर सपा का प्रत्याशी होने के कारण कांग्रेस भी निष्क्रिय है और सपा को केवल जातिगत समीकरणों पर भरोसा है। लिहाजा, कोई भी दल चुनाव लड़ता हुआ नहीं दिख रहा। यूपी की सड़कें शांत हैं।

 

धंधे मातरम

 

ऐसा नहीं कि अंदरूनी इलाकों में सड़कों को गरमाने की कोशिश न की गई हो। लखनऊ से पूर्वांचल, बुंदेलखंड, तराई को जाने वाले सारे हाइवे पर मोदी और योगी के चेहरे वाले विशालकाय होर्डिंग लगे हुए हैं, गोया राहगीरों से कह रहे हों कि जाते-जाते यह संदेश लेते जाना। संदेश क्या  है? “माफिया को मिट्टी में मिला दिया’’, ‘‘राशन की डबल गारंटी’’, आदि।

 

शायद इतने से भी कमी पड़ रही थी कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को मई के पहले हफ्ते में लखनऊ में दो दिन डेरा डालना पड़ा। इस बीच उन्होंने पार्टी के तमाम अहम पदाधिकारियों के साथ चौथे और पांचवें चरण की सीटों की अलग से रणनीति तैयार की। इस क्षेत्र के लिए ऐसा प्रयास पहले कभी नहीं हुआ था, लेकिन बुंदेलखंड से लेकर लखनऊ तक ‘धंधे मातरम’ ने अमानत में खयानत का काम किया है।

 

लखनऊ और आसपास के इलाकों में सौरभ मिश्रा नाम के एक दिवंगत शख्स की खूब चर्चा है, जिसने खुद को संघ प्रमुख मोहन भागवत का दामाद बताकर विद्या भारती पर कब्जा कर लिया था। कुछ दिन पहले ही मिश्रा की गैंग्रीन से मौत हुई है। उससे पहले वह धोखाधड़ी के आरोप में डेढ़ महीने मुंबई की जेल में रहा। उत्कर्ष सिन्हा बताते हैं कि चारबाग के पास भारती भवन पर उसने कब्जा कर लिया था, आरएसएस की ‘राष्ट्रधर्म’ पत्रिका के ‘निदेशक मंडल का सदस्य’ बन बैठा था और बीते पांचेक साल से राजधानी के संघ प्रचारकों का खर्चा उठा रहा था। यह खर्चा उसके अवैध खनन के धंधे से आ रहा था।

 

प्रो. सुधीर पंवार

 

इस बार दलित, पिछड़े और मुसलमान संविधान को बचाने के लिए वोट कर रहे हैं। जिसको संविधान से जो भी लाभ समझ में आता है, वह उसे बचाने के लिए गठबंधन को वोट करेगा।

 

प्रो. सुधीर पंवार, शिक्षक, लखनऊ विवि

 

बुंदेलखंड के कुछ पुराने प्रचारक नाम न छापने की शर्त पर भाजपा के सांसदों, नेताओं, प्रशासन और पुलिस की अवैध खनन में संलिप्तता की खुलकर कहानियां सुनाते हैं। पूर्वांचल एक्सप्रेसवे पर बांदा और हमीरपुर की नंबर प्ले‍ट वाले ट्रक धड़ल्ले से दिख जाएंगे जिन पर रेत या लकड़ी लदी होगी। सौरभ मिश्रा ने इसी धन से अपने एक करीबी पत्रकार को पूर्वांचल में विद्या भारती का प्रचार प्रमुख बनवा दिया था। बाद में उसका कांड खुला तो पूर्वांचल में संघ बैठ ही गया। यह कहानी मीडिया में खूब छप चुकी है।     

 

बुंदेलखंड में संघ के एक नगर कार्यवाह कहते हैं, ‘‘भाजपा ही नहीं, संघ में भी लिफाफा-पैकेट की संस्कृति चल रही है। यही वजह है कि इस चुनाव में भाजपा को अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ रही है।’’

 

