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चुनावी चंदाः बॉन्ड का गड़बड़झाला

सुप्रीम कोर्ट के जोर से सामने आए चुनावी चंदा के आंकड़े बताते हैं कि अधिकतर कारोबारी क्षेत्र की कंपनी...
चुनावी चंदाः बॉन्ड का गड़बड़झाला

सुप्रीम कोर्ट के जोर से सामने आए चुनावी चंदा के आंकड़े बताते हैं कि अधिकतर कारोबारी क्षेत्र की कंपनी का सत्तारूढ़ दल सहित अन्य पार्टियों के साथ सीधा लेना-देना है, जिसकी कीमत नागरिकों को चुकानी पड़ रही है

महज छह साल पहले 7 जनवरी, 2018 को तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संसद में चुनावी बॉन्ड की योजना को पेश करते हुए कहा था, ‘‘यह पूरी तरह साफ-सुथरे पैसे का मामला है और इससे राजनीतिक चंदे के तंत्र में पर्याप्त पारदर्शिता आ जाएगी।’’ आज जेटली तो नहीं हैं, लेकिन उनकी लाई योजना को इस देश की शीर्ष अदालत ने ‘असंवैधानिक ठहराकर भारतीय जनता पार्टी सहित लगभग सभी राजनीतिक दलों को कठघरे में खड़ा कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट से दो बार झिड़की खाने के बाद इन बॉन्डों के इकलौते आधिकारिक जारीकर्ता भारतीय स्टेट बैंक ने आखिरकार जब चुनाव आयोग को मार्च के तीसरे सप्ताह में चुनावी बॉन्डों की खरीद और भुनाए जाने के आंकड़े अल्फान्यूमेरिक कोड सहित मुहैया करवाए, तो उसका मिलान करके लेनदेन का ‘गोरखधंधा’ पता करने में जानकारों को बमुश्किल घंटे भर का समय लगा। अब तक एक-एक करके इसकी परतें रोज खुल रही हैं। यहां बॉन्ड खरीदकर उससे राजनीतिक दलों को चंदा देने के बदले सरकारी ठेका लेने, भ्रष्टाचार के मुकदमे और जांच से बरी होने, दवाओं के लाइसेंस पास करवाने और यहां तक कि कंपनी के मालिकान को राज्यसभा की सांसदी दिलवाने तक का आरोप सामने आ चुका है। लगता है इस दलदल में सबके पैर धंसे हैं, सिवाय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के, जिसने न केवल इस योजना का विरोध किया था बल्कि इसके खिलाफ याचिका भी लगाई थी। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे सत्ता से बाहर बैठे छोटे दलों को तो खैर चंदा ही नहीं मिला।

इस चंदा योजना की प्रवर्तक और इसके परिणामस्वरूप सबसे बड़ी लाभार्थी या लेनदार भाजपा है, जिसे उन 41 कंपनियों से कुल 2,471 करोड़ रुपये का चंदा मिला जिनके खिलाफ केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ), प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और आयकर विभाग जैसी केंद्रीय एजेंसियां जांच कर रही थीं। इसमें से 1,698 करोड़ रुपया पार्टी को कंपनियों ने अपने यहां छापा पड़ने के बाद दिया। इनके अलावा 33 ऐसी कंपनियां हैं जिन्हें कथित रूप से भाजपा को चंदा देने के बाद 172 सरकारी ठेके मिले। चुनावी बॉन्ड के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने बताया कि ऐसी कंपनियों ने बॉन्ड खरीदने के बाद भाजपा को 1,751 करोड़ रुपया चंदा दिया और बदले में 3.7 लाख करोड़ रुपये के ठेके हासिल किए।

