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कांग्रेस: अपनों में ही उलझने का माद्दा, पार्टी के नेतृत्व में अब कलह दूर करने की ताकत की तलाश

“देश की सबसे पुरानी पार्टी के नेतृत्व में अब कलह दूर करने की ताकत की तलाश” लगता है, कांग्रेस ने ठान...
कांग्रेस: अपनों में ही उलझने का माद्दा, पार्टी के नेतृत्व में अब कलह दूर करने की ताकत की तलाश

“देश की सबसे पुरानी पार्टी के नेतृत्व में अब कलह दूर करने की ताकत की तलाश”

लगता है, कांग्रेस ने ठान लिया है कि लाख चुनौतियां हों पर वह अपनों के बीच ही दंगल में मस्त रहेगी। अब यह भी साफ होता जा रहा है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी का नेतृत्व अपने तानेबाने में हर तार को पिरोए रखने की दस्तकारी भूल चुका है। उसमें वह ताकत नहीं बची कि अपने सारे नेताओं की महत्वाकांक्षाओं की बागडोर अपने हाथ में रख सके। वजहें कोई बहुत अबूझ नहीं हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और महासचिव प्रियंका गांधी यानी समूचे गांधी खानदान में अब वोट आकर्षित करने की ताकत न रह जाने की दलीलें पुरानी पड़ चुकी हैं, अब तो सुलझाने की उनकी कोशिशें भी और जोरदार उलझन पैदा कर हैं। पार्टी की यह बीमारी वहां पहुंचती लग रही है कि उसके और विपक्ष के 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को चुनौती देने के मंसूबे भी मुश्किल में पड़ सकते हैं। इसके कोलाहल भरे नमूने पंजाब और छत्तीसगढ़ में दिखे, जहां दिन बीतने के साथ गुत्थी और उलझती जा रही है। राजस्थान के अलावा ये दो राज्य हैं जहां पार्टी की स्थिति मजबूत है। राजस्थान में कलह फूटने का जैसे इंतजार ही हो रहा है। 

पंजाब में राहुल और प्रियंका की शह पर प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए नवजोत सिंह सिद्धू के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह से न टकराव खत्म हो रहे हैं, न सिद्धू का काबू अपनी टीम और सलाहकारों पर दिख रहा है। सिद्धू से भी ज्यादा उनके सलाहकारों-सहयोगियों के बोल बिगड़ते जा रहे हैं। सिद्धू ने हाल में अमृतसर में एक सभा में कहा, “मुझे निर्णय लेने नहीं दिया गया तो मैं ईंट से ईंट बजा दूंगा।” सिद्धू यह भी इशारा कर रहे हैं कि वे ‘डमी’ अध्यक्ष बन कर काम नहीं करेंगे, जिसे पार्टी आलाकमान को भी चुनौती माना जा रहा है। उधर, कैप्टन अमरिंदर को कतई मंजूर नहीं कि पार्टी अध्यक्ष सरकार के कामकाज में दखल दे। सिद्धू और उनके समर्थक 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले सीएम पद के उम्मीदवार के ऐलान का मामला खुला रखने का अभियान चला रहे हैं। हालांकि पार्टी आलाकमान पहले ही साफ कर चुका है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में कैप्टन ही सीएम उम्मीदवार होंगे।