इटावा के पंचायती राज महिला कॉलेज में हिंदी पढ़ाने वाले गाजीपुर निवासी रमाकान्त राय इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते। वे दीनदयाल उपाध्याय पर एक शोध परियोजना चला रहे हैं और खुद उनका शोध राही मासूम रजा पर है। चुनाव में संघ की अदृश्यता और भाजपा के अंदरूनी संकट का जिक्र करने पर वे मुल्ला  नसीरुद्दीन की एक कहानी सुनाते हैं जिसमें एक आदमी रोशनी में अपनी गुम हुई चाबी खोज रहा था। वे कहते हैं, ‘‘आप लोगों का यही हाल है।’’

 

इटावा की मशहूर दुकान घोड़ा चाय पर चर्चा के दौरान रमाकान्त पूछते हैं कि जहां लड़ाई ही नहीं है वहां संघ क्यों अपनी ऊर्जा जाया करेगा। वे कहते हैं, ‘‘दो लाख से पांच लाख वोट तक मार्जिन से जहां भाजपा जीत चुकी है वहां आप संघ को क्यों खोज रहे हैं? वहां खोजिए जहां लड़ाई है।’’

 

लड़ाई कहां है? वे कहते हैं, ‘‘यह भी आपको ही तय करना है। जरूरी नहीं कि आप जहां लड़ाई मान रहे हों वहीं संघ भी माने। क्या मोहन भागवत का कोई क्लोन है, जो बंगाल के लिए अलग आदेश जारी करता है और यूपी के लिए अलग?”

 

रमाकान्त के दावे से उलट, संघ प्रचारकों की दिक्कत बिलकुल अलग है। संघ के काडर और पूर्व भाजपा जिलाध्यक्ष पूछते हैं, ‘‘अवैध लकड़ी कटान वाले सारे ट्रक मुरादाबाद के इलाके में जिन कारोबारियों के यहां जाते हैं उनमें नब्बे प्रतिशत मुसलमान हैं। तो क्या हम लोग भाजपा और संघ में बने रहने के लिए मुसलमान बन जाएं? जबकि पहले ही तमाम बदमाश, जुआरी, तस्कर हमारे बगल में और हमारे ऊपर लाकर बैठा दिए गए हैं? और कितना समझौता करेंगे आप?”

 

रामजीलाल सुमन

 

दलित और ओबीसी के जमीनी तालमेल का अबकी सवाल ही नहीं है। दोनों तबके अपने आरक्षण और संवैधानिक हक को बचाने के लिए वोट कर रहे हैं। दलित सपा-कांग्रेस के साथ है

 

रामजीलाल सुमन, सांसद, सपा

 

यूपी में चर्चित जुमले ‘वंदे मातरम बनाम धंधे मातरम’ की इस जंग में अब निर्णायक मोड़ आ रहा है। पिछले चुनाव में शहडोल के प्रभारी रह चुके बुंदेलखंड भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘‘हम लोग बस राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर अपनी आहुति दिए जा रहे हैं, लेकिन इसकी एक सीमा है। अब बर्दाश्त नहीं होता। यह चुनाव हो जाने दीजिए, सत्ताईस में बगावत होगी।’’

 

उनके स्वर से लगता है कि वे अबकी वोट देने के मूड में नहीं हैं, लेकिन उनका मानना है कि इस बार भाजपा के इतने वोट तो यूपी में हैं ही कि वह केंद्र में सरकार बना ले। सरकार बनने के बाद क्या  होगा, इस बारे में वे स्पष्ट हैं, ‘‘जनता बगावत करेगी।’’

 

आंदोलन की जमीन

 

बुंदेलखंड का किला भीतर से दरक रहा है, तो किसान आंदोलनों की जमीन रहे अवध में मतदाता अब इंतजार करने के मूड में नहीं दिखते। सीतापुर में मनरेगा मजदूरी करने वाली दलित महिला सुंदरी कहती हैं, ‘‘इस बार भाजपा नहीं गई, तो आगे चुनाव नहीं होगा।’’

 

आगरा से शुरू हुआ ‘आरक्षण बचाने’ का मंत्र सीतापुर पहुंच कर न्याय, अधिकार और चुनाव को बचाने के नारे में तब्दील होता दिखता है। कमलापुर चौकी के अंतर्गत आने वाला केंवलपुर गांव इसका अद्भुत उदाहरण है, जो बरसों से मिशन का गांव रहा है और जहां कांशीराम खुद आते रहे थे। यह गांव परंपरागत रूप से बसपा का वोटर रहा है। यहां पासी बिरादरी सबसे बड़ी है, उसके बाद रैदासी हैं। दिलचस्प यह है कि इस गांव में जो परिवार राजनीतिक नेतृत्व की भूमिका में है उसके लोग राष्ट्रीय लोकदल से संबद्ध हैं। ये सभी कांग्रेस को वोट देने की बात कर रहे हैं और इन्होंने लगातार भाजपा-रालोद गठबंधन की मुखालफत की है।