चंदे का हिसाब

चुनावी बॉन्ड के सारे आंकड़े करीब 600 पन्ने के हैं। इसलिए इन आंकड़ों को मथना और जानना एक बात है, लेकिन यह मामला दरअसल महज एक असंवैधानिक योजना के सहारे सत्ताधारी राजनीतिक दल, अन्य राजनीतिक दलों और कारोबारों के बीच पैसों और प्रच्छन्न हितों की लेनदेन तक सीमित नहीं है। प्रथम दृष्टया यह नीतिगत भ्रष्टाचार का मामला दिखता है जहां कानून के जामे में भ्रष्टाचार को सुनियोजित रूप से अंजाम दिया गया है। इसके लोकतंत्र और संविधान के लिए गंभीर निहितार्थ हैं।

कंपनी, कानून और कोर्ट

कुछ साल पहले 28 सितंबर, 2010 को आधार संख्या से पहचान स्थापित किए जाने की सरकारी परियोजना के खिलाफ 17 गणमान्य नागरिकों ने एक दस्तावेज जारी किया था। उनमें एक दस्तखतकर्ता थे एसआर शंकरन। जब उनका निधन हुआ, तो उनकी मेज पर एक वाक्य लिखा हुआ रखा था। वह वाक्य  था, ‘‘तमाम किस्म के अपराधों के बीच सबसे दर्दनाक वे अपराध होते हैं जिन्हें कानून के नाम पर किया जाता है।’’

निजी दाताओं का चंदा

चुनावी बॉन्ड‍ के संदर्भ में शंकरन की याद दिलाते हुए कंपनी कानून पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से शोध कर चुके और संसदीय समिति के समक्ष प्रतिवेदन दे चुके विधिवेत्ता डॉ. गोपाल कृष्ण कहते हैं, ‘‘हम सुनते थे, समाजशास्‍त्र के प्रोफेसर बताते थे कि कंपनियां कानून से बनती हैं। ये सब बताता है कि असल में कंपनियां ही कानून बनाती हैं। चुनावी बॉन्ड का डेटा सामने आने के बाद अब इसमें अब थोड़ा-सा भी शक नहीं रह गया है।’’  

डॉ. गोपाल बताते हैं कि वित्त विधेयक के जिस रास्ते से चुनावी बॉन्ड योजना को लाया गया था, आज वह खुद सवालों के घेरे में है और आधार कानून के खिलाफ लगी याचिकाओं की मार्फत सुप्रीम कोर्ट में उस पर सुनवाई चल रही है। इस चंदा योजना के लिए कंपनी कानून, 2013 को भी संशोधित किया गया और सरकारी योजना के हिसाब से चुनावी बॉन्ड जारी करने को सक्षम बनाने के लिए रिजर्व बैंक के कानून (आरबीआइ एक्ट) को भी संशोधित कर दिया गया। इसलिए अगर चुनावी बॉन्ड के असंवैधानिक धंधे को पूरी तरह समझना है, तो कंपनी कानून 2013, लोकसभा और विधानसभा चुनावों में राजकीय अनुदान संबंधी विधेयक 2004 और सरकारी व्यय पर चुनाव लड़ने संबंधी बिल 2012 को मिलाकर पढ़ना पड़ेगा।

चुनावी कानून में संशोधन पर संसद की संयुक्त समिति (1972), 1975 और 1978 में जयप्रकाश नारायण द्वारा गठित दो कमेटियां, चुनाव सुधार पर दिनेश गोस्वामी कमेटी (1990), अंतरसंसदीय परिषद द्वारा 1994 में एकमत से अंगीकृत स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव पर घोषणापत्र, सर्वदलीय बैठक (1998), इंद्रजीत गुप्ता कमेटी (1999), मंत्रीसमूह (2001), मंत्रीसमूह (2011) और चुनावी प्रक्रिया में भ्रष्टाचार के खिलाफ उपाय के तौर पर चुनावों के राजकीय वित्तपोषण के लिए कांग्रेसनीत यूपीए (2011)- इन सभी की सिफारिशों की उपेक्षा करते हुए कंपनी कानून 2013 ने 2002 के कंपनी कानून में जो नाजायज प्रावधान किया था ताकि कंपनियां अपने सालाना मुनाफे का 5 प्रतिशत तक राजनीतिक दलों को चंदा दे सकें, उसकी सीमा को बढ़ाकर 7.5 प्रतिशत कर दिया गया। 2002 में 5 प्रतिशत चंदे वाला प्रावधान भी अरुण जेटली ही लेकर आए थे, जिसे 2013 में पहले 7.5 प्रतिशत किया गया, फिर 2017 और 2018 में बेनामी और असीमित कर दिया गया।

