पश्चिम बंगाल में हिंसा से भरपूर दो चरणों में 60 सीटों पर मतदान के बाद गृहमंत्री अमित शाह ने 50 से ज्यादा सीटों पर भाजपा उम्मीदवारों की जीत का दावा किया है। इससे पहले प्रदेश की 294 सीटों में से वे 200 से ज्यादा सीटें जीतने का दावा भी कर चुके हैं। दूसरी तरफ, प्रदेश की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी कह रही हैं कि बंगाल में भाजपा को रसगुल्ला (यानी शून्य) मिलेगा। अगर ममता का यह दावा अतिशयोक्तिपूर्ण लगता है तो वोटों के गणित में भाजपा की राह भी आसान नहीं लगती। 2016 में जब ममता ने सरकार बनाई तो उनकी पार्टी को 44.9% वोट मिले थे। 2019 के लोकसभा चुनाव में भी उनकी पार्टी 43.3% वोट हासिल करने में सफल रही थी। इस आधार पर देखा जाए तो सरकार बनाने के लिए भाजपा को कम से कम 44% वोट की जरूरत होगी। दो साल पहले लोकसभा चुनाव में उसे 43.3% और 2016 के विधानसभा चुनाव में 10.2% वोट मिले थे। जैसा दूसरे राज्यों में दिखा, लोकसभा चुनाव की तुलना में विधानसभा चुनाव में भाजपा को कम वोट मिले। अगर पश्चिम बंगाल में भी ऐसा होता है, तो उसके लिए सरकार बनाना मुश्किल हो सकता है।
जर्सी नई, खिलाड़ी वही
स्थानीय पत्रकार अनवर हुसैन के अनुसार, सच है कि भाजपा ने काफी माहौल बनाया है, लेकिन सवाल है कि यह वोट में कितना तब्दील होगा। अभी तक पार्टी की रणनीति मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को टार्गेट करने की रही है। तृणमूल नेताओं पर कट मनी/ कमीशन लेने के तो आरोप हैं, ममता की व्यक्तिगत छवि साफ-सुथरी है। वे कहते हैं, “उनके नाम पर जिन लोगों ने भ्रष्टाचार किया, जिन पर गंभीर आरोप थे उनमें अनेक तो भाजपा में चले गए। पार्टी ने उन्हें उम्मीदवार भी बनाया है।” अनवर के अनुसार जो नेता तृणमूल से भाजपा में गए हैं, उनमें अनेक महारथी हैं। उन पर किसी का वश नहीं चलता। वे जहां भी रहेंगे वही करेंगे। वे सवाल उठाते हैं, “सीबीआइ और ईडी सिर्फ तृणमूल के उम्मीदवारों से क्यों पूछताछ कर रही है? तृणमूल से भाजपा में गए उम्मीदवारों से कोई पूछताछ नहीं हो रही है, जबकि उनके ऊपर भी गंभीर आरोप हैं।” टीवी चैनल न्यूज़ टाइम के एसोसिएट एडिटर पार्थो बंदोपाध्याय चुनाव कवरेज के लिए कई जिलों का दौरा कर चुके हैं। वे बताते हैं, “10 साल सरकार में रहने के बाद तृणमूल के स्थानीय नेताओं के खिलाफ रोष तो है। ममता की दुआरे सरकार और स्वास्थ्य साथी स्कीम को लोगों ने काफी पसंद किया है। लेकिन इसे बस दो महीने पहले शुरू किया गया। और पहले शुरू किया जाता तो पार्टी को ज्यादा लाभ मिल सकता था।”
एक वरिष्ठ पत्रकार ने नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर कहा, “यह भी संभव है कि एनआइए, सीबीआइ और ईडी के डर से स्थानीय नेता और कार्यकर्ता सक्रिय रूप से तृणमूल की मदद न करें। केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई के कारण तृणमूल को पैसे की कमी का भी सामना करना पड़ रहा है। उनके लिए बैंक से पैसे निकालना भी मुश्किल हो गया है। दूसरी तरफ केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के नेता प्राइवेट जेट में यात्राएं कर रहे हैं।”
पहले पंचायत, फिर लोकसभा और फिर विधानसभा
तृणमूल नेता इसे महाभारत की लड़ाई बताते हैं, जिसमें एक तरफ ममता हैं तो दूसरी तरफ प्रधानमंत्री और उनकी पूरी कैबिनेट, पार्टी और संघ के नेता हैं। इसके बावजूद पूर्व राज्यसभा सांसद और जोड़ासांको से तृणमूल प्रत्याशी विवेक गुप्ता कहते हैं कि ‘दीदी’ की हैट्रिक होगी। पार्टी को कितनी सीटें मिलेंगी, यह पूछने पर उनका जवाब था, मैं खुद अभी चुनाव लड़ रहा हूं इसलिए सीटों के आकलन का समय नहीं मिला है।