 

रालोद के नेता और केंवलपुर निवासी धर्मेश चौधरी कहते हैं, ‘‘हम लोग बसपा के सिद्धांत से कभी दूर नहीं गए। इसके बावजूद हम समझ रहे हैं कि अबकी पंजे पर वोट देना जरूरी है। पहले भाजपा को हटाना है, वरना आगे से चुनाव ही नहीं होगा।’’ 

 

उनके पिताजी सुंदरलाल भारती इलाके में ‘नेताजी’ कहे जाते हैं। उनके साथ ही 1977-78 के दौरान गांव के एक और बुजुर्ग हमनाम सुंदरलाल राजवंशी भी कांशीराम के मिशन से जुड़े थे। सत्तर के लपेटे में ये दोनों बुजुर्ग राजनीतिक बाध्यताओं को समझते हुए रणनीतिक मतदान की बात कर रहे हैं, लेकिन दलित सशक्तीकरण की पहली पीढ़ी अब भी हाथी पर ही टिकी हुई है।

 

अस्सी पार चंद्रकली यह पूछने पर कि किसे वोट देंगी, छूटते ही कहती हैं ‘हाथी।’ धर्मेश बताते हैं कि इतने पुराने लोगों को अब समझाया नहीं जा सकता। गांव में हालांकि दरवाजों और खंबों पर बसपा के पर्चे चिपके दिखाई देते हैं। कोर बसपाई वोटरों को गठबंधन की तरफ खींचने की कोशिशें केंवलपुर तक ही सीमित नहीं हैं।

 

मछरेटा के रास्‍ते में पड़ने वाले जाजपुर गांव में संगतिन मजदूर किसान यूनियन की औरतें घूम-घूम कर पंजे का प्रचार कर रही हैं। वे सभी पासी हैं और मनरेगा में मजदूरी करती हैं, लेकिन उन्हें अपने अधिकारों का बखूबी भान है। इन्हीं में एक शिवप्यारी अपनी बोली में कहती हैं, ‘‘भाजपा फिर आ जाएगी तो मनु का संविधान लागू कर देगी।’’ उन्हीं की एक साथिन कहती हैं, ‘‘मनु केर संविधान लागू हो जाई त मरद औरतन के सराब पी के मरिहैं अउर थाना में हम रिपोर्टो न लिखा पइबै। हमार आजादी छिन जाई।’’

 

आजादी, बराबरी और न्याय- इन्हीं तीन शब्दों के इर्द-गिर्द अवध क्षेत्र के गांवों में चुनाव आकार ले रहा है। इसमें चिंताएं अलग-अलग हैं लेकिन चुनौती केवल एक- संविधान को बचाना। दिलचस्प है कि बुंदेलखंड से लेकर मध्य यूपी तक ‘वंदे मातरम’ वाले संघ प्रचारकों और शुचिताप्रेमी भाजपा कार्यकर्ताओं को भी प्रकारांतर से संविधान की ही चिंता है, भले ही वह सांगठनिक भ्रष्टाचार और नैतिकता के मुद्दों के रूप में उभर कर आ रही हो।  

 

अपने-अपने अन्याय 

 

तो क्या इस आम चुनाव का मुद्दा संविधान है? लखनऊ युनिवर्सिटी के प्रोफेसर सुधीर पंवार इससे आश्वस्त होते हुए कहते हैं, ‘‘देखिए, जरूरी नहीं कि हर किसी को संविधान बचाने का मतलब पता ही हो, लेकिन जिसको उसमें से जो फायदा दिख रहा है वह उसके हिसाब से पोजीशन ले रहा है। दलितों-पिछड़ों के लिए आरक्षण ही सहारा है, तो उनके लिए संविधान बचाने का मतलब आरक्षण बचाना है।’’

 