टॉप 5 चुवावी चंददाता सेक्टर

डॉ. गोपाल कृष्ण कहते हैं, ‘‘यह समझना जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में केवल 2017 और 2018 के संशोधन को असंवैधानिक बताया है। इस फैसले ने कंपनियों द्वारा उनके सालाना मुनाफे का 7.5 प्रतिशत तक राजनीतिक दलों को चंदा देने के नाजायज संशोधन को अभी तक असंवैधानिक घोषित नहीं किया है।’’ शायद इसीलिए एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के प्रमुख जगदीप चोकर का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक ठहराए जाने के बाद सामने आए चुनावी बॉन्ड के आंकड़े एक हिमखंड की ऊपरी सतह भर हैं और पानी के नीचे अब भी बहुत कुछ अदृश्य है।

जाहिर भी, गायब भी

चुनावी बॉन्ड के आंकड़ों से जो कुछ जाहिर है, उस पर आने से पहले उसकी सबसे बड़ी विडंबना यानी उसमें छुपा हुआ बेनामी चंदे वाला हिस्सा देखना जरूरी है। आंकड़ों को देखने पर सबसे पहली नजर उस तारीख पर पड़ती है जबसे चुनावी बॉन्डों की खरीद स्टेेट बैंक के मुहैया कराए आंकड़े में दर्ज है। यह 16 अप्रैल, 2019 है। इससे पहले के 15 महीने में खरीदे गए और भुनाए गए बॉन्डों का आंकड़ा कहां है? यह इकलौती पहेली नहीं है।

दूसरी पहेली पहले वाली से जुड़ी हुई है। भारतीय जनता पार्टी के हिसाब में 1,679 बेनामी चंदा प्रविष्टियां हैं। इन सभी प्रविष्टि में दर्ज बॉन्डों को भुनाए जाने की अवधि 12 अप्रैल 2019 से 25 अप्रैल 2019 के बीच है। ये बॉन्ड जाहिर है 12 अप्रैल 2019 से पहले खरीदे गए होंगे, लेकिन 16 अप्रैल 2019 से पहले का खरीद विवरण मौजूद ही नहीं है। इस तरह यह पता नहीं चलता कि भाजपा के खाते में जो 466 करोड़ रुपये आए, वे किसने दिए और किन बॉन्डों के एवज में दिए। न इन बॉन्डों की खरीद का अता-पता है न ही इनके कोड का।

ऐसा बेनामी चंदा तकरीबन सभी दलों को मिला है, लेकिन भाजपा के मुकाबले बहुत कम है। सबसे कम आम आदमी पार्टी को बीस लाख रुपया बेनामी चंदा मिला है। कांग्रेस पार्टी को 70 करोड़ रु., भारत राष्ट्र समिति को 23.5 करोड़ रु., तृणमूल कांग्रेस को 17 करोड़ रु, इसके बाद वाइएसआर कांग्रेस, तेदेपा, द्रमुक, अन्नाद्रमुक, राकांपा को दस करोड़ रु. से नीचे का बेनामी चंदा मिला है। आखिर स्टेट बैंक ने आधा-अधूरा डेटा क्यों चुनाव आयोग को दिया? कुल छह सौ करोड़ रुपये से ऊपर के बेनामी चंदे का हिसाब कहां है?

