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कांग्रेस: जन जोड़ो, धन जोड़ो पर मन का क्या!

“राहुल की यात्रा कुछ संभावना जगाती है, मगर कांग्रेस के बाकी फैसले और अस्पष्ट-सी नीतियां अध्यक्ष...
कांग्रेस: जन जोड़ो, धन जोड़ो पर मन का क्या!

“राहुल की यात्रा कुछ संभावना जगाती है, मगर कांग्रेस के बाकी फैसले और अस्पष्ट-सी नीतियां अध्यक्ष चुनाव को भी मुखौटा ही साबित कर रहीं”

राहुल गांधी देश और लोगों को ढंग से जानने, उनकी समस्याएं दर्ज करने और “दिलों को जोड़ने” का मकसद दिल में लिए लंबे पैदल सफर पर भारत जोड़ो यात्रा पर हैं और लोगों से संपर्क-संवाद, कुछ दिल छूने वाले वाकयों की तस्वीरें भी खूब वायरल हैं। वे विभिन्न संवादों में यह भी गिना रहे हैं कि देश के लोग कैसे मुट्ठी भर कॉरपोरेट घरानों के लिए मौजूदा शासन की एकाधिकारवादी नीतियों के कारण रोजगार खोते जा रहे हैं, लेकिन उनके एक हालिया बयान और कांग्रेस के हालचाल देख कई बार हिंदी के सबसे सशक्त राजनैतिक कवि का वह यक्ष-प्रश्न सामने आ खड़ा होता है कि कॉमरेड तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है? जाहिर है, देश की सबसे पुरानी पार्टी के सामने आज के प्रश्न उसी दिग्गज जादूगर की टोपी से निकले हैं, जिसे दुनिया अशोक गहलोत के नाम से जानती है।

चौंकिए मत, जमाने से गांधी-नेहरू परिवार के वफादार रहे राजस्थान के मुख्यमंत्री वाकई जादू की कला में माहिर हैं। अपने पेशे से जादूगर पिता लक्ष्मण सिंह गहलोत के शो में मंच पर कॉलेज की पढ़ाई के दौरान अशोक गहलोत भी टोपी से कबूतर उड़ा देने जैसे करिश्मे दिखाया करते थे। यूं तो चार-पांच दशकों से ज्यादा के करियर में उनकी जादुई कामयाबियां भी कई-कई हैं, मगर हाल में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव और बस थोड़े ही दिनों बाद राजस्थान इन्वेस्टर समिट में अडाणी समूह के गौतम अडाणी को तरजीह देकर उन्होंने मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व के जैसे हाथ के तोते उड़ा दिए। पहला झटका उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव को लेकर दिया। कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी के कथित आदेश से वे बेमन से पार्टी की कमान संभालने को तो तैयार थे, मगर मुख्यमंत्री की कुर्सी बनाए रखने की चाहत और शायद पार्टी में कुछ दुरभिसंधियों में उलझने को कतई तैयार नहीं थे। वे कुछ पत्रकारों से भी सार्वजनिक तौर पर कह चुके थे कि एक व्यक्ति, एक पद का उदयपुर संकल्प विशेष पदों के सिलसिले में लागू नहीं होता क्योंकि पार्टी अध्यक्ष भी तो चुनाव लड़ने का फैसला करता है। शायद इसीलिए वे आजकल सिद्घांतों पर अडिग रहने का तेवर दिखाने वाले राहुल से मिलने केरल में पदयात्रा में शामिल होने गए, लेकिन उसके एक शाम पहले ही राहुल पत्रकारों के एक सवाल पर कह गए कि उदयपुर संकल्प तो लागू है।