भाजपा और संघ के निराश लोग मानते हैं कि इस चुनाव में कोई मुद्दा ही नहीं है। वे विपक्ष को मुद्दा खड़ा न कर पाने का जिम्मेदार मानते हैं। वहीं सामान्य नौकरीपेशा शहरी लोग कानून व्यवस्था को एक सकारात्मक मुद्दा मानकर चल रहे हैं, हालांकि बाकी मुद्दों पर वे उतने मुखर नहीं हैं। अमेठी के एक कॉलेज में समाजविज्ञान पढ़ाने वाले शिक्षक नरेश कहते हैं, ‘‘योगीजी के राज में लॉ एंड ऑर्डर तो सुधरा है। इसे आप पॉजिटिव मान सकते हैं, लेकिन महंगाई और बेरोजगारी भी बढ़ी है।’’

 

संघ के चार दशक पहले जुड़े एक वरिष्ठ प्रचारक कहते हैं, ‘‘लोगों को अभी चोट लगनी बाकी है।’’ उनका इशारा नरेश जैसे शहरी मतदाताओं की ओर है, वरना गांवों में यह चोट एकदम साफ दिखती है।

 

धौरहरा विधानसभा में एक आदमी का बिजली बिल डेढ़ लाख रुपया आ गया। उसे चुकाने के लिए उसको अपनी जमीन बेचनी पड़ गई। ऊंचाहार में एक गांव के दलितों और मुसलमानों की जमीन ठेकेदारों ने हलका दारोगा और इंजीनियर के साथ मिलकर बाईपास के नाम पर कब्जा ली। पुराने सरकारी कर्मचारी रहे सईद खान की दस करोड़ रुपये के बाजार दर वाली जमीन मुफ्त में चली गई जबकि उसकी मालियत प्रशासन ने 17 लाख लगाई है। वे अदालत जाकर स्टे ले आए, तो उन्हें जान से मारने की धमकी मिलने लगी। महीने भर में वे चार बार रायबरेली के कलेक्ट्रेट जा चुके हैं लेकिन जिलाधिकारी कथित तौर पर उन्हें  मिलने का समय नहीं दे रही हैं। आउटलुक के पास इस केस के दस्तावेज सुरक्षित हैं।

 

जोर, जबर और अन्याय की ऐसी कहानियां समूचे सूबे में बिखरी पड़ी हैं। सबसे ताजा कहानी नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस की है, जहां शहर के बीचोबीच अस्सी के पास रिहायशी इलाके की जमीन को 1883 के कागजात के आधार पर बंजर घोषित कर दिया गया है और सैकड़ों परिवारों की नींद रातोरात उड़ गई है जो चार पीढ़ी से वहां रह रहे हैं। इसी मोहल्ले के एक शख्स दिल्ली के प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान में नौकरी करते हैं, लेकिन अफसोस जताते हैं कि दिनदहाड़े लूट की ऐसी कहानी छापने को बनारस से दिल्ली तक कोई रिसाला तैयार नहीं है।

 

ऐसे तमाम अन्यायों को अलग-अलग क्षेत्रों में चुनावी मुद्दा बनाया जा सकता था। राजनीतिक विपक्ष ऐसा करने में बुरी तरह नाकाम रहा। गठबंधन केवल जातिगत समीकरण के भरोसे है जबकि भाजपा अपने बने-बनाए मतदाताओं के भरोसे है। जनता के साथ हो रहे अन्याय से किसी का वास्ता नहीं है। नतीजतन, लोग खुद अपने साथ हुई नाइंसाफियों पर राजनीतिक समझदारी बनाकर इस चुनाव में अपना पक्ष चुन रहे हैं। 

 

यूपी का चुनाव भाजपा और भाजपा-विरोधी वोटों में बंट चुका है। दोनों ही खेमों में मोहभंग और हताशा की स्थिति है। इसलिए चुनाव जमीन पर गायब है और नेता हवा में तलवार भांज रहे हैं। मतदाताओं को अपने प्रत्याशियों का नाम भले न मालूम हो, लेकिन उनके चुनाव चिह्न बखूबी पता हैं। एक मजदूर को हमने कहते सुना- ‘‘अबकी पंजे पर दबइहौ तो साइकिल पर वोट जाई, सइकिल पर दबइहौ त पंजा जीती।’’ लेकिन शंकाएं भी हैं। जो भी हो, स्थितियां नतीजों के दिन ही साफ हो पाएंगी।

 

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