दूसरा सवाल स्टेट बैंक के इस दावे से जुड़ा है कि उसे डेटा मिलान के लिए 30 जून तक का समय चाहिए था। समय सीमा बढ़ाने का उसका अनुरोध उसकी अपनी उस स्वीकारोक्ति के विपरीत था जिसमें उसने स्पष्ट रूप से कहा था कि सभी क्रय लेनदेन उन तरीकों के माध्यम से होते हैं जो डिफॉल्ट रूप से पता लगाने योग्य होते हैं और पहले से ही रिकॉर्ड किए जाते हैं। इस स्वीकारोक्ति की पुष्टि करने वाला दस्तावेज 6 मार्च तक स्टेट बैंक की वेबसाइट पर उपलब्ध था लेकिन अब उसे वहां से हटा दिया गया है। ऐसा क्यों किया गया? इस दावे को क्या बैंक द्वारा सुप्रीम कोर्ट को भ्रमित करने की कोशिश नहीं माना जाना चाहिए?

स्टेट बैंक द्वारा चुनाव आयोग को चुनावी बॉन्ड की लेनदेन का डेटा दिए जाने से पहले पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने कहा था कि देश का अग्रणी सरकारी बैंक घालमेल वाली बात कर रहा है। द हिंदू में लिखे एक लेख में उन्होंने बैंक पर सवाल खड़ा किया था। इसके बाद पूर्व वित्त सचिव एससी गर्ग ने चुनावी बॉन्ड पर स्टेट बैंक की कार्रवाई को पूरी तरह अनपेक्षित और गैर-कानूनी करार दिया। उनका कहना था कि अगर बैंक ने अब कोड सार्वजनिक कर ही दिया है तो दानदाताओं को योजना के तहत किए गए गुमनाम रहने के वादे का यह उल्लंघन है।

कुल मिलाकर स्टेट बैंक की दोहरी जवाबदेही इस मामले में बन रही है। बहरहाल, जवाबदेही चुनाव आयोग की भी है जिसने योजना लागू किए जाने से पहले सबसे शुरुआत में उसका विरोध किया था, फिर उसे पारदर्शिता के नाम पर मान लिया, फिर सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर चुप्पी साध ली और अब जाकर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करने वाली बात कह दी है। लोकसभा चुनाव की घोषणा के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हुए मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार से जब मीडिया ने चुनावी बॉन्ड पर एक सवाल पूछा तो उन्होंने हीलाहवाली करते हुए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ जाकर एक बयान दे डाला कि चुनावी बॉन्ड ‘चंदा देने वाले की गोपनीयता’ का मसला है।

सवाल उठता है कि दो अग्रणी लोकतांत्रिक संस्थाएं- केंद्रीय चुनाव आयोग और भारतीय स्टेट बैंक- क्या अपनी अखंडता और स्वायत्तता खो चुकी हैं? क्या ये संस्थाएं कंपनियों की पहचान को छुपाने के लिए उनके हित में काम कर रही हैं, जैसा कि अरुण जेटली ने खुद अपने अभिभाषण में स्वीकार किया था और यह प्रावधान बॉन्ड योजना में डाला था? क्या ऐसा इसलिए किया जा रहा है ताकि सत्तारूढ़ दलों और अन्य पार्टियों और कारोबार के बीच लेनदेन की पूरी तस्वीर सामने न आने पाए?

कठपुतली कौन नचावे?

विश्व बैंक के स्टोलेन एसेट रिकवरी इनीशिएटिव ने 2011 में एक रिपोर्ट जारी की थी जिसका नाम था ‘‘द पपेट मास्टर्स।’’ इस रिपोर्ट में भ्रष्टाचार के 150 बड़े मामलों की जांच शामिल है जिनमें कॉरपोरेट माध्यमों जैसे कंपनी या ट्रस्टों का दुरुपयोग किया गया। इनकी कुल लागत 50 अरब डॉलर के आसपास है। ये ऐसी कंपनियां हैं जिन्हें बेनामी बने रहने का चरम अधिकार हासिल है ताकि यह पता ही न चले कि पैसा किसका है। भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने कंपनियों को बेनामी चंदे की इजाजत देकर ऐसा ही अधिकार सौंप दिया था। पैसे का यह छुपा हुआ मालि‍काना काले धन का एक बड़ा लक्षण है, न कि काले धन को उजागर करने का कोई नुस्खा, जैसा कि जेटली ने दावा किया था। इस रिपोर्ट में भारत से सात केस शामिल थे। यानी कंपनियों के हित में जनता की चुनी हुई सरकारों के काम करने की योजना महज दस साल की नहीं, काफी पुरानी है जिसे भाजपा की सरकार ने आगे बढाया। 

