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स्मृति: झारखंड के 'लेनिन'

वह दौर 1970 और 1975 का था। तब के बिहार (अब झारखंड) में कोयलांचल वर्कर्स यूनियन का आंदोलन जोर पकड़ रहा था।...
स्मृति: झारखंड के 'लेनिन'

वह दौर 1970 और 1975 का था। तब के बिहार (अब झारखंड) में कोयलांचल वर्कर्स यूनियन का आंदोलन जोर पकड़ रहा था। कॉमरेड ए.के. रॉय और बिनोद बिहारी महतो जैसे नेता उसे व्यापक जन आंदोलन बनाने में जुटे हुए थे। लगभग उसी दौर में संथाल परगना में एक नौजवान साहूकारों और शोषकों के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहा था। कॉमरेड ए.के. रॉय ने उस नौजवान में लेनिन जैसी चिंगारी देखी।

शिबू सोरेन नाम का वह नौजवान बाद में झारखंड मुक्ति मोर्चा का नायक बना। प्यार से उन्हें वहां के आदिवासी दिशोम गुरु कहते हैं। लंबी अस्‍वस्‍थता के बाद 4 अगस्त को 81 वर्ष की उम्र में उन्होंने दिल्ली के सर गंगा राम अस्पताल में अंतिम सांस ली।

शिबू सोरेन की जीवन यात्रा झारखंड की आदिवासी राजनीति, सामाजिक अन्याय के विरुद्ध संघर्ष और क्षेत्रीय अस्मिता के संघर्ष का प्रतीक है। उन्‍होंने आदिवासी अधिकारों की रक्षा, भूमि रक्षा की लड़ाई, अलग झारखंड राज्य के आंदोलन से होकर राष्ट्रीय राजनीति में अपनी सक्रिय मौजूदगी दर्ज की।

संथाल परगना (अब रामगढ़ जिले) के नेमरा गांव में 11 जनवरी, 1944 को जन्मे शिबू सोरेन को कच्ची उम्र में ही संघर्षों का सामना करना पड़ा। उनके स्कूल मास्‍टर पिता शोबरन सोरेन की जमीन विवाद को लेकर जमींदारों और साहूकारों ने 27 नवंबर, 1957 को हत्या कर दी। तब तक शिबू की रेख भी नहीं फूटी थी। उस घटना से वे बुरी तरह टूट गए। लेकिन फिर यही घटना उनके लिए आदिवासियों पर धनकड़ों यानी साहूकारों और जमींदारों के जुल्‍मो-सितम से लड़ने की प्रेरणा-स्रोत भी बनी।

शिबू सोरेन ने 1965 और 1970 के बीच धनकटनी आंदोलन (फसल जब्ती आंदोलन) शुरू किया। उस आंदोलन में आदिवासी नौजवानों के जत्‍थों ने साहूकारों से पूछे बिना आदिवासी जमीन पर उगाई गई फसलों की कटाई की। वह आंदोलन जमींदारों और साहूकारों के लिए खौफ का पर्याय बन गया।

शिबू सोरेन 1970 से 1990 तक अलग झारखंड राज्य आंदोलन के अहम किरदार रहे। उन्होंने 1972 में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की स्थापना की।

शिबू सोरेन के साथ वर्षों काम करने वाले प्रोफेसर संजय बसु मल्लिक ने बताया, ‘‘उनके व्यक्तित्व की खासियत ही मुझे सबसे ज्‍यादा प्रभावित करती थी। मैं पहली बार गुरुजी से 1975 में मिला था।’’ मल्लिक के मुताबिक, सोरेन दूसरे नेताओं से एकदम अलग और बेजोड़ थे। वे कहते हैं, ‘‘उनके मुकाबले दूसरे सबसे अहम आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा 12-13 साल की उम्र में इंग्लैंड गए, उच्च शिक्षा प्राप्त की, दुनिया देखी और बड़े नायक और आदिवासी हकों की आवाज बने। दूसरी ओर शिबू सोरेन बेहद सामान्‍य आदिवासी पृष्‍ठभूमि वाले गांव से उभरे। पढ़ाई-लिखाई मात्र ककहरा सीखने तक, और बाहरी दुनिया से कोई वास्ता न रखने वाले। उन्होंने प्रशासन और सरकार का सीधा सामना किया।’’

शिबू सोरेन और जयपाल सिंह मुंडा के बीच मतभेद गहरे थे। मुंडा ने अलग राज्य के लिए सरकार से बातचीत का रास्ता चुना, जबकि शिबू सोरेन उस लड़ाई को गांव-गुहाड़ और सड़कों पर ले आए। एक समय शिबू सोरेन और विनोद बिहारी महतो का गठबंधन मांझी-महतो गठबंधन के नाम से प्रसिद्ध था। उनके गठबंधन ने कोइरी, कुर्मी और क्षेत्र की सबसे बड़ी संथाल आबादी को अलग राज्य आंदोलन के समर्थन में एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इमरजेंसी के बाद यह साझेदारी टूट गई। 1995 में बिहार के अंतर्गत झारखंड स्वायत्त परिषद का गठन किया गया और शिबू सोरेन को उसका अध्यक्ष बनाया गया। 15 नवंबर, 2000 को झारखंड राज्य बना।

स्वायत्त परिषद में उनके साथ रहे प्रभाकर तिर्की कहते हैं, “जमीन के मामले में वे सीधी कार्रवाई में विश्वास करते थे, कब्जा करो और खेती करो। उसी आंदोलन ने झारखंड के राजनैतिक परिदृश्य को आकार दिया।” आंदोलन और संघर्ष के उन वर्षों में शिबू सोरेन पर हत्या के आरोपों सहित कई मुकदमे भी दर्ज हुए। कहा जाता है कि उन्होंने जंगलों में छिपकर भूमिगत आंदोलन चलाए, अक्सर पुलिस की गिरफ्त से बचने के लिए एक ही रात में दो-तीन बार अपने ठिकाने बदलते रहे।

उनका औपचारिक राजनैतिक जीवन संसदीय राजनीति से शुरू हुआ। वे पहली बार 1980 में दुमका से लोकसभा के लिए चुने गए और फिर 1989, 1991, 1996, 2002, 2004 और 2009 तक लगातार चुने जाते रहे। 2004 में वे यूपीए सरकार में मंत्री रहे, लेकिन विवादों के चलते उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। उनका करियर विवादों से अछूता नहीं रहा। वे 1993 के झामुमो रिश्वतखोरी मामले में भी फंसे थे, जिसमें सांसदों पर कांग्रेस सरकार को बचाने के लिए पैसे लेने का आरोप था। 2006 में उन्हें दोषी ठहराया गया और जेल भेज दिया गया, लेकिन बाद में ऊपरी अदालत ने उन्हें बरी कर दिया।

शिबू सोरेन तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रहे। पहली बार 2005 में, लेकिन वे बहुमत साबित नहीं कर पाए और नौ दिनों के भीतर ही इस्तीफा देना पड़ा। उनका दूसरा कार्यकाल 2008 में शुरू हुआ, लेकिन सरकार कुछ ही महीनों में गिर गई। 30 दिसंबर 2009 को उन्होंने तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, लेकिन जून 2010 में तमार विधानसभा सीट पर उपचुनाव हारने के बाद उन्हें फिर इस्तीफा देना पड़ा।

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