उत्तर प्रदेश की गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीट पर हुए उपचुनावों में भाजपा को करारी शिकस्त मिली है। दोनों सीटों पर समाजवादी पार्टी (सपा) को जीत मिली है। लेकिन सबसे चौंकाने वाला नतीजा गोरखपुर का रहा।
सपा के उम्मीदवार प्रवीण निषाद ने भाजपा के उपेंद्र शुक्ल को 21,881 वोटों से हराया। बसपा समर्थित सपा प्रत्याशी प्रवीण निषाद को कुल 4,56,513 वोट मिले हैं। जबकि दूसरे नंबर पर रहे भाजपा के उम्मीदवार उपेंद्र दत्त शुक्ल को कुल 4,34,632 वोट मिले हैं।
हार भले भाजपा उम्मीदवार उपेंद्र शुक्ल की हुई हो लेकिन इसे योगी की हार के तौर पर देखा जा रहा है। आम तौर पर इसे यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ का गढ़ कहा जाता है। 'गोरखपुर में रहना है तो योगी-योगी कहना है' जैसे नारे यहां सुनाई देते थे लेकिन अब स्थिति शायद बदलने वाली है। सत्ता के केंद्र बंट चुके हैं।
चुनाव हारने के बाद योगी ने कहा कि उन्हें इस नतीजे की उम्मीद नहीं थी। वह हार की समीक्षा करेेंगे। हाल ही में त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में योगी ने स्टार प्रचारक की भूमिका निभाई थी। नाथ संप्रदाय के लोगों की बहुलता की वजह से भाजपा का यह पैंतरा काम भी कर गया लेकिन अब अपना गढ़ हारने के बाद योगी की छवि को भी धक्का पहुंचेगा। माना जा रहा था आरएसएस मोदी के बाद किसी हिंदुत्ववादी चेहरे को आगे बढ़ाने की रणनीति पर चल रहा है और योगी इस क्रम में सबसे पहले आते थे।
बीते तीन दशक में उत्तर प्रदेश में चाहे कांग्रेस की ओर मतदाताओं का रुख रहा हो या सपा, बसपा की ओर लेकिन गोरखपुर सीट के मिजाज पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ा और भाजपा यहां बिना किसी कड़ी लड़ाई के जीत दर्ज करती रही। अब जबकि केंद्र और उत्तर प्रदेश दोनों जगह भाजपा बहुमत से सरकार में है और गोरखपुर के आदित्यनाथ मुख्यमंत्री हैं तो कैसे ये सीट भाजपा के हाथ से निकल गई। इसकी चार बड़ी वजहें ये हो सकती हैं।
मठ के बाहर का उम्मीदवार
गोरखपुर की राजनीति का केंद्र गोरखनाथ मठ रहा है। ऐसा माना जाता है कि गोरखनाथ मठ के प्रति आस्था के चलते लोग मठ से जुड़े प्रत्याशी को वोट देते रहे हैं। करीब 30 साल बाद भारतीय जनता पार्टी ने गोरखपुर में गोरखनाथ मंदिर से बाहर के शख्स को लोकसभा के चुनाव में प्रत्याशी बनाते हुए उपेंद्र दत्त शुक्ला को टिकट दिया। शुक्ला, भाजपा के क्षेत्रीय इकाई के अध्यक्ष हैं। ब्राह्मण चेहरा माने जाने वाले शुक्ला को भाजपा ने टिकट तो दे दिया लेकिन शायद ना तो उनके साथ राजपूत ऐसे जुट सके, जैसे आदित्यनाथ के साथ खड़े होते थे और ना ही वो वोट उन्हें मिल सके जो योगी को इसलिए मिलते थे क्योंकि वो मंदिर के महंत हैं।
सपा-बसपा का साथ आना और वोटों का बंटवारा
उपचुनाव में सपा की जीत की बड़ी वजह उसे बसपा का समर्थन रहा है। बसपा का एक अपना एक वोट बैंक माना जाता है, जिसे वो सपा को ट्रांसफर कराने में कामयाब रही। फूलपुर गंवाने वाले केशव प्रसाद मौर्य ने भी कहा कि उन्हें आश्चर्य है कि बसपा को सपा का इतना वोट कैसे ट्रांसफर हो गया।
इसके साथ-साथ पीस पार्टी और निषाद पार्टी का भी समर्थन सपा उम्मीदवार को मिला। खास बात ये रही कि सपा ने निषाद पार्टी के अध्यक्ष के बेटे प्रवीण निषाद को टिकट दिया। गोरखपुर में निषाद वोट निर्णायक है, जो सपा को मिला। ऐसे में एक कड़े मुकाबले में सपा को जीत मिली। सपा और साथी पार्टियां मिलकर इतना मजबूत हो गईं कि वो भाजपा पर भारी पड़ीं।
‘अगस्त में तो बच्चे मरते ही हैं’
दिमागी बुखार से बच्चों की मौत का मामला बीते साल अगस्त में गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में एक रात में 34 बच्चों की मौत और इस इलाके में तीन दशक से लगातार मौत का तांडव रच रहे इंसेफेलाइटिस का जिक्र अखिलेश यादव ने लगातार अपने भाषणों में किया। अखिलेश ने लगातार इस बात के लिए आदित्यनाथ को घेरा कि कैसे मुख्यमंत्री होने के बावजूद उनके ही क्षेत्र में कुछ लाख की ऑक्सीजन के चलते बच्चों की मौत हुई और फिर उनके मंत्रियों ने इस पर गैर जिम्मेदाराना बयान दिए। यूपी के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह ने कह दिया था कि अगस्त में तो बच्चे मरते ही हैं। जिस तरह से इस बुखार से क्षेत्र के लोग कई सालों से परेशान हैं और जैसे भावानात्मक मुद्दा बनाकर अखिलेश यादव ने इसे अपनी सभाओं में उठाया, इससे भी फर्क पड़ा।
योगी तो सीएम बने पर गोरखपुर को खास लाभ नहीं मिला
विकास से अछूता गोरखपुर गोरखपुर सीट हमेशा ही लोगों का ध्यान खींचती रही है, इसकी वजह गोरखनाथ मंदिर के महंत का चुनाव लड़ना भी रहा है। इस सीट से बीते कई चुनाव जीत चुके आदित्यनाथ अपने भाषणों को लेकर भी चर्चा में बने रहते हैं। गोरखपुर के लोगों का भी ये कहना है कि गोरखपुर में विकास के नाम पर कुछ नहीं हुआ है लेकिन मंदिर की आस्था के चलते आदित्यनाथ को वोट मिलते रहे हैं। उन्हें उम्मीद थी कि योगी के सीएम बनने के बाद शायद स्थिति बदले लेकिन मामला ढाक के तीन पात वाला ही है। अब जबकि आदित्यनाथ को सीएम बने एक साल हो गए तो भी गोरखपुर को कुछ खास नहीं मिला, जिसको लेकर मतदाताओं में एक नाराजगी थी। लोगों ने मतदान के दिन भी ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया। गोरखपुर में वोटिंग परसेंटेज पिछले कई सालों में सबसे कम रहा, तभी भाजपा के माथे पर बल पड़ गए थे। भाजपा की चिंता सच साबित हुई।