कैप्टन के खिलाफ मोर्चेबंदी में शामिल सिद्धू के दो सलाहकारों में से मलविंद्र सिंह माली को नियुक्ति के 15 दिन के भीतर ही आलाकमान के हस्तक्षेप पर हटाना पड़ा। सिद्धू के साथ शामिल चार कैबिनेट मंत्रियों और करीब 20 विधायकों के जवाब में कैप्टन ने अपनी डिनर डिप्लोमेसी में 60 विधायकों और पांच कैबिनेट मंत्रियों को जुटाकर शक्ति प्रदर्शन किया। पंजाब कांग्रेस में मचे घमासान पर मुख्यमंत्री की पत्नी सांसद परणीत कौर ने आउटलुक से कहा, “कैप्टन साहब ने बड़ा दिल रख पार्टी आलाकमान के हर फैसले का स्वागत किया है, इसका मतलब यह नहीं कि कोई अपनी सीमाओं को लांघ हद से आगे बढ़े।” कैप्टन को सीएम पद से हटाए जाने की मांग पर परणीत कौर ने कहा, “सरकार के साढ़े चार साल के कार्यकाल में तो सब ठीक था, अब क्या हो गया?”

नवजोत सिंह सिद्धू

कैप्टन के खिलाफ सिद्धू की मोर्चाबंदी

अध्यक्ष पद पाने के महीनेभर के भीतर ही सिद्धू ने खुलेआम कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ जंग छेड़ दी है। पंजाब के एक वरिष्ठ मंत्री के मुताबिक, “शिरोमणि अकाली दल और आम आदमी पार्टी से लड़ने के बजाय हम अब तक आपस में लड़ने में व्यस्त हैं, क्योंकि सिद्धू के निशाने पर अब सीएम की कुर्सी है और वे कुछ बागियों के साथ मिलकर इसे कैप्टन से छीनने की कोशिश कर रहे हैं।” कैप्टन के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले कैबिनेट मंत्री सुखजिंदर सिंह रंधावा ने आउटलुक से कहा, “हमने वे मुद्दे उठाए हैं जो साढ़े चार साल के कार्यकाल में हमारी सरकार नहीं सुलझा पाई है। चाहे वह धार्मिक ग्रंथों की बेअदबी हो या रेत, केबल व ट्रांसपोर्ट माफिया का सफाया हो। हम किस मुंह से छह महीने बाद जनता के बीच वोट मांगने जाएंगे।” कैप्टन और सिद्धू के बीच छिड़ी जंग शांत करने राहुल गांधी के जल्द पंजाब दौरे का असर कितना और कब तक रहेगा, यह वक्त ही बताएगा।

टी एस सिंहदेव

सिंहदेव चाहते हैं, ढाई-ढाई साल मुख्यमंत्री का फार्मूला

दूसरी ओर, कांग्रेस शासित छत्तीसगढ़ में ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्री के नाम पर उभरा राजनीतिक तनाव भी कम होता नहीं दिख रहा है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और उनके प्रतिद्वंद्वी स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव दिल्ली तक भागदौड़ कर रहे हैं, लेकिन नेतृत्व परिवर्तन को लेकर विवाद पहले से कहीं ज्यादा गहरा और तीखा हो गया है। दोनों नेताओं को दिल्ली से बुलावा आया तब यही लगा कि केंद्रीय नेतृत्व जल्द ही इस पर अपना निर्णय सुनाकर मुद्दे का निपटारा कर देगा, लेकिन हालिया घटनाक्रम और पार्टी के रवैये से प्रतीत होता है कि वे इसे हल करने की बजाय टालने पर ज्यादा जोर दे रहे हैं। उधर, राज्य में ‘छत्तीसगढ़ डोल रहा है, बाबा-बाबा बोल रहा है’ बनाम ‘छत्तीहसगढ़ अड़ा हुआ है दाउ संग खड़ा हुआ है’ के नारे अब खुलेआम कांग्रेस के भीतर गुटबाजी की बानगी पेश कर रहे हैं।

90 में से 70 विधानसभा सीटों पर कब्जे की वजह से भले ही कांग्रेस शासित अन्य राज्यों के मुकाबले छत्तीसगढ़ के पास रखा ‘सुरक्षित सरकार’ का तमगा ज्यादा चमक रहा है, मगर स्थिति को समय रहते दुरुस्त नहीं करने की रणनीति आगे परेशानी का सबब जरूर बन सकती है। लिहाजा मौके की तलाश में बैठी भाजपा इसकी बाट जोह रही है।