उधर, सूत्रों के मुताबिक, प्रियंका गांधी के दबाव पर नए नेता के चुनाव के लिए विधायक दल की जयपुर में 27 सितंबर को बैठक बुलाई गई। प्रियंका चाहती थीं कि सचिन पायलट को राजस्थान की कमान दे दी जाए। गहलोत ने ऐसी बाजी पलटी कि सारी योजनाएं धरी रह गईं। केंद्रीय पार्टी से मल्लिकार्जुन खड़गे और अजय माकन को गहलोत के घर पर विधायकों की राय जानने के लिए शाम 7 बजे बैठक बुलाई गई, लेकिन उससे कुछ पहले ही ज्यादातर विधायक (दावा 92 का) शांति धारीवाल के घर जुटे। पर्यवेक्षकों के सामने तीन शर्तें रखी गईं जिनमें प्रमुख थींः नेता का चुनाव 19 अक्टूबर को कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव संपन्न होने के बाद हो, विधायकों से अकेले नहीं समूह में बात की जाए। पर्यवेक्षकों ने शर्तें नहीं मानीं तो विधायकों ने विधानसभा अध्यक्ष सी.पी. जोशी को इस्तीफा सौंप दिया।

इसे पार्टी आलाकमान की तौहीन माना गया, जिसकी रत्ती भर आशंका नहीं थी और तीन-चार नेताओं को कारण बताओ नोटिस भी जारी किया गया। आखिर 29 नवंबर को गहलोत ने सोनिया गांधी से मिलकर माफी मांगी और अपने को अध्यक्ष पद के चुनाव से अलग कर लिया। सोनिया से मिलने आए गहलोत के नोट की फोटो भी वायरल हुई, जिसमें वे पायलट पर गद्दारी करने का पाइंट भी लिखकर लाए थे, हालांकि सोनिया ने यथास्थिति बनाए रखने का ही फैसला किया। इस पूरे घटनाक्रम पर नाम न छापने की शर्त पर राजस्थान के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि प्रियंका की जिद ने नवजोत सिंह सिद्धू को स्थापित करने के चक्कर में पंजाब में कांग्रेस का सफाया करवा दिया। अब वे चाहती थीं कि राजस्थान में भी वही हो। प्रियंका पर ऐसे ही सवाल उत्तर प्रदेश में भी उठ रहे हैं, जहां की वे प्रभारी महासचिव हैं। प्रदेश के पुराने कांग्रेसी नेता हाल में नियुक्त किए गए प्रदेश अध्यक्ष बृजलाल बागड़ी को लेकर भी हैरानी जताते हैं।

बागड़ी बुंदेलखंड के अनुसूचित जाति के बहुत हद तक अचर्चित नेता हैं और दो बार बसपा के सांसद रह चुके हैं। वे कुछ साल पहले ही कांग्रेस में आए हैं। कहा जाता है कि उत्तर प्रदेश के सारे फैसले प्रियंका ही करती हैं और अपने फैसलों तथा कार्यशैली से बचे-खुचे कांग्रेसियों को भी नाराज कर रही हैं। प्रदेश कांग्रेस के एक पदाधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, "जब बंटाधार पर ही उतारू हों तो क्या कहा जा सकता है।"