आंकड़े इसकी गवाही देते हैं। भाजपा को चुनावी बॉन्ड के रास्ते मिले 6.7 अरब रुपये में सबसे बड़ी दानदाता कंपनी मेघा इंजीनियरिंग रही। इसके बाद क्विक सप्ला‍इ चेन, आदित्य बिड़ला समूह, भारती एयरटेल, वेदांता समूह आदि रहे। तकरीबन इन्हीं कंपनियों ने दूसरे दलों को भी चंदा दिया, लेकिन भाजपा के मुकाबले उसे ऊंट के मुंह में जीरा कहा जा सकता है। हालांकि यह भी सही है कि कॉर्पोरेट  हमेशा से सत्तारूढ़ दल को ही सबसे ज्यादा चंदा देते आये हैं। इस बार इनमें सबसे दिलचस्प मामला डीएलएफ का है जिसने भाजपा को 180 करोड़ रुपये दिए। नरेंद्र मोदी 2014 में जब सत्ता में आए थे तो अपने चुनाव प्रचार में उन्होंने बार-बार कांग्रेस के भ्रष्टाचार का जिक्र किया था। इसमें विशेष रूप से प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वाड्रा का संदर्भ आता रहा था, जिनके ऊपर गुरुग्राम जमीन सौदे में हरियाणा पुलिस ने सितंबर 2018 में एफआइआर दर्ज की थी। भ्रष्टाचार का यह मुकदमा उनके साथ डीएलएफ समूह पर भी था। साल भर बाद अक्टूबर 2019 और नवंबर 2019 के बीच डीएलएफ ने भाजपा को 170 करोड़ रुपये का चंदा दे दिया। ठीक चार महीने बाद राज्य की भाजपा सरकार ने हाइकोर्ट में हलफनामा दे डाला कि उसे जमीन के सौदों में कोई कानूनी उल्लंघन नहीं मिला है।

सबसे बड़े दानदाता

इसके अलावा 25 रियल एस्टेट कंपनियों से सभी राजनीतिक दलों को मिले कुल 630 करोड़ रुपये यानी छह अरब की लेनदेन में भी कई किस्से छुपे होंगे। इसमें भाजपा की हिस्सेदारी 314 करोड़ रु. है यानी जितना पैसा सारे दलों को बिल्डरों से मिला, उतना अकेले भाजपा को मिल गया। जाहिर है, 180 करोड़ के साथ डीएलएफ भाजपा के दाताओं में सबसे ऊपर है। बाकी सूची में बीजी शिरके कंस्ट्रक्शन, कल्पतरू प्रोजेक्ट्स, राजपुष्पा प्रापर्टीज, प्रेस्टीज, पेगासस, रहेजा आदि कई कंपनियां हैं। इनमें से कई कंपनियों ने कांग्रेस, शिवसेना, टीएमसी, बीआरएस को भी चंदा दिया है।

जांच, मुकदमा और छापा पड़ने के बाद अपनी अंटी बचाने के लिए डीएलएफ जैसी लेनदेन का उदाहरण करीब 19 कंपनियों के मामले में दिखता है। लॉटरी कंपनी फ्यूचर गेमिंग पर ईडी ने जुलाई 2019 में छापा मारा और उसकी परिसंपत्तियां जब्त कर लीं। अप्रैल और मई 2023 में फिर छापा पड़ा, उसके बाद रुक गया क्योंाकि कंपनी ने भाजपा के खाते में बॉन्ड के रास्ते सौ करोड़ रु. डाल दिए। मेघा इंजीनियरिंग, एमके जालान समूह, वेदांता, हल्दिया, यशोदा अस्पताल, डॉ. रेड्डीज लैब, हेटेरो फार्मा, अरबिंदो फार्मा, कल्पतरु, हीरो मोटर आदि वे कंपनियां हैं जिन्होंने केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई के बाद पार्टियों को चंदा दिया।

