एग्जिट पोल्स की भविष्यवाणियों के विपरीत, एनडीए बिहार में सरकार बनाने की ओर अग्रसर है, यदि शुरुआती रूझान के मुताबिक मतगणना जारी रहता है।
38 जिलों में 55 केंद्रों पर चार घंटे की वोटों की गिनती पूरी होने के बाद विकासशील इंसान पार्टी और हम के सहयोग से जेडीयू-बीजेपी गठबंधन की सत्ता में आने की संभावना है। इसे बनाए रखने के लिए लगभग 133 सीटों पर बढ़त बनाते हुए राजद की अगुवाई में महागठबंधन बहुत बहुत पीछे छोड़ दिया है। किसी भी गठबंधन को बहुमत पाने के लिए 243 सदस्यीय बिहार विधानसभा में 122 के जादुई आंकड़े की जरूरत है।
महागठबंधन के नेता अभी भी आशावादी हैं और अंतिम परिणामों की प्रतीक्षा करने के लिए कह रहे हैं, लेकिन अगर अगले कुछ घंटों में मौजूदा रुझान यही रह जाता हैं तो नीतीश एक बार फिर मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो 69 वर्षीय नेता आजादी के बाद पहले मुख्यमंत्री होंगे जिन्होंने बिहार में लगातार चौथी बार जीत के लिए अपने गठबंधन का नेतृत्व किया हो।
फिर भी, यदि नीतीश की पार्टी जेडीयू के खाते में अपने सहयोगी दल बीजेपी से अधिक सीटें मिलती है तो यह नीतीश के लिए दोहरी जीत हो सकती है। 2005 से जेडीयू ने भाजपा के मुकाबले अधिक सीटों पर चुनाव लड़कर और जीतकर गठबंधन के भीतर एक बड़े भाई की भूमिका निभाई है। लेकिन, इस बार जेडीयू को कम सीटों मिलने की संभावना है, भले ही पार्टी ने अधिक सीटों पर चुनाव लड़ा हो।
इस चुनाव में जेडीयू ने 115 सीटों पर चुनाव लड़े हैं जबकि भाजपा ने 110 सीटों पर चुनाव लड़ा है। फिलहाल के जो रुझान सामने आए हैं, उसके मुताबक भाजपा लगभग 75 सीटों से आगे चल रही है जबकि जेडीयू 52 सीट पर आगे है। हालांकि, ये नीतीश के राज्य सरकार की बागडोर संभालने की संभावनाओं को एक बार फिर से नुकसान नहीं पहुंचा सकती है क्योंकि भाजपा ने पहले ही घोषणा कर रखी है कि अगर बीजेपी ज्यादा सीटें जीतती तो भी वो एनडीए की तरफ से मुख्यमंत्री होंगे।
लेकिन, ये निश्चित तौर से गठबंधन के भीतर नीतीश कुमार की स्थिति को काफी हद तक कमजोर कर देगा, जहां नीतीश का हमेशा से ऊपरी तौर पर हाथ रहा है। वास्तव में, उन्होंने 2015 में एनडीए के नाता तोड़ बीजेपी के बिना महागठबंधन की अगुवाई में चुनाव लड़ा था और भारी जीत दिलाई थी। हालांकि, 2017 में नीतीश ने एनडीए में फिर से वापसी कर ली थी।
2019 के लोकसभा चुनावों में जेडीयू और भाजपा ने बिहार में 17 सीटें लड़ीं थी, जिसमें रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) को 6 सीटें मिली थीं। लेकिन, भाजपा और लोजपा ने अपनी सभी सीटें जीतीं जबकि जेडीयू ने अपनी किशनगंज की एक सीट नहीं जीत पाई। यहां से कांग्रेस ने जीत दर्ज की। हालांकि, भाजपा ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में जेडीयू को बाद में केवल एक पद की पेशकश की गई, जिससे केंद्र में मोदी मंत्रालय से बाहर रहने के लिए नीतीश को मजबूर होना पड़ा।
2019 से पहले जेडीयू और भाजपा ने हमेशा 60:40 के अनुपात के आधार पर चुनाव लड़ा है, लेकिन वे अब समान भागीदार बन गए। अब, अगर बीजेपी जेडीयू की तुलना में लगभग 15-20 सीटें ज्यादा जीत लेती है, तो गठबंधन के भीतर नीतीश की स्थिति और कमजोर हो जाएगी।
पहले से ही बीजेपी नेताओं का मानना है कि इस चुनाव में मोदी मैजिक ने एनडीए और नीतीश को बचाया है क्योंकि मुख्यमंत्री के खिलाफ राज्य की जनता में काफी आक्रोश था। भगवा पार्टी के नेताओं के एक वर्ग का ये भी मानता है कि बीजेपी को जेडीयू के साथ दूसरे पायदान पर खड़े होकर चुनाव लड़ना बंद कर देना चाहिए और अपनी प्रमुख भूमिका का निर्वाह करना शुरू कर देना चाहिए।
हालांकि, जेडीयू नेताओं का मानना हैं कि मुख्यमंत्री पद के लिए नीतीश एनडीए का सबसे स्वीकार्य चेहरा हैं। पिछले 15 वर्षों में उन्होंने बिहार के विकास की छवि को और बेहतर किया है। उनका कहना है कि बिहार में दोनों दलों को एक-दूसरे की जरूरत है और नीतीश गठबंधन के स्वाभाविक नेता बने हुए हैं। ऐसा भी हो सकता है कि पार्टी को पता हो कि नीतीश के पास हमेशा लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद में जाने का विकल्प है, जैसा कि उन्होंने 2015 में किया था।
अंतिम परिणाम जो भी हो लेकिन ये तय है कि 2000 के बाद पहली बार एनडीए में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने वाली भाजपा का भविष्य में बिहार की राजनीति पर दिलचस्प असर पड़ेगा।