सपा मुखिया अखिलेश यादव ने जब बसपा से गठबंधन किया था तो यह नहीं सोचा होगा कि लोकसभा चुनाव में परिणाम उनकी सोच के विपरीत आएंगे। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी और परिवार में खुद को साबित करने की आ खड़ी हुई है। जनता के फैसले से कार्यकर्ता से लेकर पदाधिकारी तक सकते में है और दबी जुबान पार्टी के फैसलों और मिस मैनेजमेंट पर सवाल खड़ा कर रहे हैं। वहीं, बसपा सुप्रीमो मायावती को जीरो से नौ सीटों तक पहुंचने के लिए संतोष कर रही हैं। चुनाव में बसपा का वोट प्रतिशत में मामलूी गिरावट है, जबकि सपा का वोट प्रतिशत भी घट गया।
अपने ही गढ़ में मिली मात
लोकसभा चुनाव के परिणामों ने प्रदेश की राजनीतिक दशा और दिशा बदल दी है। सपा के सामने अपने भविष्य को लेकर चिंतन का समय है क्योंकि सपा मुखिया ने 2017 के चुनावों के पहले अपने चाचा और अब प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के नेता शिवपाल यादव को किनारे कर कांग्रेस से गठबंधन किया और नतीजा अत्यंत निराशाजनक रहा। इसके बाद 2019 में कांग्रेस को किनारे कर बसपा और रालोद से गठबंधन किया, नतीजे 2017 से भी बुरे आए। सपा को अपने गढ़ में ही मात मिली और अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव, चचेरे भाई अक्षय यादव, धर्मेंद यादव को सीट गंवानी पड़ी।
वोट बैंक में आई कमी
सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव जीते तो, लेकिन पिछली बार की अपेक्षा और कम वोटों से। कांग्रेस के प्रत्याशियों ने भी गठबंधन के लिए मुश्किलें खड़ी कीं। कांग्रेस ने सपा और बसपा से टूटकर आए करीब 30 प्रत्याशियों को टिकट दिया। इसमें संतकबीरनगर से भालचंद यादव को छोड़कर सभी तीसरे पायदान पर रहे। इन्होंने सपा-बसपा का ही वोट काटा। बदायूं और फिरोजाबाद सीट पर जितने वोट कांग्रेस प्रत्याशियों को मिले हैं, उतने सपा को मिल जाते तो धर्मेंद्र यादव और अक्षय यादव भी संसद पहुंच जाते। प्रदेश में 1977 के बाद यह कांग्रेस का सबसे खराब प्रदर्शन रहा और उसका वोट बैंक साढ़े सात फीसदी से घटकर 6.22 फीसदी पर पहुंच गया।
सपा का वोट प्रतिशत 2014 के चुनाव में 22.20 फीसदी था। जबकि 2019 में लोकसभा चुनाव में वोट प्रतिशत घटकर 18 फीसदी रहा गया। वहीं बसपा का वोट प्रतिशत 2014 के चुनाव में 19.60 फीसदी था और 2019 में 19.30 फीसदी वोट मिले हैं। इस तरह से बसपा को मात्र .30 फीसदी का ही नुकसान है।
नहीं दी पदाधिकारियों को जिम्मेदारी
सपा सूत्रों का कहना है कि इस हार की समीक्षा होनी चाहिए, क्योंकि सपा मुखिया ने गठबंधन धर्म निभाने में बसपा सुप्रीमो मायावती से ज्यादा त्याग किया। यहां तक कि संयुक्त रैलियों में बसपा सुप्रीमो के हेलीकाप्टर तक के खर्चे प्रत्याशियों ने उठाए। अखिलेश यादव ने सपा प्रत्याशियों के अलावा बसपा प्रत्याशियों के यहां भी अकेले रैलियां कीं। जबकि मायावती ने ऐसा नहीं किया। चुनाव में हुए खर्च में भी सपा को ही ज्यादा बोझ उठाना पड़ा।
सपा के एक अन्य पदाधिकारी ने कहा कि मैं पार्टी के एक विंग का प्रदेश उपाध्यक्ष हूं, लेकिन पार्टी की ओर से हमें कोई जिम्मेदारी नहीं दी गई थी। इतना ही नहीं, बलिया सीट पर नीरज शेखर का टिकट काटा गया तो उनसे भी कोई सहयोग नहीं लिया गया। अगर वह क्षेत्र में घूम भी देते तो ठाकुरों बिरादरी का वोट गठबंधन को मिल जाता और सीट हम जीत जाते।
क्या आगे जारी रहेगा गठबंधन
बसपा सुप्रीमो ने नतीजों के बाद दिए अपने बयान में गठबंधन आगे भी जारी रखने की बात कही। साथ ही अखिलेश और चौधरी अजित सिंह को धन्यवाद दिया, लेकिन सपा मुखिया अखिलेश यादव ने नतीजों के बाद ट्विट कर जो प्रतिक्रिया दी है, उसमें उन्होंने गठबंधन के बारे में एक शब्द नहीं लिखा है। हालांकि भविष्य में भी गठबंधन जारी रहने की उम्मीद है, लेकिन अब इसका रूप का क्या रहेगा, यह भविष्य ही तय करेगा।