लंबे समय से चल रहे सियासी उथल-पुथल के बाद आखिरकार उत्तराखंड के सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने मुख्यमंत्री पद से मंगलवार को इस्तीफा दे दिया। दरअसल, बीजेपी के कई विधायकों और कुछ मंत्रियों की नाराजगी की वजह से उन्हें बीते दिनों दिल्ली तलब किया गया था। ये पटकथा कई दिनों से चल रही थी।
बीते सप्ताह शनिवार को छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह को देहरादून विधानसभा सत्र की चर्चा करने के बाद पहले से बिना किसी निर्धारित तारीख से इतर कोर कमेटी की बैठक आयोजित करने के लिए भेजा गया था। दरअसल, राज्य में अगले साल विधानसभा चुनाव है और पार्टी के भीतर उठते असंतोष को देखते हुए पार्टी के आलाकमानों को ये कदम उठाना पड़ा है। ऐसा देखा जा रहा था कि यदि त्रिवेंद्र सिंह रावत की अगुवाई में आगामी चुनाव लड़े जाते हैं तो भाजपा को नुकसान उठाना पड़ सकता है।
इस्तीफा देने के बाद रावत ने कहा, पार्टी ने मुझे चार साल तक इस राज्य की सेवा करने का सुनहरा अवसर दिया है। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे ऐसा मौका मिलेगा। पार्टी ने अब फैसला किया है कि सीएम के रूप में सेवा करने का अवसर किसी और को दिया जाना चाहिए। आगे रावत ने जानकारी दी कि भाजपा विधायक दल की बैठक कल सुबह 10 बजे पार्टी कार्यालय पर होनी है।
गढ़वाल और कुमाऊं, दो मंडलों में उत्तराखंड सांस्कृतिक और भाषाई तौर पर बंटा हुआ है। दोनों ही मंडलों में दबदबा कायम करने की होड़ रही है। जब रावत ने गढ़वाल के हिस्से गैरसैंण मंडल में कुमांऊ के दो जिलों बागेश्वर और अल्मोड़ा को शामिल किया तो पूरे कुमाऊं में सियासी बवाल मच गया। जिसके बाद इसे कुमांऊ की अस्मिता और पहचान पर हमला माना गया। इसको लेकर भी राजनीतिक गहमागहमी चल रही थी। वहीं, त्रिवेंद्र ने जब उत्तराखंड के देवस्थानम् बोर्ड बनाकर, इसके भीतर केदारनाथ, यमनोत्री धाम, बद्रीनाथ और गंगोत्री को सरकार के अधीन कर दिया था। जिसके बाद इससे ब्राह्मण समाज की तरफ से तीखी प्रतिक्रिया आई थी। भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। हाईकोर्ट में सरकार की जीत हुई और स्वामी सुप्रीम कोर्ट चले गए। फिलहाल इस मामले में अभी सुनवाई चल रही है।