इनमें दो केस सबसे उल्लेखनीय हैं- एक अरबिंदो फार्मा का और दूसरा जिंदल का। जिंदल स्टील के मालिक नवीन जिंदल दो बार से कांग्रेस के सांसद रहे, लेकिन हाल ही में वे आखिरी मौके पर भाजपा में चले गए और उन्हें लोकसभा का टिकट भी लगे हाथ मिल गया। अरबिंदो फार्मा के मालिक शरत चंद्र रेड्डी को दिल्ली के शराब घोटाले में पहले गिरफ्तार किया गया था। रेड्डी के 25 अप्रैल, 2023 को ईडी को दिए गए बयान के आधार पर ही हाल में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को गिरफ्तार किया गया है। आम आदमी पार्टी का आरोप है कि रेड्डी ने पहले केजरीवाल को अपने बयान में निर्दोष बताया था लेकिन बॉन्ड खरीद कर भाजपा को चंदा देने के बाद पलट गए और केजरीवाल को ही घोटाले का ‘किंगपिन’ बता डाला।

बेनामी बॉन्ड

आंकड़े देखने पर पता चलता है कि अप्रैल 2021 से अक्टूबर 2022 के बीच रेड्डी ने अरबिंदो फार्मा ने 22 करोड़ रुपये के बॉन्ड खरीदे जिसमें से बीआरएस ने 15 करोड़ रु., भाजपा ने साढ़े चार करोड़ और तेदेपा ने ढाई करोड़ रु. भुनाए। रेड्डी की गिरफ्तारी 10 नवंबर 2022 को हुई, जिसके पांच दिन बाद उन्होंने पांच करोड़ के बॉन्ड खरीदे और इसके छह दिन बाद 21 नवंबर को भाजपा ने पूरी रकम भुना ली। 25 अप्रैल 2023 को रेड्डी ने अरविंद के खिलाफ ईडी में बयान दिया और जून में सरकारी गवाह बन गए। 8 नवंबर 2023 को फिर रेड्डी ने 25 करोड़ के बॉन्ड खरीदे और हफ्ते भर बाद भाजपा ने उसे पूरा भुनाया।

अगर चुनावी बॉन्ड के जारी पूरे आंकड़े पर मोटी नजर डालें, तो पता चलता है कि कारोबार के 32 विभिन्न क्षेत्रों में फैली कंपनियों ने चुनावी बॉन्डों  के रास्ते राजनीतिक दलों को चंदा दिया है। इन क्षेत्रों में सबसे बड़ी दानदाता दवा कंपनियां हैं (18.7 प्रतिशत) जो नागरिकों के जीवन को बचाने वाले फार्मा क्षेत्र से आती हैं। इसके बाद खनिज उत्पादों और खनन क्षेत्र की कुल चंदे में हिस्सेादारी है (18.1 प्रतिशत)। इसके बाद स्टील (10 प्रतिशत), दूरसंचार (9 प्रतिशत) और सीमेंट (6.1 प्रतिशत) हैं। सबसे निचले पायदान पर खुदरा उपभोक्ता‍ सामान बेचने वाली एफएमसीजी कंपनियां हैं। यानी हमारे भोजन, दवा से लेकर मकान-दुकान, रसोई, मोबाइल फोन तक रोजमर्रा का जीवन जिन चीजों पर निर्भर है, उन्हें बनाने वाली कंपनियां उन राजनीतिक दलों को अपने काम के लिए पैसा देती हैं जिन्हें इस देश के मतदाता इस आस में वोट देते हैं कि वे उनके मसलों को सदन में उठाएंगी।

आउटसोर्सिंग की सरकार?