तृणमूल की राह मुश्किल है तो भाजपा की राह भी आसान नहीं। हालांकि पहले की तुलना में उसकी स्थिति बेहतर कही जा सकती है। बांग्ला दैनिक ‘एक दिन’ के संपादक संतोष कुमार सिंह के मुताबिक पहले भाजपा कार्यकर्ताओं में डर था, लेकिन दो चरणों में केंद्रीय सुरक्षा कर्मियों के काम को देखते हुए उनमें उत्साह बढ़ा है। 6 अप्रैल के बाद दूसरे राज्यों के चुनाव खत्म हो जाएंगे तब सुरक्षा बल की और कंपनियां बंगाल आ जाएंगी। भाजपा के दूसरे नेता भी यही जमेंगे।
संतोष एक और वजह बताते हैं, “गांवों में जिसका कब्जा होता है सरकार उसी की होती है। भाजपा गांवों में मजबूत स्थिति में है।” वे ट्रेंड का जिक्र करते हैं। 2008 के पंचायत चुनाव में तृणमूल ने दक्षिण 24 परगना और पूर्व मिदनापुर जिलों पर कब्जा किया था। उसके बाद 2009 में उसके सांसदों की संख्या बढ़ी और 2011 में सरकार बन गई। ठीक उसी तरह 2018 के पंचायत चुनाव में भाजपा ने खुद को मजबूत विपक्ष के रूप में स्थापित किया था। 2019 में वह लोकसभा की 18 सीटें जीत गई। अब वह प्रदेश में सरकार बनाने की तैयारी में है।
विकल्प नहीं बन सका संयुक्त मोर्चा
लेफ्ट-कांग्रेस-आइएसएफ संयुक्त मोर्चा का असर चुनिंदा जिलों में ही होगा वह भी उन जगहों पर जहां नेताओं का अपना आधार है। मुर्शिदाबाद और मालदा जिलों में संयुक्त मोर्चा बेहतर प्रदर्शन कर सकता है। इन दोनों जिलों में अल्पसंख्यकों की संख्या काफी है। लेकिन संतोष के अनुसार इससे भाजपा के लिए संभावनाएं बढ़ेंगी। वे एक और बात कहते हैं, “दूसरे राज्यों से आए मुसलमान भले भाजपा के खिलाफ हों, बंगाली मुसलमान कुछ हद तक भाजपा को स्वीकार कर रहे हैं। वे यह देखते हैं कि उन्हें क्या मिल रहा है।” हालांकि अनवर के मुताबिक आइएसएफ नेता अब्बास सिद्दीकी को बंगाली मुसलमानों में कुछ हद तक समर्थन हासिल है। वे कहते हैं, “अगर त्रिशंकु विधानसभा बनती है और गठबंधन को 25 सीटें भी मिल जाती हैं, तो वह तृणमूल का समर्थन कर सकता है।” हालांकि चुनाव बाद तृणमूल से हाथ मिलाने पर वाम मोर्चा के नेताओं में मतभेद हैं। पार्थो कहते हैं, “संयुक्त मोर्चा वैकल्पिक ताकत के रूप में खुद को स्थापित नहीं कर पाया। लेफ्ट ने नए प्रत्याशियों को टिकट दिया है। उनका वोट प्रतिशत बढ़ सकता है, लेकिन वे भाजपा का वोट काटेंगे या तृणमूल का यह अभी स्पष्ट नहीं कहा जा सकता।” आम लोगों में यह धारणा भी काम कर रही है कि मोर्चा कुछ सीटें जीत सकता है, पर उसकी सरकार तो नहीं बनेगी। यह बात उसके खिलाफ जा रही है।
इसलिए टक्कर तो भाजपा और तृणमूल के बीच ही दिख रही है। अगर तृणमूल हारती है तो इसका मनोवैज्ञानिक असर पश्चिम बंगाल से बाहर दूसरे राज्यों में भी हो सकता है। हाल में कई राज्यों में भाजपा को या तो हार का सामना करना पड़ा या जोड़-तोड़ करके सरकार बनानी पड़ी। इसके बावजूद भाजपा बंगाल चुनाव हार कर मजबूत राष्ट्रीय पार्टी बनी रह सकती है, जबकि दूसरे दलों के साथ ऐसा नहीं है। विश्लेषकों के अनुसार तृणमूल को 175 से 200 सीटें मिले तभी उसकी सरकार सुरक्षित रह सकती है। पर कितने दिनों तक, यह कहना मुश्किल होगा। संभव है कि मध्य प्रदेश की तरह यहां भी तृणमूल के कुछ विधायक इस्तीफा देखकर ममता सरकार को अल्पमत में ले आएं।