खैर! गहलोत की दूसरी बाजीगरी पर लौटते हैं। हाल में वे राज्य में इन्वेस्टर समिट में गौतम अडाणी के साथ दिखे, जो राज्य में 26,000 करोड़ रुपये के निवेश का वादा कर रहे थे। गहलोत ने कहा, "मैं राज्य में निवेश और रोजगार सृजन के लिए अडाणी, अंबानी या अमित शाह के बेटे जय शाह का भी स्वागत करता हूं।" 2014 तक बड़े उद्योगपतियों की सूची में खोजे-से मिलने वाले अडाणी का नाम 2022 में दुनिया के सबसे अमीर लोगों की फेहरिस्त में दूसरे नंबर पर पहुंच गया। राहुल अब तक अडाणी और अंबानी की मोनोपॉली स्थापित होने की बात 'हम दो, हमारे दो' कहकर लगातार उठाते रहे हैं। देश में बेरोजगारी, महंगाई और सरकारी संपत्तियों की बिक्री का नतीजा इसी को वे बताते रहे हैं। अपनी यात्रा के दौरान पत्रकारों के सवाल पर राहुल ने कहा, "मैं कॉरपोरेट और कारोबार का विरोधी नहीं हूं, बस मोनोपॉली के खिलाफ हूं, जो सारी अर्थव्यवस्था और देश को बर्बाद कर रही है। अगर राजस्थान सरकार वाजिब तरीके से निवेश का स्वागत करती है तो मुझे कोई दिक्कत नहीं है।" (अडाणी की परियोजनाएं छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के साथ झमेले में फंसी हैं जबकि कांग्रेस अदिवासी हितों की रखवाली होने का दावा करती है) अब इसे उसके रुख में परिवर्तन माना जाए या कुछ और! यह सवाल उनकी यात्रा में शामिल नागरिक संगठनों और एक्टिविस्टों को भी परेशान कर सकता है और दूसरी विपक्षी पार्टियों को भी, जिनका एका कायम करके 2024 में मोदी-शाह की भाजपा को टक्कर देने की कोशिशों में कई नेता लगे हैं।

कांग्रेस की समस्या राजनीति की धारा तय न कर पाने और अपने नेताओं की महत्वाकांक्षाओं और जादुई चालों से भी ज्यादा बड़ी लगती है, जो भाजपा को चुनौती देने के दूसरे विपक्षी नेताओं की कोशिशों को भी भंवर में फंसा देती है। इसका इजहार कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में खुलकर दिख रहा है। गहलोत और दिग्विजय सिंह के बाद मल्लिकार्जुन खड़गे के पास अनऑफिशियल ऑफिशियल कैंडिडेट की आई बाजी यथास्थिति को टस से मस करती नहीं दिखती। शशि थरूर जरूर कह रहे हैं कि वे बदलाव के लिए लड़ रहे हैं और उन्होंने अपना मैनिफेस्टो भी जारी किया है, जिसमें ज्यादातर बातें जी-23 की चर्चित चिट्ठी की ही हैं। वे कहते हैं, "खड़गे जहां जाते हैं वहां प्रदेश के बड़े नेता और प्रदेश पदाधिकारी उनका स्वागत करते हैं जबकि मुझसे मिलने सिर्फ सामान्य कार्यकर्ता ही आते हैं।"

ऐसे में कोई कह सकता है कि चुनाव बस लोकतांत्रिक दिखने का मुखौटा भर है। अगर ऊपरी महल में ही दुविधा और दांवपेच जारी हो तो पता नहीं, पार्टी का कौन रखवाला होगा। राहुल जरूर अपनी यात्रा से कई भावुक क्षणों के साथ सहानुभूति बटोरने और करोड़ों के निवेश से भाजपा द्वारा खराब की गई छवि को संवारने की कोशिश कर रहे हैं। केरल, कर्नाटक में दिखी भीड़ और यात्रा के आकर्षण से वहां कांग्रेस की स्थिति मजबूत होने की संभावना जगा रहे हैं। खासकर कर्नाटक में पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धरमैया और प्रदेश अध्यक्ष डी.के. शिवकुमार की कथित गुटबंदियों में एकजुटता का भाव जगाने की कोशिश भी वे कर रहे हैं। फिर भी मूल सवाल जहां का तहां खड़ा है। जब तक कांग्रेस अपनी दुविधा और आकांक्षाओं में तालमेल बिठाने का तरीका नहीं ढूंढ लेती, अपनी नीतियों-कार्यक्रमों पर स्पष्ट नजरिया नहीं पेश करती, तब तक देश के लोगों के मन में भ्रम ही पैदा करती रहेगी। फिर पिछले दो संसदीय चुनावों में करीब 19 प्रतिशत के वोट आधार को बढ़ाने और रूठ कर दूसरी पार्टियों की ओर चले गए वोटरों को वापस पाने का थरूर जैसों का सपना, सपना ही बना रह सकता है।

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