दरअसल, कंपनी अधिनियम, 2013 में सीएसआर से संबंधित एक प्रावधान है। यह कहता है, ‘‘प्रत्येक कंपनी जिसकी कुल संपत्ति पांच सौ करोड़ रुपये या उससे अधिक है या एक हजार करोड़ रुपये या उससे अधिक का जिसका कारोबार है या किसी भी वित्तीय वर्ष के दौरान पांच करोड़ रुपये का शुद्ध लाभ या अधिक है, वह एक कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व समिति का गठन करेगी। कंपनी औसत शुद्ध लाभ का कम से कम दो प्रतिशत अपने कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के अनुसरण में कंपनी अधिनियम की अनुसूची VII में दर्ज कॉर्पोरेट गतिविधियों को देगी।”

इस सूची को 12 क्षेत्रों में वर्गीकृत किया गया है:  स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा एवं कौशल विकास, लैंगिक समानता और सशक्तिकरण, पर्यावरण, राष्ट्रीय विरासत, सशस्‍त्र बल, खेल, सहायता कोष, ग्रामीण विकास, प्रौद्योगिकी इनक्यूबेटर, झुग्गी क्षेत्र विकास, स्वच्छ भारत, और आपदा प्रबंधन।

ऊपर जिन गतिविधियों का उल्लेख किया गया है वे अपने नागरिकों के प्रति राज्य के कार्य हैं। यह बात संविधान से तय होती है। इसका मतलब कि इस प्रावधान के रास्ते सरकार के कामों या कर्तव्यों को यह कंपनियों को आउटसोर्स करने का मामला है। कंपनी अधिनियम की धारा 181 और 183 कंपनियों को वास्तविक और धर्मार्थ निधियों और राष्ट्रीय निधियों आदि में योगदान करने की भी अनुमति देती है। इस तरह सरकार का काम केवल कंपनियों से सामाजिक और धार्मिक कामों के नाम पर फंड लेना रह जाता है और सामाजिक जिम्मेदारियों से राज्य खुद पल्ला झाड़ लेता है। पहले यह दबे-छुपे होता था, अब इसकी मुनादी की जाती है। केंद्र सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी अनंत नागेश्वरन का ताजा बयान इसकी तसदीक करता है।

इंडिया अनएंप्लॉयमेंट रिपोर्ट 2024 के अनावरण के मौके पर नागेश्वरन ने बीते 26 मार्च को साफ कहा कि सरकार बेरोजगारी सहित तमाम सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का समाधान कर ही नहीं सकती। उन्होंने स्वीकार किया कि यह सोचना ही गलत है कि सरकार के दखल से समस्याएं हल हो जाएंगी। वे ऐसा क्यों कह रहे हैं, इसका जवाब चुनावी चंदे में छुपा है।  

डॉ. गोपाल कहते हैं, ‘‘जो राजनीतिक दल कंपनियों के वार्षिक मुनाफे का 7.5 प्रतिशत तक दान के रूप में इकट्ठा करेंगे उनके पास कॉर्पोरेट अपराधों और सीएसआर गतिविधियों को विनियमित करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति ही नहीं होगी और वे किसी भी मामले में कार्रवाई करने में सक्षम नहीं होंगे।’’

डॉ. कृष्ण चुनावी बॉन्डों की आधी-अधूरी तस्वीर और भारत में कायम हो रहे नए ‘कंपनी राज’ पर पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के पति आसिफ जरदारी की याद दिलाते हैं जिन्हेंे पाकिस्तान के राजनीतिक परिदृश्य में “मिस्टर टेन परसेंट” के नाम से जाना जाता है क्योंकि उन पर सरकारी ठेकों के लिए रिश्वत के रूप में दस प्रतिशत की मांग करने का आरोप रहा है। भारत में भी हम पिछले दिनों कर्नाटक और मध्य प्रदेश में इसी तर्ज पर कांग्रेस के आरोप देख चुके हैं।

वे कहते हैं, ‘‘भारत के राजनीतिक परिदृश्य को पाकिस्तान जैसा बनने से बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को तत्काल प्रभाव से राजनीतिक दलों को 7.5 प्रतिशत चंदा देने की व्यवस्था करने वाली कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 182 पर रोक लगा देनी चाहिए।’’

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