बघेल

अपने समर्थकों के साथ दिल्ली में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल

राज्य में फिलहाल मुख्यमंत्री बदलने के संकेत भले ही न मिले हों, लेकिन भूपेश बघेल की पूरी पारी खेलने की बात भी आलाकमान की ओर से साफ तौर पर नहीं कही गई है। 27 अगस्त को कांग्रेस नेता राहुल गांधी के निवास 12, तुगलक लेन में लंबी बैठक के बाद शाम 7:30 बजे जब भूपेश बघेल बाहर निकले तब उन्होंने  इशारों-इशारों में कहा कि वे अभी पद पर बने रहेंगे। मगर पत्रकारों के कुछ सवालों पर उनकी थोड़ी झल्लाहट सियासी अटकलबाजियों के लिए जमीन भी तैयार कर गई। राहुल से मुलाकात के बाद बघेल ने कहा, “पार्टी नेतृत्व को मैंने अपने मन की बात बता दी है। बैठक में छत्तीसगढ़ के विकास और राजनीति के बारे में विस्तार से चर्चा हुई है। मैंने राहुल गांधी से अनुरोध किया कि वे छत्तीसगढ़ आएं। वे अगले सप्ताह आएंगे और राज्य में अब तक हुए विकास कार्यों को देखेंगे।” जब उनसे पूछा गया कि क्या आगे मुख्यमंत्री बने रहेंगे, तो बघेल ने कहा कि मुख्यमंत्री के तौर पर ही उन्होंने राहुल गांधी को छत्तीसगढ़ आमंत्रित किया है।

ढाई-ढाई साल मुख्यमंत्री रहने की बात पर बघेल ने कहा कि राज्य प्रभारी पी.एल. पूनिया इस बारे में पहले ही साफ कर चुके हैं। इस बारे में आगे कुछ कहने की जरूरत नहीं है। लेकिन दिल्ली से छत्तीसगढ़ लौटने के बाद पहली बार सिंहदेव ने साफ तौर पर कहा कि ढाई-ढाई साल का फॉर्मूला वाली बात हुई थी। हालांकि उन्होंने कहा कि यह पार्टी का अंदरूनी मामला था। इसका सार्वजनिक पटल पर आना गलत है।

पूनिया समेत किसी भी बड़े नेता ने अभी तक आधिकारिक तौर पर ढाई-ढाई साल वाले फॉर्मूले की पुष्टि नहीं की है। मगर 17 दिसंबर 2018 को भूपेश बघेल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी, तब से ही अंदरखाने चर्चा थी कि ढाई साल के फॉर्मूले के तहत वे इस पद पर बने रहेंगे जबकि इसके बाद सिंहदेव कमान संभालेंगे। अब जब भूपेश की नेतृत्व वाली सरकार अपने ढाई बरस पूरे कर चुकी है, तब सिंहदेव के गुट से बदलाव की आवाजें तेज हो गई हैं। साथ ही कई मोर्चों पर मुख्यमंत्री बघेल और सिंहदेव के बीच टकराव वाली स्थितियां भी निर्मित होती रही हैं। जब तनाव ज्यादा बढ़ने लगा तब दोनों नेताओं को दिल्ली तलब किया गया। माना जा रहा है कि टीएस सिंहदेव ‘ढाई साल वाले वादे’ को लेकर आलाकमान पर दबाव बनाने में जुटे हैं। उन्होंने मुख्यमंत्री पद नहीं मिलने पर मंत्री पद भी छोड़ने की पेशकश की है। दूसरी ओर, बघेल भी अपनी मजबूत स्थिति दिखा रहे हैं। इससे साफ है कि कांग्रेस केंद्रीय नेतृत्व की कमान अब नहीं चल पा रही है। लिहाजा, इसका असर व्यापक विपक्षी एकता में भी दिखना तय है।

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